वह दिन अब दूर नहीं जब अंक गणना लेखन में एक इकाई ,दो इकाई, को लिखने पढ़ने समझने वाले चुनिंदा व्यक्ति रहेंगे। दो एकम दो ,दो दूनी चार नहीं। टू वन जा टू टू टू जा फोर” हो गया है कितनी आसानी से हमने यह कर दिया लेकिन यूनान रोम यूरोप को हजारों वर्ष लग गए इसे करने में । गणित के इतिहास में भारतीय दाशमिक स्थान मान अंकगणना पद्धति आज भी सबसे विस्मयकारी प्रमुख गणितीय उपलब्धि है। प्रसिद्ध American गणितज्ञ प्रोफेसर जीबी हॉलिस्टिड कहता था ” गणित के किसी भी अन्य अविष्कार ने मानव की बुद्धि को इतना अधिक बलशाली नहीं बनाया जितना हिंदू जाति की 0 वअंक पद्धति की खोज ने बनाया”
फ्रांस का महान गणितज्ञ लाप्लास कहता था “यह हिंदुस्तान ही है जिसने हमें सभी संख्याओं को 10 चिन्ह के जरिए प्रकट करने का युक्ति पूर्ण तरीका बताया जिसमें हर एक चिन्ह का एक अपना मूल्य है। यह गहरा गणितीय ज्ञान अब सीधा-साधा जान पड़ता है, लेकिन जब हम यह याद रखेंगे कि यह गणित हमारे दो सबसे बड़े गणितज्ञ अपोलोनियस, आर्कमिडीज की प्रतिभा से भी बच निकला था अर्थात वह भी गणना करने की कोई पद्धति खोज नहीं पाए।
गणना पद्धति का सबसे पहले आविष्कार भारत में ही हुआ। संख्याओं का यह ज्ञान अरब बगदाद पहुंचा वहां भारतीय अंकों को हिंदसा कहा जाता था और अरब वालों से यह विद्या यूनान रोम यूरोप में पहुंच गई। अर्थात जब यूरोप अमेरिका अज्ञान के अंधकार में डूबे हुए थे तब भारत में गणित विज्ञान के नित नए अध्याय लिखे जा रहे थे। आपको आश्चर्य होगा शुन्य व भारतीय अंक पद्धति का कोई ज्ञात आविष्कारक गणितज्ञ नहीं है। आर्यभट्ट व भास्कराचार्य जैसे गणितज्ञ ने भी इनका इस्तेमाल प्रयोग किया लेकिन वह इन के अविष्कारक नहीं थे…. वस्तुत भारतीय अंक पद्धति व 0 इंसानी मस्तिष्क कि नहीं ईश्वरीय वाणी वेद से निकला हुआ गणितीय बीज रूप ज्ञान है जिसका उपदेशक ईश्वर ही है… जिसे हमारे ऋषि-मुनियों मूर्धन्य विद्वानों ने शाखा रूप किया। इस विषय पर फिर कभी लिखा जाएगा फ़िलहाल हिंदी अंक पद्धति की उपेक्षा दुर्दशा पर जो हालात है आप सभी के सामने है।
अरब मिश्र यूनान वालों ने वालों ने हमारे अंको को यथावत इस्तेमाल किया। अंग्रेजों के भारत आगमन के साथ इन भारत से ही हजारों वर्ष पूर्व बाहर गई भारतीय अंक पद्धति के अंको का संशोधित रूप भारत पहुंचा यह गौरव का विषय है अंग्रेजी अंकों को आज भी भारतीय अंतरराष्ट्रीय अंक कहा जाता है सारी दुनिया में अब इनका उपयोग होता….
