लीना मेहेंदले
हमारे शैक्षणिक पाठ्यक्रमों और समाज में उपेक्षित रखी गई कई महत्वपूर्ण बातों में एक है हमारा राष्ट्रीय सौर पंचांग यानी कैलेंडर। हमें पता होना चाहिए कि भारत का राष्ट्रीय पंचांग एक वैज्ञानिक पंचांग है। विद्यालयों में यह पढ़ाया जाना चाहिए।
प्रतिदिन सुबह में सूर्योदय और संध्या में सूर्यास्त होता है। सूर्य की यह आभासी गति है जो पूर्वसे पश्चिम होती दिखती है, जोकि प्रत्यक्षत: सूर्य के नही वरन् पृथ्वी के भ्रमण के कारण से दिखती है। सूर्य की इस गति के कारण सभी सजीव प्राणियों के दैनंदिन जीवन में परिवर्तन होते हैं। मुख्यतया नींद की क्रिया सूर्य से ही संचलित है। इसलिए स्पष्ट है कि अनादिकालसे ही मनुष्यकी कालगणना में सूर्य का विचार महत्वपूर्ण रहा है।
पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है, इसलिए दिन और रात बनते हैं। घूमती हुई पृथ्वी का जो भाग सूर्यके सम्मुख आता है, वहाँ दिन होता है और जो भाग सूरज से छिपा रहता है, वहाँ रात होती है। इसके साथ ही पृथ्वी एक दीर्घवृत्ताकार मार्ग पर सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करती है। ऐसा सूर्य और पृथ्वीके बीच गुरुत्वाकर्षणके कारण होता है। इस दीर्घवृत्तका एक चक्कर पूरा करनेके लिए पृथ्वीको लगभग 365 दिन लगते हैं।
इतने लम्बे अन्तरालकी गणना मनुष्य ने कैसे की? सरल उत्तर है – रात के आकाश को देखकर। हम भी यदि आकाश का निरीक्षण करें तो देख सकते हैं कि प्रतिसंध्या पूर्व से उगने वाले नक्षत्र अलग-अलग होते हैं और उनमें से अधिकांश की स्थिति एक-दूसरे की तुलना में नहीं बदलती है। वास्तव में सूर्य, चंद्रमा और मंगल, बुध गुरु, शुक्र, शनि, तथा ध्रुव तारे को छोड दें तो अन्य किसी भी तारा-समूहों की आपसी स्थिति नहीं बदलती है। उनके छोटे-छोटे समूह आपस में कुछ विशिष्ट आकार बनाते हैं जिनके आधार पर उस समूह को पहचाना जा सकता है। हमारे पूर्वजोंने आकाश में पूर्व की ओर से एक के बाद एक उदित होने वाले ऐसे 27 समूहों को पहचान कर प्रत्येक का नाम निश्चित किया, जिन्हें नक्षत्र कहते हैं।
मंगल, बुध, गुरु, शुक्र व शनि को नक्षत्रों से अलग ग्रहों के रूपमें पहचान कर उनका नामकरण किया गया और उनके भ्रमणके विषय में जानकारी एकत्र की गई। गणित और खगोल विज्ञान में पारंगत हमारे पूर्वजों ने हजारों-लाखों वर्ष पहले अपने अध्ययन में पाया कि सूर्य, चंद्रमा, तथा मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि ये सातों अलग-अलग गति से इन नक्षत्रों के बीच घूमते हैं।
इन गतियों को समझने हेतु सापेक्षता की दृष्टि से इन नक्षत्रों में पृथ्वी घूमती है, कहने की अपेक्षा कहेंगे कि सूर्य घूमता है। तो सूर्य को एक नक्षत्र से आरंभ कर घूमते हुए वापस उसी नक्षत्र में लौटने के लिए लगभग 365 दिन लगते हैं। इस समय अन्तराल का नाम पड़ा संवत्सर। सूर्य किस नक्षत्र में है यह जानने के लिये सूर्य से ठीक विपरीत दिशा के नक्षत्र का आधार लिया जाता है।
चंद्रमा भी एक नक्षत्र से आरंभ कर लगभग एक दिन में एक नक्षत्र पार करता हुआ 27 नक्षत्रों का एक चक्कर पूरा करता है। लेकिन इस बीच सूर्य की परिक्रमा करती पृथ्वी आगे निकल जाती है और चंद्रमा भी उसके साथ खींचा चला जाता है। इस कारण चंद्रमा को अपना एक चक्कर पूरा करके उसी नक्षत्र में लौटने के लिये लगभग 29.5 दिन लगते हैं। इन दिनों में चंद्रमा की कला का आकार भी बढ़ता-घटता है। अत: उसे देखकर ही जनसामान्य को तिथि ज्ञात हो जाती है। इन तिथियों को प्रतिपदा, द्वितिया इत्यादि पूर्णिमा अथवा अमावास्या तक और पूरे पखवाड़े को शुक्ल एवं कृष्ण पक्ष का नाम दिया गया है।
