उमेश चतुर्वेदी
राजनीति का लक्ष्य जब से सिर्फ सत्ता प्राप्ति तक सीमित हो गया है, तब से हर मुद्दे के पीछे राजनीति ही देखी जाने लगी है। आम लोग भी अब यह समझते हैं कि जहां चुनाव करीब होंगे, वहां के मुद्दों को राजनीतिक आंच पर पकाया जाएगा। आग में घी की तरह उन संवेदनशील मुद्दों को भी डाला जाएगा, जिनसे लोकहित को नुकसान पहुंच सकता है। दल या व्यक्ति विशेष के राजनीतिक फायदों के लिए उछाले जाने वाले मुद्दों को भी लोक, समाज और राष्ट्रहित के मुलम्मे में पेश किया जाएगा। लखीमपुर खीरी की त्रासद घटना के बाद भी ऐसी ही कोशिश हो रही है।
नजर चुनावों पर
उत्तर प्रदेश में कुछ महीने बाद विधानसभा चुनाव होने हैं। लखनऊ की सत्ता पर कब्जे के लिए तमाम राजनीतिक दल अपने-अपने समर्थक आधार के लिहाज से मुद्दे तलाशने-बनाने और उछालने में जुट गए हैं। ऐसे माहौल में लखीमपुर की घटना ने उन्हें मुफीद मौका दे दिया है। स्वाधीन भारत में मान्यता रही है कि दिल्ली के तख्त की राह उत्तर प्रदेश से ही गुजरती है। विपक्ष को लगता है कि अगर उसने बीजेपी को अवध, पूर्वांचल, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और रूहेलखंड की धरती पर मात दे दी तो दिल्ली के तख्त पर मजबूती से जमी सत्ता को उखाड़ फेंकना उनके लिए आसान होगा। यही वजह है कि लखीमपुर की आग पर राजनीतिक रोटी सेंकने की मियाद बढ़ने की आशंका है। हालांकि घटना के फौरन बाद जिस तरह योगी सरकार ने कार्रवाई की और जैसे कदम उठाए, उससे फिलहाल मामला शांत होने की ओर बढ़ता दिख रहा है। चाहे मारे गए किसानों के परिजनों को 45-45 लाख रुपये का मुआवजा देना हो, हाईकोर्ट के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश से मामले की जांच कराने का फैसला हो या फिर केंद्रीय गृहराज्य मंत्री अजय मिश्र के आरोपी बेटे पर केस दर्ज करना, योगी सरकार ने इन फैसलों के जरिए मामले को संभालने की कोशिश की।
फिर भी इस घटना ने कुछ गंभीर सवाल खड़े किए हैं। आखिर इस उग्र घटना को भांपने में उत्तर प्रदेश पुलिस और उसकी स्थानीय खुफिया व्यवस्था नाकाम क्यों रही? अतीत में किसान आंदोलन उत्पात कर चुका है। इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि प्रशासन को इन घटनाओं का अंदेशा नहीं था। कृषि कानून का समर्थक खेमा बार-बार यह आशंका जताता रहा है कि किसान आंदोलन की आड़ में असामाजिक तत्व अप्रिय घटनाओं को अंजाम दे सकते हैं। इसके मद्देनजर प्रशासन को जिस स्तर पर अलर्ट होना चाहिए था, कम से कम लखीमपुर खीरी में वैसा नहीं दिखा। अगर प्रशासन अलर्ट होता तो इस अप्रिय घटना को टाला जा सकता था।
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दूसरी बात यह कि चाहे मारे गए किसान हों, स्थानीय पत्रकार रमण कश्यप हों या हिंसा का शिकार हुए अन्य लोग, वे सब इसी देश के नागरिक थे। लोगों के बीच मतभिन्नताएं हो सकती हैं, किसी मसले पर उनके अलग-अलग विचार हो सकते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि विचारों की भिन्नता को लेकर किसी की हत्या कर दी जाए। राजनीति बार-बार दावे करती है कि उसका लक्ष्य व्यापक लोक हित का ध्यान रखना है। यही वजह है कि गोविंदाचार्य ने सभी राजनीतिक दलों से अपील की कि वे इस घटना का राजनीतिक फायदा उठाने के बजाय मामले को ठंडा करने की सोचें। लेकिन अपने-अपने फायदे की चाशनी देख रही राजनीति को गोविंदाचार्य के शब्द क्यों लुभाते?
संविधान को स्वीकृति दिए जाने के दिन संविधान सभा में डॉक्टर आंबेडकर ने साफ कहा था कि आजाद भारत में आंदोलन और धरने आदि से बचना होगा। उनके हिसाब से आजादी मिलने के साथ ही उनकी उपादेयता खत्म हो गई थी। राजनीति आंबेडकर को तो खूब याद करती है, लेकिन उनके इन शब्दों को याद करना नहीं चाहती। शायद राजनीति समझती है कि अगर वह ऐसी घटनाओं का फायदा नहीं उठाए तो अप्रासंगिक हो जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट ने किसान कानूनों के बारे में दायर याचिका की सुनवाई करते हुए ठीक ही कहा है कि जब भी लखीमपुर जैसी घटनाएं होती हैं, तो उनकी जिम्मेदारी लेने के लिए कोई आगे नहीं नहीं आता। लखीमपुर की आठ जानों के बदले में चाहे जितना भी मुआवजा मिले, सामाजिक संगठन चाहे जितनी मोटी रकम जुटा लें, पर बड़ी से बड़ी रकम भी किसी जिंदगी के बराबर नहीं हो सकती। जो इस घटना में मारे गए हैं, भविष्य में उनकी कमी की कीमत उनके परिवार चुकाएंगे। तब ना तो राजनीति नजर आएगी, ना ही प्रशासन।
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आज की लड़ाइयां छवियां बनाने और बिगाड़ने की भी लड़ाइयां हो गई हैं। सोशल मीडिया के इस दौर में सबका अपने हिस्से का सच है। इसी परिपाटी के मुताबिक किसान संगठन अपना सच दिखा रहे हैं और दूसरा पक्ष उन्हें अधूरा बता रहा है। इसी तरह आरोपी पक्ष अपना सच दिखा रहा है और किसान संगठन इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। लेकिन जिस तरह हिंसा हुई है, गिरे पड़े लोगों को बेरहमी से पीटा जा रहा है, उसे राजनीति और आंदोलन तो कहा ही नहीं जा सकता। यह निर्मम हत्याओं का मामला है और इस मामले में कानून को अपना काम करना चाहिए। योगी सरकार ने ठीक ही हाईकोर्ट के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश से पूरे मामले की जांच कराने का फैसला किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जांच में पूरे तथ्य सामने आएंगे और दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होगी।
महज कानून व्यवस्था नहीं
आखिर में एक और बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह पूरा घटनाक्रम सिर्फ कानून व्यवस्था का मामला न समझ लिया जाए। इसके गहरे निहितार्थों, लक्ष्यों और दूरगामी प्रभावों का भी खयाल किया जाना चाहिए। तभी भविष्य में ऐसी घटनाओं को होने से रोका जा सकेगा। किसान संगठनों को भी सावधान रहना होगा कि उनके समर्थक हिंसक ना हों। हिंसा अंतत: हर पक्ष के लिए नुकसानदायक होती है। लेकिन लाख टके का सवाल है कि बक्कल उतारने की भाषा का इस्तेमाल करने वाला किसान आंदोलन का नेतृत्व इस तथ्य को समझने की कोशिश करेगा?