यूरोप के साधारण जनता का गणितज्ञ भी जब गणना करना हिसाब किताब लगाना गणितीय संक्रिया करना नहीं जानते थे, तब यहां बच्चा-बच्चा बड़ी-बड़ी गणना कर लेता था। यह बात हम नहीं कहते गणित का सबसे बड़ा विद्वान डाइजेस्ट लिखता है अपने “नंबर्स” नामक ग्रंथ में।
भारतीय अंक पद्धति के संबंध में विदेशी विद्वानों का उद्धरण इसलिए दिया गया कुछ लोगों को अपने भारतीय विद्वानों की बात पर विश्वास नहीं होता। उनके लिए जो श्रेष्ठ प्रमाणित है वह पश्चिम से ही होकर आता है।
अंततोगत्वा यही निष्कर्ष निकलता है दुनिया की गणित विज्ञान के मामले में अंधकार से प्रकाश की यात्रा चल रही है लेकिन भारत के मामले में यह उल्टा है भारत की आज भी प्रकाश से अंधकार की ओर यात्रा चल रही है। बुजुर्गों का कुछ वर्ग ही भारतीय अंक पद्धति में हिसाब किताब गणना मोबाइल नंबर आदि व्यवहार में लाते हैं।
✍🏻आर्य सागर खारी
गणित पढ़िए मैथेमेटिक्स छोड़िये
लेखक:- डॉ. चन्द्रकान्त राजू
(लेखक प्रसिद्ध गणितज्ञ हैं)
चक्रव्यूह की कहानी मुझे बचपन से काफी पसंद रही है। यह कहानी हमें यह बताती है कि आधा ज्ञान कितना खतरनाक होता है। अभिमन्यू को चक्रव्यूह में प्रवेश करने का तो ज्ञान था, परंतु निकलने का ज्ञान नहीं था। इस अर्धज्ञान के कारण वह मारा गया। यह कहानी आज के समय में बहुत प्रासंगिक है। आज हमारे समाज में ज्ञान का बड़ा अभाव है। प्राचीन भारत में ज्ञान का बहुत सम्मान था। महाभारत की लड़ाई में श्रीकृष्ण ने कोई हथियार नहीं उठाया, लेकिन पांडवों की जीत उनके कारण ही हुई। चाणक्य के कारण चंद्रगुप्त की जीत हुई। लेकिन आज हमारे समाज में ज्ञान का वह सम्मान नहीं है। आज केवल पैसों का सम्मान है। मेरे विचार में पिछले कुछ सदियों में भारत का जो पतन हुआ, वह ज्ञान की उपेक्षा के कारण हुआ। इसलिए आपने जो मेरा सम्मान किया है, इसे मैं भारतीय ज्ञान परंपरा का सम्मान समझता हूँ। आज पहली मुझे लगा कि ज्ञान का सम्मान करने की प्राचीन भारतीय परंपरा फिर से लौट सकती है। इससे भारत का सूरज फिर से एक बार चमकेगा।
ज्ञान शिक्षा से मिलना चाहिए, लेकिन आज की शिक्षा हमें ज्ञान नहीं देती। क्या हमने कभी विचार किया कि ऐसा क्यों है? इसका कारण यह है कि यह चर्च की शिक्षा है। यह केवल रट्टा मार कर हमें परीक्षा पास करना सिखाती है। हमारी शिक्षा प्रणाली का यह विद्रुपन ब्रिटिश शासनकाल में हुआ। ब्रिटिश की शिक्षा प्रणाली उस समय शत प्रतिशत चर्च की शिक्षा प्रणाली थी। उन्नीसवीं सदी में जो यूनिवर्सिटी आदि आए, वे भी पूरी तरह चर्च के थे। ऑक्सफोर्ड वगैरा तो चर्च के अधीन थे ही, 1870 के पहले ब्रिटिन में सेकुलर शिक्षा नामक कुछ भी नहीं था। सारी शिक्षा चर्च के हाथों में थी और उसे हमने पूरी तरह अपना लिया। इसके कारण हमारी शिक्षा का ध्येय ज्ञान प्राप्त करना नहीं रहा, केवल डिग्री प्राप्त करना रह गया जिससे हमें एक नौकरी मिले और डिग्री पाने के लिए हमें रट्टा मारना पड़ता है। चर्च की शिक्षा अज्ञान पर आधारित है। इसलिए चर्च शिक्षा के माध्यम से अज्ञान फैलाते हैं। आज देश मे यह हो चुका है। इसलिए आज पूरे देश का मानस यह बन चुका है कि डिग्री से ही हमें नौकरी मिलती है और इसलिए डिग्री के अलावा और किसी बात की हमें परवाह नहीं करनी चाहिए। स्वाधीनता के सात दशक व्यतीत हो जाने के बाद भी हमने शिक्षा की नीति पर कुछ भी नहीं सोचा। इसलिए आज हमारे ज्ञान का एकमात्र आधार यही रह गया है कि पश्चिम मानता है तो सही है, अन्यथा नहीं।