अब ध्रुव तारे की बात ही अलग है। वह आकाश के उत्तरी भाग में एक ही स्थान पर अटल भाव से रहता है। सच पूछो तो पूरा सौरमंडल ही ध्रुव की परिक्रमा करता है। अपनी धुरी पर घूमती पृथ्वी का अक्ष इसकी दिशा में ही होता है। अत: आकाश के अन्य नक्षत्र घूमते हुए दीखते हैं परन्तु यह स्थिर दीखता है। यही नहीं, पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा का जो मार्ग है, उसके साथ पृथ्वी का अक्ष समकोण नहीं बनाता, वरन् ध्रुव की ओर झुका होने के कारण 23 अंश का कोण बनाता है। इसलिए सूर्य की किरणें पृथ्वी पर सर्वकाल लम्बरूप से नहीं पड़तीं वरन् विभिन्न भूभागों में कम या अधिक पड़ती हैं। इसीलिए वर्ष में सारी रातें और दिन समान नहीं होते। वर्ष के केवल दो दिन ऐसे हैं, जब दुनिया भर में 12 घंटे का दिन और 12 घंटे की रात होते हैं। इन्हें वसंत संपात और शरद संपात कहा जाता है। अन्य दिनों में दिनमान और रात्रिमान के परिमाण अलग होते हैं। ये सारी गणनाएँ भारत में हमारे पूर्वजों ने हजारों-लाखों वर्ष पूर्व की।
वसंत संपात के बाद वसंत, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु आते हैं और शरद संपात के बाद शरद, हेमंत और शिशिर ऋतु आते हैं। इस प्रकार, भारत में छ: ऋतुओं का प्राकृतिक चक्र है। ऋतुकाल के अनुरूप वातावरण में शीतोष्ण इत्यादि विभेद होते हैं, इसी से कभी धान्य के बीज अंकुरित होते हैं, कभी फूल खिलते हैं, फल बनते हैं, धान पकता है इत्यादि। इन बातोंका निरीक्षण कर छह ऋतुओं के बारह महिनों के नाम निश्चित हुए। वसंत ऋतुके दो मास मधु और माधव कहलाये अर्थात् फूलों में मधुसंचय होकर आगे फल धारणाका आरंभ कराने वाले मास।
ग्रीष्म ऋतु के महिने शुक्र व शुचि नामक हैं। तब सूर्य की ऊष्मा से जमीन तपकर ऊर्जा धारण करती है जो आगे बीज अंकुरणके लिये आवश्यक होती है। इसीलिये भारतीय कृषि परंपरा में ग्रीष्म में नई फसल नहीं बोई जाती, वरन् धरती को अपनी ऊर्वरा शक्ति पाने के लिये, सूर्य में तपने के लिये छोड़ दिया जाता है। शुचि मास में मानसूनपूर्व की वर्षा से धरती शुद्ध होने लगती है। अतएव ग्रीष्म के महीने शुक्र व शुचि कहलाये।
वर्षा ऋतु के दो महीने नभ व नभस्य हैं। यहाँ नभस्य शब्दका अर्थ है नभ मास से बना या नभ मास के फल से अगला फल देनेवाला। शरद ऋतु के इषमास व उर्जमास होते हैं। इष का अर्थ रस है, अर्थात शरद ऋतु के इष मास में खेत के अनाज और फलों में रस भरना आरंभ होता है जबकी ऊर्ज मास में वे पककर तैयार होते हैं। हेमंत ऋतु के सह व सहस्य मास होते हैं तो शिशिर ऋतु के तप व तपस्य हैं। सह व सहस्य के महीनों में शीत और सर्दी सबसे ज्यादा प्रभावी होती है। लेकिन तप व तपस्या के महीनों में पृथ्वी पर गर्मी बढऩे लगती है और दिन बड़ा होना प्रारंभ हो जाता है। इस तरह, वेदों में मधु-माधव, शुक्र-शुचि, नभ-नभस्य, इष-उर्ज, सह-सहस्य और तप-तपस्य जैसे नाम सूर्य से या ऋतुचक्र के संबंध से बताये गए थे। ये अवलोकन वैदिक काल में भारतीय ऋषियों ने किये, इसी कारण ये सभी नाम भारतीय मूल के ही हैं।
अब आते हैं चांद्र मास के नामों की ओर। आकाश के नक्षत्रों को अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रेवती आदि नामों से नामित किया गया है और उन सभी का पति या स्वामी चंद्रमा को माना जाता है। एक यजुर्वेदिक मंत्र कहता है कि सूर्य के तेज से ही चंद्रमा का तेज उत्पन्न हुआ। फिर भी चंद्रमा के प्रकाश का एक अलग महत्व है। इसका कारण कई ग्रंथों में बताया गया है कि जिस प्रकार अंकुरित होनेके लिये सौर ऊर्जा की आवश्यकता है, उसी प्रकार रस और पोषण के लिए चंद्रमा का प्रकाश भी आवश्यक है।
