अंत्येष्टि संस्कार— आत्मा के द्वारा शरीर का त्याग कर देने के पश्चात उस निर्जीव शरीर के विधि पूर्वक किये गए दाहकर्म को अंत्येष्टि संस्कार कहते हैं |
यह उस शरीर से सम्बद्ध अन्त्य (अंतिम) इष्टि (यज्ञ) है ।अतः इस कर्म का नाम अंत्येष्टि है । नर (मानव देह) अथवा पुरुष के पार्थिव यथा समय दाहकर्म के द्वारा पृथ्वी, जल आदि भूतों (पदार्थों) में मेध करने (पवित्रतापूर्वक मिलाने) के कारण इसे नरमेध या पुरुषमेध भी कहा जाता है ।
जब व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है और उसके शव को जलाकर पांच तत्वों में विलीन कर दिया जाता है । यही अंतिम सोलहवां अंत्येष्टि संस्कार है । महर्षि दयानन्द सरस्वती जी लिखते है — “अंत्येष्टि कर्म उसको कहते हैं कि जो शरीर के अंत का संस्कार है, जिसके आगे उस शरीर के लिए अन्य कोई संस्कार नहीं है ,इसी को नरमेध, पुरुषमेध, नरयाग, पुरुषयाग भी कहते हैं ।
महर्षि दयानन्द का यह कथन कि इसके आगे शरीर के लिए अन्य कोई संस्कार नही है, बहुत ही महत्वपुर्ण है । हम समाज में देखते हैं कि व्यक्ति के मरने के बाद उसके नाम से अनेक प्रकार के पाखण्ड और आडम्बर किये जाते हैं । जैसे मृत व्यक्ति की हड्डियां ले जाकर गंगा आदि नदियों में पहुंचाई जाती है, ताकि उसकी सद्गति हो जाये, उसके नाम पर कालांतर में श्राद्ध आदि किये जाते हैं, ताकि मृतक को भोजनादि मिल सके । उसके नाम पर अनेक प्रकार के दान – पुण्य आदि किये जाते हैं, ताकि उनके पाप-कर्मों का क्षय हो सके।
वास्तविकता यह है कि मृत्यु के बाद उस व्यक्ति के शरीर को जला दिया जाता है, और जीवात्मा अपने कर्मो का फल भोगने के लिए परमात्मा की न्याय व्यवस्था में चला जाता है ।
परमात्मा की न्याय व्यवस्था के अंतर्गत ही उसे या तो मुक्ति मिल जाती है, या मनुष्य योनि मिल जाती है, या फिर पशु-पक्षियों आदि की योनि मिल जाती हैं। क्योंकि शरीर की मृत्यु होते ही जीवात्मा, सूक्ष्म शरीर पर पड़े अच्छे या बुरे संस्कारों सहित परमात्मा की न्याय व्यवस्था में चला जाता है । इसलिए सूक्ष्म शरीर पर पड़े हुए संस्कारों अर्थात व्यक्ति के कर्मो में किसी प्रकार का घटाना- बढ़ाना नहीं हो सकता है | मृत व्यक्ति के नाम पर हम चाहें दान-पुण्य करें या उसकी हड्डियों को किसी पवित्र नदी में वहा दें, इससे कोई भी अंतर नही पड़ता ।
इसी प्रकार उसके नाम पर श्राद्ध आदि करना भी बुद्धिहीनता तथा कोरा पाखण्ड ही है, क्योंकि यह सब उस व्यक्ति को नहीं मिलता है | हाँ, पात्रता के अनुसार दान-पुण्य करना व विद्वानों को भोजन आदि खिलाना अच्छी बात है तथा इसका फल भी अच्छा है, मगर वह सब उस मृत व्यक्ति को नही मिलेगा, बल्कि उन व्यक्तियों को मिलेगा, जो यह सब कर रहे हैं । व्यक्ति को जीते-जी ही अच्छे-अच्छे कर्म तथा दान-पुण्य और परमात्मा की आराधना करनी चाहिए, ताकि वे संस्कार हमारे सूक्ष्म शरीर पर पड़े और उन संस्कारों के अनुसार हमें सद्गति प्राप्त हो । क्योंकि शव के दाह होने पर स्थूल शरीर जलकर भस्म हो जाता है । सूक्ष्म शरीर जिसमें इंद्रियां, मन व बुद्धि रहती है, जीवात्मा के साथ चला जाता है, और ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार उसको जहाँ नया शरीर मिलना हो, वहॉं गर्भ में जाता है, और गर्भ के भीतर इस सूक्ष्म शरीर में भी आवश्यक संशोधन वृद्धि होती है । और नया स्थूल शरीर बनता है । यह पुनर्जन्म के अनुसार नया शरीर बनने की विधि है।