इसी प्रकार हम कुछ अन्य प्रकार से भी पर्यावरण प्रदूषण फैलाकर अपने लिए ही मरने का मार्ग खोजते या तैयार करते हैं। जैसे हम अपने घर के आसपास की नालियों को साफ न करके अपने घर के कूड़े के ढेर से या गंदी और रद्दी वस्तुओं से उन्हें भर देते हैं, हम अपने बच्चों को नालियों में शौच के लिए बैठाते हैं, या अपने घर की शौचालयों के टैंकों की पाइप को बाहर की ओर खुला छोड़ देते हैं, जिससे असहनीय दुर्गंध फैलती है, हम अपने घरों के सामने खुदे गडढ़ों को पानी से भरे रहने देते हैं, जिनमें मच्छर आदि पलते हैं और वह पानी भी वहीं खड़े खड़े सड़ता रहता है, कई बार इन गढ्ढों में सूअर या भैंसा आदि पशु भी लेटते हैं, जिससे यह और भी अधिक तीव्र दुर्गंध फैलाते हैं, हम खुले शौचालयों में फिनायल आदि का उपयोग नही करते हैं और पक्का सेफ्टिक लेट्रीन नही बनवाते हैं, कच्चा लेट्रीन टैंक बनवाने से वह घर के नल के पानी को प्रदूषित करता है, जिससे कितनी ही बीमारियों से हम स्वयं ग्रस्त होते हैं, हम अपने घरों के आसपास गली सड़ी वस्तुओं के कूड़े का ढेर लगाते रहते हैं, हम शहरों में खरीद फरोख्त करते समय, खाते-पीते समय सडक़ों पर कागज प्लास्टिक की थैलियां, केले के छिलके तथा सड़े-गले फल या सब्जियों को यूं ही फेंक देते हैं। जिससे वे वहीं पर सड़ते हैं और पर्यावरण प्रदूषण बढ़ाते हैं। इन सबके अतिरिक्त होटलों में हम लोगों को गंदा पानी पिलाते हैं, गंदा सलाद खिलाते हैं, गंदा तेल या घी प्रयोग करते हैं, हर चीज क्वालिटी में गंदी और दामों में ऊंची बेचने का प्रयास करते हैं, अपने होटलों में एक दिन कढ़ाई में तेल चढ़ाकर उसे ही अगले दिन प्रयोग करते हैं, और यदि फिर भी बच जाए तो वही तीसरे दिन भी चलता है, इस प्रकार होटलों का खाना पूर्णत: विषैला बन चुका है। कारण यह है कि हमारी सोच विषैली बन चुकी है। हम होटलों में, रेस्टोरेंट पर सडक़ों की ठेलियों की भांति अपने खाने-पीने की चीजों को खुली छोड़े रखते हैं, जिन पर गंदी मक्खियां बैठती हैं। कितने ही होटलों में या ढाबों पर यह भी देखा गया है कि वहां काम करने वाले बच्चों के वस्त्रादि बड़े मैले कुचैले होते हैं और हम उससे पूर्णत: असावधान रहते हैं। होटलों में ऐसा भी देखा जाता है कि रात की बची सब्जियों या अन्य वस्तुओं को हम समोसा बनाने में प्रयोग कर लेते हैं, या कई बार रात की सब्जियों को हम कचौड़ी में भरने वाले मसाले के रूप में प्रयुक्त कर लेते हैं। इन सबसे यही होता है कि ऐसी खाने-पीने की चीजों को प्रयोग करके खाने वाले लोग बीमार पड़ते हैं।
हम अपने वाहनों को चलाते समय हॉर्न जोर से बजाते हैं, या अजीब-अजीब ढंग की आवाज निकालकर लोगों तनाव देते हैं, ध्वनि प्रदूषण बढ़ाते हैं, कई बार तो हॉर्न अनावश्यक ही बजाया जाता है। हम आबादी के बीच वाहन खड़ा कर देते हैं, जिससे सडक़ों पर जाम लग जाता है, जिससे जाम में फंसे वाहन अनावश्यक खड़े-खड़े तेल फूंकते रहते हैं, जिसके धुएं से सडक़ के दोनों ओर की आबादी के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। दुकानों में रखी खाने-पीने की चीजें विषयुक्त बनती हैं, दुकानों पर रखे वस्त्रादि की चमक भी प्रभावित होती है। कई बार हम अपनी गाड़ी को आबादी के बीच ही मिस्त्री को दिखाते हैं और वहीं उसे ठीक कराते हैं, मिस्त्री उसे स्टार्ट करके देखने के लिए बार-बार स्टार्ट करते हुए तेल फूंकता है, हम अपने वाहनों का प्रदूषण चैक नही कराते, कराते हैं तो उनका प्रदूषण चैक कराने का सर्टिफिकेट इसलिए लेते हैं कि कहीं पकड़े न जायें।
हम यदि उपरोक्त छोटी-छोटी चीजों को अपने नित्यप्रति के जीवन में से निकालकर देखने का प्रयास करें तो ज्ञात होगा कि देश के प्रधानमंत्री के ‘स्वच्छता अभियान’ का वास्तविक अर्थ क्या है? केवल सडक़ों पर खड़े होकर जो नेतागीरी करने के लिए लोग फोटो खिंचवा लेते हैं, उससे स्वच्छता अभियान सफल नही होने वाला इसके लिए कठोर परिश्रम की आवश्यकता है। सच्चे मन से और सच्ची लगन से कार्य करने की आवश्यकता है। हम चाहे जहां खड़े हैं वहीं से अपने आपको स्वच्छता अभियान की एक कड़ी समझ लें, वहीं से शुभारंभ कर दें, परिणाम अच्छे आने लगेंगे।
मुख्य संपादक, उगता भारत