आइए, अब 12 पंचांग मासों को नाम देने की विधि देखें। यह बात महत्वपूर्ण है कि ये नाम ऋतु आधारित नामों से अलग हैं। पूर्णिमा के दिन चंद्रमा सूर्य के ठीक सामने होता है। उस दिन चंद्रमा जिस नक्षत्र में होगा उससे ही उस महीने का नाम पड़ता है। आकाश में नक्षत्रों के विस्तार छोटे-बड़े हैं। अत: 27 नक्षत्रों में केवल 12 नक्षत्र चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, पूर्वाषाढा, श्रवण, पूर्वाभाद्रपदा, अश्विनि, कृत्तिका, मृग, पुष्य, मघा और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रों में चंद्रमा होने के ही दिन पूर्णिमा होती है अत: मासोंके नाम इन्हीं के नाम से नियत हैं। इसका अर्थ भी है कि पूर्णिमा का चंद्रमा कभी भी भरणी, रोहिणी, आद्र्रा, पुनर्वसु, आश्लेषा, पूर्र्वाफाल्गुनी, हस्त, स्वाती, अनुराधा, मूल, उत्तराषाढा, धनिष्ठा, शततारका, उत्तराभाद्रपदा और रेवती नक्षत्रों में नहीं आता है। यह महत्वपूर्ण है कि यज्ञोंके कई अनुष्ठान पूर्णिमा, अमावास्या, और अष्टमी के दिन किये जाते हैं।
अब देखते हैं कि सप्ताह के सात दिन कैसे नियत किये जाते हैं। पृथ्वी के सापेक्ष गति में शनि की गति सबसे धीमी है, फिर गुरु, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध की जबकि चंद्रमा की गति इन सभी से तीव्र है। अब अहोरात्र के 24 घंटों को होरा कहते हैं, जोकि मध्य के दो अक्षर हैं। सूर्योदय से पहला होरा यानी घंटा सूर्य का बताकर उस दिन को रविवार नामित किया गया। अगले 23 होरा क्रमश: शुक्र, बुध, चंद्रमा, शनि, गुरु, मंगल, सूर्य इस प्रकार चक्राकार गिनने पर अगले दिन सूर्योदय के समय चंद्रमाका होरा है, अत: यह सोमवार हुआ। उससे अगले दिन के सूर्योदय पर मंगल का होरा और फिर क्रमश: बुध, गुरु, शुक्र और शनि के होरा पड़ते हैं। यही सप्ताह के सात दिनों के नाम है। यह पद्धति इतनी वैज्ञानिक है कि आज दुनियाभर में सप्ताह के सात दिनों का यही क्रम मान्य है जो हमें सदा ग्रहों की कम-अधिक गति का स्मरण दिलाता रहता है।
इस प्रकार भारतीयों ने सूर्य की गति का महत्व पहचान कर ऋतु आधारित संवत्सर मासों के नाम नियत किये और साथ ही नक्षत्रमार्ग पर चंद्रमा की गति और इसकी कलाओं को देखते हुए चांद्र पंचांग भी बनाया। सामान्य व्यक्तिके लिये चंद्रमा से कालगणना करना अधिक सरल था। अमावास्या के दिन आकाश में चंद्रमा और सूर्य एक ही अंश पर उगते हैं। अगले दिन, चंद्रमा 12 अंश या 48 मिनट पीछे रह जाता है और वहां से दोनों के बीच अंतर बढ़ता जाता है। साथ ही चंद्रमा का आकार बढ़ता है। तो सामान्यजन तिथियों को सरलता से केवल आँखों से देखकर जान लेता है। चांद्र पंचांग की लोकप्रियता इसी कारण से है। बाद में जब भारत में फलित ज्योतिष शास्त्र का उदय हुआ तबसे चांद्र पंचांग का महत्व और बढ़ गया।
सारांश यह है कि मानवी सभ्यता के प्रारंभिक काल से ही भारत में चांद्र मास, संवत्सर मास, वार इत्यादि की गणना, ऋतुचक्र का ज्ञान, उनके अनुसार कृषि व्यवस्था इत्यादि की गणना विकसित हुई जो 18वीं सदी तक चली। फिर अंग्रेजों के शासनकाल में उनका कैलेंडर लागू हुआ। ब्रिटिशों के जाने के बाद, भारतीय संसदीय समिति द्वारा काफी परिचर्चा आदि प्रक्रिया के पश्चात राष्ट्रीय सौर दिनदर्शिका की घोषणा हुई जिसे एक चैत्र 1879 अर्थात 22 मार्च 1957 से लागू किया गया।
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