यदि हम मैथेमेटिक्स की बात करें तो इसमें आने वाली कठिनाई केवल सामान्य लोगों की नहीं है, इसके अध्यापकों के लिए भी यह उतनी ही कठिन है। आज से 42 वर्ष पहले मैंने आईआईटी में पीएचडी के लिए प्रवेश लिया। मैंने एक प्रोफेसर से एक आसान सा प्रश्न पूछा। वे उसका उत्तर नहीं दे पाए। उन्होंने 1-2 दिन बाद मुझे अकेले में बुला कर कहा कि ठीक है मुझे मैथेमेटिक्स नहीं आता, तो क्या मुझे आजीविका का हक नहीं है। उस समय मुझे लगा कि आजीविका कमाने के और भी तो रास्ते हैं, इसके लिए मैथेमेटिक्स ही क्यों पढ़ाना। परंतु आज मैं सोचता हूँ कि मैथेमेटिक्स पढ़ाने की यह कठिनाई या अज्ञान व्यक्तिगत नहीं है। इसमें किसी व्यक्ति या संस्था का दोष नहीं है, इसमें कुछ प्रणालीगत दोष हैं।
मैं यहाँ जानबूझ कर मैथेमेटिक्स शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ, इसके हिन्दी अनुवाद गणित शब्द का प्रयोग नहीं कर रहा। इसका कारण है कि मैथेमेटिक्स और गणित में फर्क है. दोनों एक चीज नहीं हैं। मैथेमेटिक्स का हिन्दी अनुवाद गणित करना गलत है, यह बात मैं न केवल अनेक कार्यक्रमों में बोल कर बल्कि अखबारों में लिख कर भी बता चुका हूँ। यहाँ फिर से बता रहा हूँ। मैथेमेटिक्स में प्रत्यक्ष प्रमाण वर्जित है, गणित में प्रत्यक्ष प्रमाण स्वीकृत है। इसके कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। जैसे एक और एक दो ले लीजिए। बच्चे को यह कैसे समझाएंगे? एक सेब और एक सेब मिल कर दो सेब हो गए। परंतु यह प्रत्यक्ष प्रमाण है क्योंकि सेब दिखता है और मैथेमेटिक्स में यह प्रमाण वर्जित है। तो मैथेमेटिक्स में इसे बट्र्रेंड रसेल ने साबित किया और इसे साबित करने के लिए उन्हें 378 पृष्ठ का मैथेमेटिक्स करना पड़ा। और यह तो केवल गुणांक की बात है, जो वास्तविक संख्या कहते हैं, उसमें एक और एक दो को प्राथमिक सिद्धांतों से साबित करने लिए हजार पन्ने लग जाएंगे। एक और एक दो को इतना कठिन काम क्यों बना दिया गया? इसका एक और उदाहरण देता हूँ – ज्यामिति का बिंदु। इसके लिए हमारे हिन्दी में कोई शब्द नहीं है। हमारी एनसीईआरटी की छठी कक्षा की पुस्तक कहती है कि बिंदु अदृश्य होना चाहिए। दिखता है तो प्रत्यक्ष है, इसलिए यह अदृश्य है। यह किसी को समझ में नहीं आता। आगे चल कर एनसीईआरटी की पुस्तक कहती है कि हम बिंदु की परिभाषा तक नहीं कर सकते। इसे बच्चे कैसे समझेंगे? दिखता भी नहीं, परिभाषा भी नहीं कर सकते। केवल मान लो बस। इन्हीं कारणों से मैथेमेटिक्स में इतनी कठिनाई आती है। प्रत्यक्ष को नकारने का कोई व्यावहारिक लाभ नहीं है। आपको अगर विज्ञान में काम करना है तो विज्ञान तो प्रत्यक्ष किए जाने वाले प्रयोगों पर आधारित है। मैथेमेटिक्स सरल से सरल चीज को कठिन बना देता है और उससे कोई भी व्यावहारिक लाभ नहीं होता। इसे हम केवल पश्चिम की नकल के कारण पढ़ते रहते हैं।
