डॉ. सुधा कुमारी
हिन्दी को राजभाषा की गद्दी पर बिठाकर भी हम उसे राष्ट्रभाषा या लोक- संपर्क की भाषा बनाने में आजतक सक्षम नहीं हो पाए हैं। हिन्दी-बहुल राज्यों को छोड़ बाकी सभी जगहों में जहाँ प्रांतीय भाषाएँ बोली जाती हैं, अंग्रेजी ही राजकार्य में सहयोगी भाषा है। स्वतंत्रता-संग्राम के समय हिन्दी केवल नेहरू, गाँधी, तिलक, सुभाष आदि की नहीं, आम आदमी की भाषा थी। फिर भी आज तक इसकी अपेक्षित प्रगति नहीं हो पाई। आज भी अंग्रेजीदां लोग श्रेष्ठता और हिंदीभाषी लोग सामान्यतया हीनता की ग्रंथि से ग्रस्त प्रतीत होते है। इस सच्चाई से कतराया नहीं जा सकता कि ‘कॉन्वेंट प्रॉडक्ट’ और ‘हिन्दी मीडियम’ के बीच एक मनोवैज्ञानिक दूरी है।
और ऐसे में हिंदी की वर्षगाँठ पर जब हिन्दी लहर शुरू होती है तो लगता है कि हिन्दी-प्रेम विश्वासजनित प्रेम नहीं, लबादे की तरह ओढ़ा हुआ दिखावा मात्र है, जिसे मौका मिलते ही हम झटक देना चाहते है। दरअसल, इसका एक बड़ा कारण है- हिन्दी का संस्कृत- भरा तत्सम रूप जो सिर्फ भाषाई पंडितों को रास आता है, आम आदमी को नहीं। वह साहित्य और लेखन की भाषा है- नदी किनारे की मिट्टी से दूर बीच धार के स्वच्छ शुद्ध जल की तरह। किन्तु इस्तेमाल तो तट के पानी का ही किया जाता है। इसे हिंदी का तद्भव रूप कहना उचित होगा जिसमें उर्दू, अरबी, फारसी, अंग्रेजी और तमाम भाषाओं के शब्द मिले हुए हैं। यही हिन्दी आम आदमी की बातचीत की भाषा रही है। मगर हिन्दी का एक शुद्धिकरण अभियान चल रहा है, जारी की जा रही सरकारी विज्ञप्तियों, कुछ कानूनों के हिंदी अनुवाद और आदेशों की भाषा में संस्कृत का अपूर्व पांडित्य और विकट शब्दचातुर्य दिखता है, हिंदी में विचित्र काट-छाँट कर तोड़- मरोड़कर, पेंचदार भाषा में अजीब रूप में पेश किया जा रहा है। राष्ट्रभाषा के विकास के नाम पर अपनी हिन्दी देवभाषा सोपान (सीढ़ियाँ) चढ़ती दिखाई देती है जो हिन्दी की लोकप्रियता के लिये निश्चित रूप से खतरनाक सिद्ध होगा। अगर इसे कठिन क्लिष्ट रूप में लोगों के समक्ष परोसा जायेगा तो यह अरूचिकर प्रतीत होगा ही। जब भी हिंदी के विकास के नाम पर संस्कृत के कठिन दुरूह शब्दों को हिन्दी के नाम पर परोसा जाएगा, अहिन्दी भाषी लोगों द्वारा हिंदी का विरोध होगा।
