रविन्द्र प्रताप सिंह
सियासतदारों की जिद्द के आगे संसद का पूरा मानसून-सत्र धूल गया। हर किसी की जुबान पर इनकी करतूत के चर्चे हैं। लेकिन ,इनको इसका कोई पछतावा नहीं। हो भी क्योंज्..क्योकि इनकी पुरानी फितरत है वादे करके, भूल जाना। लगता है अब भारतीय राजनीति की यही परम्परा बन गई है। जिस वंदनीय संसद में देशहित के काज होने चाहिए वहां हंगामा होता हैज्..बच्चो की तरह हमारे जनप्रतिनिधी जिद्द करते हैं, हंगामा काटते हैं। हालांकि ,निलंबन स्वरूप फटकार तो लगती है लेकिन नतीजा ज्..हमारी गाढ़ी कमाई हमारे सामने ही बर्बाद हो जाती है। ऐसा नहीं दोषी कोई एक सियासी दल हो। इसकी बानगी साफतौर पर मानसून-सत्र के दौरान देखने को मिली। बिना किसी शर्म के विपक्ष की पिछली खामिया गिनाई गई, ताकि अपनी खामियां छुपाई जा सके।लगता है संसद में बैठे हमारे जनप्रतिनिधि हमें बेवकूफ समझते हों ।इतना ही नहीं, जब ये बोलते हैं तो शायद भूल जाते हैं इनके उदगार देश के भविष्य को क्या परोस रहे हैं।अफ़सोस की बात यह है की इनके कान पकडऩे वाला कोई नहीं, शायद यही वजह है जो ये मनमानी पर आमादा हैं।
कांग्रेस और भाजपा देश के दो सबसे बड़े सियासी दल हैं। किसी को सर्वाधोक राज-काज का गुरुर है तो किसी को अपनी फौज जैसी सदस्य संख्या का। आजादी के बाद इन्होने ने ही देश पर राज किया। कभी अकेले ,तो कभी अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर । ख़ास बात ये रही जब भी इन्हें भारी बहुमत मिला। इन्होने ,अहंकार के मद में चूर होकर मनमानी की। जिसे देखकर लगता है ये उसके वजन तले दब गए हों। ऐसे फैसले लिए गए जो इनकी समझ से जनहित के नहीं बल्कि महान थे ऐतिहासिक थे लेकिन दूसरो की समझ से परे ।सर्वविदित है नरेंद्र मोदी सरकार को आम चुनाव में प्रचंड बहुमत मिला, सरकार बनी। लोगो को मोदी सरकार से बहुत उम्मीदें थी। लेकिन शुरुआत ही विवादास्पद रही ज्..चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने जिस ढंग से पाक की नापाक करतूतो को कोसा था । उसी पाक के वजीर-ए -आलम नवाज शरीफ को बतौर अतिथि आमंत्रित किया ,खूब-खातिरदारी की। लिहाजा, हर दूसरे रोज सीमा पर तैनात हमारी सेना के जाबांज ,दुश्मन की गोलियों का शिकार होने लगे। ऐसा नहीं की ये पहली बार हो रहा हो।लेकिन इतना जरूर अब रिहायशी इलाको के भी इनके निशाने पर हैं।
अगर इतिहास के पन्ने पलटें तो हम पाते हैं जब भी शान्ति की पहल हुई, जबाव में देश को हमले ही मिले। आतंकियों की घुसपैठ की कोशिशें बढ़ीं , सीमा पार से फायरिंग हुई या देश में आतंक फैलाने के लिए खूनी स्क्रिप्ट लिखी गई। दिन-ब-दिन ऐसी घटनाओ की संख्या बढ़ रही है। जैसे देश में मँहगाई बढ़ रही हो। सरकार के गठन के साथ ही मोदी सरकार का विवादों से रिश्ता हो गया।कभी किसी मंत्री की डिग्री ने सरकार को डराया तो कभी मंत्री या सांसद के बड़बोलेपन ने विवाद को जन्म दिया। संसद के मानसून-सत्र में कांग्रेस सहित विपक्ष के कुछ दलों की मांग थी की सरकार केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया एवं मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से इस्तीफा ले। वजह बताई गई की, सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे सिंधिया के ललित मोदी से पारिवारिक व् व्यावसायिक रिश्ते होना ।