चंद्रशेखर धर्माधिकारी
इहलोकवाद के अर्थ में ‘सेक्युलरिज्म’ शब्द का आद्य प्रवर्तक और समाज में उसके प्रयोग का प्रतिवाद करने वाला प्रथम प्रवक्ता जॉर्ज जेकब होलिओक था। सन् 1950 में उसने चाल्र्स ब्रेडलों के साथ के अपने मतभेदों को स्पष्ट किया। उसने कहा, ‘धर्म और सेक्युलरिज्म’ परस्पर व्यावर्तक है। वे एक-दूसरे के क्षेत्र में प्रवेश न करें। धर्म में निहित नैतिकता हमें मान्य है, लेकिन उस नैतिकता का आधार धर्म नहीं होगा। इसके मायने हैं कि ‘सेक्युलरिज्म’ धर्मनिरपेक्ष हो तो भी धर्मविरोधी नहीं। किसी भी कोश में ‘सेक्युलरिज्म’ का अर्थ नास्तिकता नहीं दिया हैभारत के संविधान में गांधी विचार और समाजवादी संकल्पना का कितना अंतर्भाव है, इसका विचार आज तक प्रबुद्ध विचारकों ने कभी किया ही नहीं। मूलत: जो भारत का संविधान 1949 में पारित हुआ, उसकी उद्देशिका में ‘सोशलिस्ट’ तथा ‘सेक्युलर’ शब्द नहीं थे यानी कि इन संकल्पनाओं का समावेश उसमें नहीं था। इतना ही नहीं, नागरिक के लिए जो मूलभूत अधिकार और हक धारा-19 में दिए गए थे, उनमें धारा-19 (च) में संपत्ति के अर्जन, धारण और व्ययन का मूलभूत अधिकार सभी भारतीय नागरिकों को प्रदान किया गया था, जो समाजवादी संकल्पना के विरोधी था। इसके अलावा स्वतंत्रता आंदोलन में जो आकांक्षाएं प्रस्तावित हुई थीं, उन आकांक्षाओं के लिए भी यह विरोधी और विसंगत था। उसके पश्चात संविधान के 42वें संशोधन द्वारा संविधान की उद्देशिका में ‘समाजवादी’ और ‘सेक्लुयर’ दो शब्द दाखिल किए गए, लेकिन इन शब्दों की व्याप्ति का अर्थ क्या होगा, इसकी कोई व्याख्या यहां नहीं की गई। उसके बाद संविधान के 44वें संशोधन द्वारा नागरिकों के संपत्ति से संबंधित अधिकारों से जुड़ी धारा-19(1)(च) को निरस्त कर दिया गया। सेक्युलर शब्द की बुनियादी व्याख्या थी कि देश के सभी धर्मों को समान सम्मान दिया जाएगा। एक अर्थ में यह इस शब्द का स्पष्टीकरण था। उस समय सत्ता में जनता पार्टी थी और उसी सरकार ने यह प्रस्ताव संसद में रखा था। यह प्रस्ताव लोकसभा में तो पारित हो गया, लेकिन उस समय राज्यसभा में कांग्रेस पार्टी बहुमत में थी। लिहाजा कांग्रेस का समर्थन इस विधेयक को न मिल पाने से यह प्रस्ताव राज्यसभा में यह पास नहीं हो सका। इसलिए आज भी उद्देशिका में यह शब्द है, लेकिन उसकी कोई व्याख्या नहीं है। परिणामस्वरूप जिस किसी की जिस तरह की राय थी, उसने उसी के मुताबिक इन संकल्पनाओं का अर्थ लगाना शुरू कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर कुछ टिप्पणियां भी की हैं। अगर समाजवाद की इस संकल्पना का अर्थ राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक आदि सभी प्रकार के शोषण से मुक्ति नहीं है, तो फिर क्या है? जहां तक समाजवाद का सवाल है, अपना देश कभी समाजवादी नहीं रहा। समाजवादी व्यवस्था की अनिवार्य शर्त है कि उत्पादन के साधनों पर आम नागरिकों का नियंत्रण एवं स्वामित्व हो। पूंजीवादी व्यवस्था में यह संभव नहीं है। इसमें उत्पादन एवं वितरण पर मुख्य रूप से सरकार का नियंत्रण होता है। सन् 1983 में डीएस नकारा बनाम संघ में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘समाजवादी’ जोडऩे का अर्थ है संविधान में समाजवाद के दर्शन को अंगीभूत करना, जिसका लक्ष्य है आमदनी, प्रतिष्ठा एवं जीवन स्तर में असमानता खत्म करना। एक्सेल वियर बनाम संघ (1978) में न्यायालय ने कहा कि इससे अदालतों को राष्ट्रीयकरण तथा उद्योगों के सरकारी स्वामित्व की ओर झुकने में बल मिलेगा। नेशनल टेक्सटाइल्स मामले (1983) में भी अदालत ने इसे दोहराया। शायद इसी तरह के कई तर्क रहे होंगे जिन्हें आधार बनाकर उस समय कांग्रेस पार्टी ने राज्यसभा में इस विधेयक पर इसकी सहमति नहीं जताई। इसलिए भारतीय संविधान के तत्त्वों का अविभाज्य हिस्सा नहीं होता है, तो फिर उस संकल्पना का दूसरा क्या अर्थ हो सकता है। यही यक्ष प्रश्न है। महात्मा गांधी ने शोषण रहित समाज की संकल्पना की थी। दस सितंबर, 1931 के यंग इंडिया में उन्होंने यह स्पष्ट किया था कि ‘मैं ऐसे संविधान की रचना करवाने का प्रयत्न करूंगा, जो भारत को हर तरह की गुलामी और परावलंबन से मुक्त करे।’ उसके बाद उन्होंने ‘हरिजन’ के एक जून, 1947 के अंक में लिखा था-‘समाजवाद का आधार आर्थिक समानता है। अन्यायपूर्ण असमानताओं की हालत में, जहां समाज के चंद लोग मालामाल हैं और सामान्य प्रजा को भरपेट खाना भी नसीब नहीं होता, उसे ‘राम राज्य’ कैसे कह सकते हैं?’ इसीलिए गांधी जी ने विश्वस्त भावना पर जोर दिया और अब तो अमरीका और भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि सरकार नैसर्गिक संपत्ति के विश्वस्त है, मालिक नहीं। भारत के जिन लोगों ने संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित किया है, वे इसके लाभाधिकारी या लाभार्थी हैं। सभी प्रकार के शोषण और गुलामी से मुक्ति, यही तो समाजवाद की बुनियाद है। इसलिए सभी प्रकार के शोषण और गुलामी से मुक्ति, फिर चाहे वह राजनीतिक, सामाजिक या अन्य किसी प्रकार की हो, की स्थिति को ही समाजवाद कहा जा सकता है। असल में इनके अलग-अलग अर्थ आज हमारी राजनीतिक पार्टियों को समाजवाद के नाम पर हर तरह का पाप करने की छूट दे रहे हैं। हर पार्टी के नेता इसी के नाम पर करोड़ों की निजी जागीर बना रहे हैं। पेंच यही है कि जब संविधान को मानना राजनीतिक पार्टियों के लिए मान्यता और चुनाव लडऩे की अनिवार्य शर्त है, तो कोई पार्टी संविधान की प्रस्तावना को ही न मानने की घोषणा कैसे कर सकती है? और ऐसा न करने का मतलब ही होगा कि वह समाजवाद को स्वीकार कर रही है। गांधी जी ने यह भी कहा था कि मेरे समाजवाद का अर्थ सर्वोदय और उसका प्रवास है। अंत्योदय से सर्वोदय की दिशा में। यही स्थिति ‘सेक्युलर’ शब्द की संकल्पना पर भी लागू होती है। भारतीय संविधान का भारत सरकार के विधि, न्याय और कंपनी मामलों के मंत्रालय ने हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया है। उसमें ‘सेक्युलर’ शब्द के लिए पंथनिरपेक्ष शब्द का उपयोग किया गया है। वहीं इसी शब्द के लिए एक मराठी पुस्तक में धर्मनिरपेक्ष शब्द का उपयोग किया गया है। बाकी भाषाओं में किन शब्दों का उपयोग किया है, यह एक जांच का विषय है। भारत सरकार द्वारा प्रकाशित शब्दावली में इस शब्द के लिए धर्मनिरपेक्ष यानी सर्वधर्म समभाव शब्द का उपयोग किया गया है। इस संदर्भ में हम यहां ज्यादा क्या लिखें, लेकिन इसके लिए दादा धर्माधिकारी जी ने जो स्पष्टीकरण दिया है, उसे यहां देना मैं उपयुक्त मानता हूं। ‘सेक्युलर’ शब्द का इतिहास वैसे बहुत पुराना है, लेकिन वह शब्द अलग-अलग अर्थों में प्रयोग में लाया जाता था। जैसे ‘सेक्युलर गेम्स’, ‘सेक्युलर अक्जिलरेशन ऑफ दि मून’ आदि। इहलोकवाद के अर्थ में ‘सेक्युलरिज्म’ शब्द का आद्य प्रवर्तक और समाज में उसके प्रयोग का प्रतिवाद करने वाला प्रथम प्रवक्ता जॉर्ज जेकब होलिओक था। सन् 1950 में उसने चाल्र्स ब्रेडलों के साथ के अपने मतभेदों को स्पष्ट किया। उसने कहा, ‘धर्म और सेक्युलरिज्म’ परस्पर व्यावर्तक है। वे एक-दूसरे के क्षेत्र में प्रवेश न करें। धर्म में निहित नैतिकता हमें मान्य है, लेकिन उस नैतिकता का आधार धर्म नहीं होगा। इसके मायने हैं कि ‘सेक्युलरिज्म’ यानी धर्मनिरपेक्षता हो तो भी धर्मविरोधी नहीं। किसी भी कोश में ‘सेक्युलरिज्म’ का अर्थ नास्तिकता नहीं दिया है। इस संदर्भ में धर्म, नास्तिकता, अध्यात्म आदि शब्दों के लक्षण देखना-समझना उचित होगा।