अतः आवश्यक है कि हिन्दी को लोकप्रिय बनाने के क्रम में हम हिंदी को सरल और सुगम रूप में प्रस्तुत और प्रचारित करें, संस्कृत का कम- से- कम प्रयोग करें। जब राष्ट्रभाषा के विकास की बात करें तो हिंदी का विकास करें, देवभाषा का नहीं। हिन्दी राजभाषा है, सहज स्वीकार्य है। किन्तु संस्कृत राजभाषा नहीं है। वह देवभाषा के रूप में ऐच्छिक भाषा ही रहनी चाहिये। अतः नीति निर्धारकों को पहले यह निर्णय लेना होगा कि राजभाषा कौन है- हिंदी या संस्कृत ? राष्ट्रभाषा किसे बनाना है – हिंदी को या संस्कृत को ?संस्कृत के पंडितों को यह नापसंद होगा मगर हिंदी को राष्ट्रभाषा की जगह दिलाने के लिए यह नियंत्रण अति आवश्यक है। ध्यान रखें कि देवभाषा संस्कृत हिंदी यानी राष्ट्रभाषा के ऊपर हावी न हो जाए । हिन्दी तो सहज ग्रहण करने वाली सुगम भाषा है। हिन्दी की प्रतिष्ठा जननी की भाँति है। हिन्दी को सबल बनाना, उसे सहज गति से विकसित होने देना है, हीनता की ग्रंथि से मुक्ति पाकर उसे प्रोत्साहन देना है।
हिंदी के विकास में बाधक दूसरा बड़ा कारण है- नेता तथा उच्च वर्ग की दोहरी नीति। कॉन्वेंट और अंग्रेजी को पानी पी- पीकर कोसनेवाला स्थानीय नेता अपने बच्चों को अंग्रेजी में तुतलाते देखकर उसकी बलैया लेता है, जुगाली करता हुआ ‘एक्सीडेंट’ की जगह ‘स्टूडेंट’, ‘सॉरी’ की जगह ‘थैंक्यू’ और ‘गुड’ की जगह ‘माई गुडनेस’ कहकर अपनी स्थिति हास्यास्पद बना लेता है। थोड़ी चर्चा उच्च वर्ग की भी उचित होगी। अंग्रेजी का पोषक यही वर्ग है। नेता तो जनता के प्रति उत्तरदायी होने के कारण कम से कम हिन्दी प्रेम की बात करते हैं। पर इस वर्ग के समक्ष ऐसी कोई समस्या नहीं होती। हश्र- ये अंग्रेजी से चिपके रहते है। उनके बच्चे ए.बी.सी.डी. पहले सीखते हैं, क, ख, ग, बाद में। नर्सरी राइम पहले, कविता पीछे। डर लगता है कि भारतीय बच्चे को कहीं हिन्दी का रोग न लग जाय। इसीलिए बचपन से ही अंग्रेजी का टीका लगा दिया जाता है। बचपन से प्रौढ़ अवस्था तक वे अंग्रेजी के ही पिछलग्गू बने रहते हैं। आम जनता से संपर्क का अभाव, नगरीय सभ्यता में ही सदा पलते रहने के कारण वे जमीन से जुड़ नहीं पाते। जनता तो अपने नेता का अनुकरण करती है। नेता तथा उच्च वर्ग सच्चे मन से हिंदी की सेवा करे तो जनता भी उनका अनुकरण करेगी।
राष्ट्रभाषा का तीसरा बाधक तत्व है- हिन्दी में तकनीकी पाठ्य- पुस्तकों का अभाव। जहाँ एक और मध्य युगीन मुगलिया और इस्लामिक शासन के प्रभाव से हमारे अदालती दस्तावेज, जमीन के कागज और सिनेमा के गाने उर्दू- फ़ारसी शब्दों से भरे हुए हैं वहीं दूसरी और अंग्रेजी शासन के प्रभाव से हमारा संविधान, सभी तरह के क़ानून और उच्च शिक्षा हेतु तकनीकी विषयों की पाठ्य-पुस्तकें अंग्रेजी में ही उपलब्ध हैं। तकनीकी विषयों जैसे चिकित्सा, अभियंत्रण, अर्थशास्त्र, वाणिज्य, खाता- बही लेखा, प्रबंधन, आदि – सब की पढ़ाई अंग्रेजी में ही होती है। मेडिकल की पढ़ाई के बाद शपथ से लेकर ऑपरेशन थिएटर का पूरा परिवेश- दवा, सिरिंज से लेकर ऑपरेशन की प्रक्रिया