महर्षि दयानन्द और मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम
राम और कृष्ण मानवीय संस्कृति के आदर्श पुरुष हैं। कुछ बंधुओं के मन में अभी भी यह धारणा है कि महर्षि दयानन्द और उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज राम और कृष्ण को मान्यता नहीं देता है।प्रत्येक आर्य अपनी दाहिनी भुजा ऊँची उठाकर साहसपूर्वक यह घोषणा करता है कि आर्यसमाज राम-कृष्ण को जितना जानता और मानता है, उतना संसार का कोई भी आस्तिक नहीं मानता। कुछ लोग जितना जानते हैं, उतना मानते नहीं और कुछ विवेकी-बंधु उन्हें भली प्रकार जानते भी हैं, उतना ही मानते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के संबंध में महर्षि दयानन्द ने लिखा है-
प्रश्न-रामेश्वर को रामचन्द्र ने स्थापित किया है। जो मूर्तिपूजा वेद-विरुद्ध होती तो रामचन्द्र मूर्ति स्थापना क्यों करते और वाल्मीकि जी रामायण में क्यों लिखते?
उत्तर- रामचन्द्र के समय में उस मन्दिर का नाम निशान भी न था किन्तु यह ठीक है कि दक्षिण देशस्थ ‘राम’ नामक राजा ने मंदिर बनवा, का नाम ‘रामेश्वर’ धर दिया है। जब रामचन्द्र सीताजी को ले हनुमान आदि के साथ लंका से चले, आकाश मार्ग में विमान पर बैठ अयोध्या को आते थे, तब सीताजी से कहा है कि-
अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोद्विभुः।
सेतु बंध इति विख्यातम्।।
वा0 रा0, लंका काण्ड (देखिये- युद्ध काण्ड़, सर्ग 123, श्लोक 20-21)
‘हे सीते! तेरे वियोग से हम व्याकुल होकर घूमते थे और इसी स्थान में चातुर्मास किया था और परमेश्वर की उपासना-ध्यान भी करते थे। वही जो सर्वत्र विभु (व्यापक) देवों का देव महादेव परमात्मा है, उसकी कृपा से हमको सब सामग्री यहॉं प्राप्त हुई। और देख! यह सेतु हमने बांधकर लंका में आ के, उस रावण को मार, तुझको ले आये।’ इसके सिवाय वहॉं वाल्मीकि ने अन्य कुछ भी नहीं लिखा।
द्रष्टव्य- सत्यार्थ प्रकाश, एकादश समुल्लासः, पृष्ठ-303
इस प्रकार उक्त उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान राम स्वयं परमात्मा के परमभक्त थे। उन्होंने ही यह सेतु बनवाया था। सेतु का परिमाप अर्थात् रामसेतु की लम्बाई- चौड़ाई को लेकर भारतीय धर्मशास्त्रों में दिए गए तथ्य इस प्रकार हैं-
दस योजनम् विस्तीर्णम् शतयोजन- मायतम्’ -वा0रा0 22/76
अर्थात् राम-सेतु 100 योजन लम्बा और 10 योजन चौड़ा था।
शास्त्रीय साक्ष्यों के अनुसार इस विस्तृत सेतु का निर्माण शिल्प कला विशेषज्ञ विश्वकर्मा के पुत्र नल ने पौष कृष्ण दशमी से चतुर्दशी तिथि तक मात्र पॉंच दिन में किया था। सेतु समुद्र का भौगोलिक विस्तार भारत स्थित धनुष्कोटि से लंका स्थित सुमेरू पर्वत तक है। महाबलशाली सेतु निर्माताओं द्वारा विशाल शिलाओं और पर्वतों को उखाड़कर यांत्रिक वाहनों द्वारा समुद्र तट तक ले जाने का शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध है। भगवान श्रीराम ने प्रवर्षण गिरि (किष्किंद्दा) से मार्गशीर्ष अष्टमी तिथि को उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र और अभिजीत मुहूर्त में लंका विजय के लिए प्रस्थान किया था।
महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रंथों में राम, कृष्ण, शिवाजी, गुरु गोविन्दसिंह तथा वीर बघेलों (गुजरात) का गर्वपूर्वक उल्लेख किया है। इस प्रकार महर्षि दयानन्द के राम राजपुत्र, पारिवारिक मर्यादाओं को मानने वाले, ऋषि मुनियों के भक्त, परम आस्तिक तथा विपत्तियों में भी न घबराने वाले महापुरुष थे। श्रीराम की मान्यता थी कि विपत्तियॉं वीरों पर ही आती हैं और वे उन पर विजय प्राप्त करते हैं। वीर पुरुष विपत्तियों पर विपत्तियों के समान टूट पड़ते हैं और विजयी होते हैं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् देश का यह दुर्भाग्य रहा कि पाश्चात्य शिक्षा, सभ्यता और संस्कारों से प्रभावित कुछ भारतीय नेताओं ने पोरस के हाथियों के समान भारतीय मानक, इतिहास और महापुरुषों के सम्बन्ध में विवेकहीनता धारण कर भ्रमित विचार प्रकट करने प्रारम्भ कर दिये। साम्यवादी विचारद्दारा से प्रभावित व्यक्तियों के अनुसार और ‘स्त्री एक सम्पत्ति है, इसमें आत्मतत्व विद्यमान नहीं है।’ ऐसे अपरिपक्व मानसिकता वाले तत्व यदि राम के अस्तित्व और महिमा के संबंध में नकारात्मक विचार रखें, तो उनके मानसिक दिवालियापन की बात ही कही जाएगी— किन्तु भारत में जन्मे, यहॉं की माटी में लोट-पोट कर बड़े हुए तथा बार-एट लॉ की प्रतिष्ठापूर्ण उपाधिधारी जब सन्तुष्टीकरण को आद्दार बनाकर ‘राम’ को मानने से ही इंकार कर दें, राम-रावण को मन के सतोगुण-तमोगुण का संघर्ष कहने लग जाएं तो हम किसे दोषी या अपराधी कहेंगे? अपनी समाधि पर ‘हे राम!’ लिखवाने वाले विश्ववंद्य गांधीजी ने राम के संबंध में ‘हरिजन’ के अंकों में लेख लिख कर कैसे विचार प्रकट किये, यह तो ‘हरिजन’ के पाठक ही जान सकते हैं। इस स्वतन्त्र राष्ट्रमें अपने आप्त महापुरुषों के अस्तित्त्व पर नकारात्मक दृष्टिकोण रखने वालों की बुद्धि पर दया ही आती है और कहना पड़ता है- धियो यो नः प्रचोदयात्। महर्षि दयानन्द ने राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र राम के पौरुष तथा उनके गुणों का विचारणीय एवं महत्वपूर्ण वर्णन किया है। महर्षि दयानन्द ने राम को महामानव, ज्येष्ठ-श्रेष्ठ आत्मा, परमात्मा का परम भक्त, धीर-वीर पुरुष, विजय के पश्चात् भी विनम्रता आदि गुणों से विभूषित बताया है। महर्षि दयानन्द का राम एक ऐसा महानायक था, जिसने सद्गृहस्थ रहते हुए तपस्या द्वारा मोक्ष के मार्ग को अपनाया था। राम और कृष्ण; दोनों ही सद्गृहस्थ तथा आदर्श महापुरुष थे। आज राष्ट्र को ऐसे ही आदर्श महापुरुषों की आवश्यकता है, जिनके आदर्श को आचरण में लाकर हम अपने राष्ट्र की स्वतन्त्रता, अखण्डता, सार्व भौमिकता तथा स्वायत्तता की रक्षा कर सकते हैं।