जबकि , ललित मोदी पर आईपीएल में घपलेबाज़ी करके विदेश भाग जाने का आरोप है।वहीं , व्यापम घोटाले को लेकर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पहले से ही कांग्रेस की आँखों की किरकिरी बने थे। सो इन तीनो दिग्गज भाजपा नेताओ के इस्तीफे मांगे जा रहे हैं। सरकार को मालूम था सदन में हंगामा तय है बाबजूद इसके ,सरकार, बिना तैयारी के मैदान में उतरी। नतीजा, उसे मुहं की खाने को मिली। संसद के जिस सत्र में सरकार को महत्त्वपूर्ण बिल पेश करने थे उसमे सिवाये हंगामे के कुछ नहीं हो सका। इस पूरे एपिसोड में सरकार और इस्तीफा मांगने वाले विपक्षी दलो का रुख बेहद जिद्दी रहा । कोई झुकने को तैयार नहीं था।
परिणामस्वरूप, संसद का मानसून सत्र बर्बाद हो गया। सरकार अतिमहत्वाकांक्षी बिल जी एस टी भी सदन में पेश नहीं कर सकी और ना ही किसी का इस्तीफा हुआ । उल्टा सरकार की ओर से विपक्ष को जो तर्क दिए गए वो किसी के गले नहीं उतर रहे हैं। सरकार ने अपनी सफाई में कहा कांग्रेस की सरकार ने जब भ्रष्टाचारियों का साथ दिया है तो वे मंत्रीयो के इस्तीफे की मांग कैसे कर सकते है। लग रहा है की सरकार विपक्ष की अच्छाइयों को नहीं उनकी बुराइयों को अपनाने की होड़ में शामिल हो।जनता कांग्रेस के काम काज से दुखी थी सो उसका सफाया कर दिया। इसीलिये लोगो ने नरेंद्र मोदी पर भरोसा जताया। लेकिन नतीजा अब तक ढांक के तीन पात रहा । जो कांग्रेस ने किया था वही हम भी करेंगे।
संसद में पिछले दिनों जो हुआ उसे देखकर तो ऐसा ही लगता है। करीबन ढाई सौ करोड़ रुपये से ज्यादा मानसून-सत्र का खर्चा हुआ लेकिन काम एक ढेले का नहीं हुआ। उल्टा जिस ढंग से हमारे नेता असभ्य और अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करते हैं वो शायद अब ज्यादा विचलित करने लगे हैं ।ऐसा नहीं की ये सब पहली बार हुआ हो पहले भी होता रहा है। लेकिन भाजपा की सरकार के नुमाइंदे इन सब में शामिल हो गए हैं लोगो को कचोट रहा है। हमारे राजनेता माँ जैसे अति-सम्मानीय सम्बोधन पर सरेआम चुटकी लेते हैं। शब्द मजाक बन गया है। जिसका मन करता है व्यंगात्मक लहजे में तंज कस देता है। ऐसे में,प्रतिष्ठित पद भी इसकी चपेट में आना लाजमी हैं। चाहें फिर वो प्रधानमंत्री पद जैसे प्रतिष्ठित पद ही क्यों ना हों। पिछले 14 महीने की बात करें तो उनमे झांककर तो ऐसा ही लगता है की सरकार असमंजस में है। आलम यह है जो दहाड़ते थे उनके बोल भी नहीं फूट पा रहे हैं। बचाव की बारी आती है तो ऐसे बयान सुनने को मिलते हैं जिन को सुनकर लोग अपने बाल नोचने लगते हैं। संस्कृति और संस्कारो के ठेकेदार तमाशबीन बन गए हैं। किसी ने सच ही कहा है जैसा इंसान बोता है वैसा ही काटता है ।जाहिर है कांग्रेस और भाजपा के काम-काज पर यही कहावत सटीक बैठती है की दोनों ही राजनैतिक दाल एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं।
कुलमिलाकर , इसे लोकतंत्र का दुर्भाग्य कहें या हमारी मजबूरी। लेकिन इतना तो तय है अगर जल्द ही इस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो हालात बद से बदतर हो सकते हैं। जरुरत किसी ठेकेदार की नहीं ,जिम्मेदारों के आत्म-चिंतन की है तभी शायद संभव है की बुराई इक्वलटू अच्छाई न हो।