हमारी पाठ्यपुस्तकों में आज भी चर्च के मिथक घुसे हुए हैं। नौवीं कक्षा की एनसीईआरटी की मैथेमेटिक्स की पुस्तक पाँचवें अध्याय जो कि यूक्लिड की ज्यामिति के बारे में है, में बताती है कि मैथेमेटिक्स बेहतर चीज है और भारत में जो गणित हुआ, वह कमतर है। यह आज भी लिखा हुआ है। वहाँ बताया जाता है कि यूनानियों ने उत्कृष्ट मैथेमेटिक्स किया जिसकी हमें नकल करनी चाहिए। वहाँ यूक्लिड के बारे में पढ़ाया जाता है परंतु यूक्लिड पूरी तरह एक अनैतिहासिक व्यक्तित्व है। उसमें कोई भी सच्चाई नहीं है। मैं आठ वर्ष पहले मलेशिया के प्रधानमंत्री के सामने यूक्लिड की ऐतिहासिकता को साबित करने वाले को दो लाख का इनाम देने की घोषणा कर चुका हूँ। यह घोषणा आज भी यूट्यूब पर उपलब्ध है, परंतु कोई सामने नहीं आया। इसके बाद भी एनसीईआरटी इसे बदलने के लिए तैयार नहीं है। यूक्लिड के बारे में एकमात्र सत्य यह है कि यह सात सौ वर्षों तक चर्च की पाठ्यपुस्तक थी। यूक्लिड की पुस्तक सात सौ वर्षों तक चर्च की पुस्तक थी तो उसमें उसका कुछ फायदा रहा ही होगा। इसे समझाने के लिए मैंने पुस्तक लिखी है यूक्लिड एंड जीसस।
यूक्लिड की ज्यामिति से भारतीय ज्यामिति बेहतर है इसे साबित करने के लिए मैंने रज्जू गणित पढ़ाना प्रारंभ किया है। रज्जू गणित शुल्ब सूत्रों पर आधारित है। हम शुल्ब सूत्रों की बात करते हैं, परंतु हम यह विचार नहीं करते कि यह पाठ्यक्रम में क्यों नहीं आता? यदि यह खराब है तो छोड़ दें, परंतु यदि अच्छी चीज है तो उसे हमें अपनाना चाहिए। यह यूक्लिड की ज्यामिति से कैसे बेहतर है, यह मैं बताता हूँ। इसमें प्रत्यक्ष प्रमाण स्वीकृत है। इसलिए इसमें कुछ भी मानने की आवश्यकता नहीं है। हर चीज को बच्चा देख और समझ सकता है। उदाहरण के लिए जिसे हम पाइथागोरस प्रमेय कहते हैं, उसका भारतीय प्रमाण काफी सरल है, परंतु उसे स्वीकार नहीं किया जाता क्योंकि वह प्रत्यक्ष है। रज्जू गणित में हम सुतली से ज्यामिति पढ़ाते हैं। सुतली से एक वक्र रेखा को मापा जा सकता है जो कि आज के ज्योमेट्री बाक्स के किसी भी उपकरण से संभव नहीं है। कोण के बारे में बताया जाता है कि यह दो सरल रेखा की बात है, हमारे यहाँ कोण नहीं, चाप थे जो कि वक्र रेखा हैं। उन्होंने चाप को छोड़ दिया और कोणों की बात की। इसी प्रकार त्रिकोणमिति भारत में प्रयोग हुई। इसमें ज्या का प्रयोग होता था, जिसे गलत अनुवाद के कारण साइन कहा गया। हम आज भी उस गलत अनुवाद को ही पढ़ रहे हैं। जमीन पर जो भी ज्यामिति का काम करना हो, वह आज की ज्यामिति से नहीं किया जा सकता, उसके लिए रज्जू गणित ही चाहिए। अक्षांश, देशांतर निकालना हो, टेढ़े-मेढ़े मेड़ वाले खेत को नापना हो, पृथिवी की त्रिज्या निकालना हो, यह सारे काम रज्जू गणित से किए जा सकते हैं। इस प्रकार अप्रत्यक्ष यानी कल्पना मात्र पर आधारित मैथेमेटिक्स में इतनी कठिनाई आती है और यह गणित को स्वीकार करने से दूर हो सकती है।
(भारतीय धरोहर वार्षिक सम्मेलन, 2018 में दिए गए वक्तव्य से)
✍🏻भारतीय धरोहर