तक- सबकुछ अंग्रेजी के शब्दों से ही संपन्न होता है। विचार का विषय यह भी है कि अदालतों के अनगिनत पृष्ठों वाले विद्वतापूर्ण निर्णय तो अंग्रेजी में ही होते हैं जिनमें ग्रीक- लैटिन के ढेर सारे शब्द हीरे-मोती जैसे जड़े होते हैं। आजकल उच्च न्यायालयों में 1000 से अधिक पृष्ठों के अंग्रेजी ‘काउंटर- एफिडेविट’ भी जनता को बनाने पड़ रहे हैं। तो क्या हम अदालतों, अस्पतालों तकनीकी कॉलेजों में गीता या रामायण जैसी संस्कृत की भाषा का प्रयोग करेंगे। कहीं ‘ब्रेन-ड्रेन’ या प्रतिभा का पलायन और बढ़ तो नहीं जाएगा ? हिन्दी का विकास करने के लिये इन सभी मुद्दों पर गंभीर विचार और प्रयास की आवश्यकता है।
अंग्रेजी आज न केवल एक समृद्ध और परिष्कृत अंतरराष्ट्रीय भाषा है बल्कि उच्च कोटि के रोजगार की भी भाषा है। सामान्य जन को ज्ञान-विज्ञान की झलक गूगल और यू-ट्यूब आदि द्वारा भी अंग्रेजी की खिड़की से ही मिल रही है। आवश्यक है कि तकनीकी विषयों जैसे चिकित्सा, अभियंत्रण, अर्थशास्त्र, वाणिज्य, प्रबंधन जिनकी पुस्तकें हिन्दी में उपलब्ध नहीं है और जिनकी नितांत जरुरत है, उनका सरल हिंदी अनुवाद करवाएँ ताकि भारतीयों को अपनी भाषा में उच्च शिक्षा दी जा सके। आजकल अनुवाद के कई साधन- गूगल ट्रांसलेट, माईक्रोसोफ्ट अनुवादक, ट्रानित, सेहाई, टेक्स्ट ग्रैबर, माई लिंगो, ट्रिप लिंगो आ गए हैं जिनका भरपूर सदुपयोग करना है (यह अलग बात है कि ये भी अंग्रेजी ऐप या गूगल आदि से डाउनलोड करने होते हैं)। इतना ही नहीं, यूनिकोड जैसे सरल प्रोग्राम तथा माइक्रोफोन लगाकर बोलकर लिखनेवाला साधन भी अब सहज उपलब्ध है जिससे हिंदी में लिखना अब आसान हो गया है।
हिंदी का प्रोत्साहन अनेक रूपों में हो सकता है। स्कूल, कॉलेज में विषय रखकर, उसका सुगम शब्दकोष तैयार कर, हिन्दी के प्रचार में लगी स्वयंसेवी संस्थाओं को पुरस्कार देकर, हिन्दी की स्तरीय पत्रिकाओं को अहिन्दी भाषी राज्यों में प्रोत्साहन देकर, हिन्दी में श्रेष्ठ तकनीकी पुस्तकों पर पुरस्कार देकर। हिंदी के तकनीकी आलेख- निबंधों को प्रोत्साहन दिया जाए। हिंदी के प्रचार के लिए वैश्विक तौर पर प्रवासी भारतीयों का भी सहयोग लिया जाय। उनमें हिंदी की सरल भाषा में कविता- कहानी विशेषकर बाल- साहित्य का प्रचार हो। उनसे तकनीकी विषयों का अनुवाद भी लिया जा सकता है। इस तरह हम हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के साथ- साथ अंतरराष्ट्रीय विस्तार भी दे सकेंगे। सुखद समाचार है कि इस दिशा में प्रवासी भारतीय भी आगे आकर सहयोग कर रहे हैं और हिंदी मंचों से तथा कई गतिविधियों द्वारा हिंदी का मान बढ़ाने का भरपूर प्रयास कर रहे हैं।