नेता समस्या उत्पन्न करते हैं-(1)

हम समाज में देखते हैं कि यहां भावनाएं कत्र्तव्य से आगे चलकर कार्य करती हैं। इन भावनाओं को साम्प्रदायिक नारे संप्रदाय, जाति आदि के विचार और भी अधिक उभारते हैं। मनुष्य अज्ञानवश इन नारों और संप्रदाय व जाति की बातों में फंसकर बह जाता है। मनुष्य का इन छोटी बातों को बड़ा मानना और उनमें बह जाना उसका अज्ञान है और उसकी पतितावस्था है।

कहीं से आवाज आती है इस्लाम खतरे में है। ये इस प्रकार की आवाज इस्लाम के मानने वाले के लिए ‘खुदा का पैगाम’ बन जाता है। इसलिए इसे सुनकर वह टूट पड़ता है-अंधा होकर उसे मिटाने के लिए जो उसके इस्लाम के लिए खतरा बन गया है। इसी प्रकार जय बजरंग बली या सत श्री अकाल आदि वे शब्द हैं जो हमें किसी एक संगठन या समुदाय के झंडे तले लाते हैं।

एक झण्डा, एक एजेंडा और एक डंडा (शासन की एक सर्वोच्च सर्वभौम सत्ता) इन सबका होना आवश्यक भी है। इसलिए यह कोई बुरी बात नही है। हर युग में ऐसी एकता और सम्मैत्री की भावना की कामना मनुष्य ने की है। परंतु दुर्भाग्यवश फिर भी मनुष्य को एकता के स्थान पर अनेकता ही प्राप्त हुई है। ये जातियां ये संप्रदाय और ये समुदाय मानुष समाज की शांति के उतने ही बड़े शत्रु हैं जितने बड़े ये मित्र हैं। अपने संप्रदाय या अपनी जाति के लोगों के लिए मनुष्य न्याय-अन्याय, हित-अहित, लाभ-हानि सबको ताक पर रखकर कार्य करने को तत्पर हो जाता है। जब तक भारत में वर्ण-व्यवस्था सुचारू ढंग से कार्य करती रही। तब तक कोई समस्या समाज में जाति-बंधनों को कड़ा करने और मानव को मानव द्वारा ही उत्पीडि़त और शोषित करने की हम नही देखते। परंतु वर्ण-व्यवस्था धीरे-धीरे जातिगत आधार लेने लगी तो उस समय हमने देखा कि मनुष्य मनुष्य का मित्र न होकर शत्रु हो गया। वह जानता था कि सारे मनुष्य एक ही पिता ईश्वर की संतानें हैं, परंतु इसके उपरांत भी उसने अपने आपको कहीं अधिक उच्च समझा, जबकि किसी अपने ही भाई को उतना ही तुच्छ समझा। फलस्वरूप जातिवाद हमारे समाज की विषबेल बन गयी।

भारतीय समाज की इस स्थिति का लाभ अंग्रेजों ने उठाया। उन्होंने भारत में 1910 में जब जनगणना करायी तो हिंदुओं को तीन वर्गों में विभाजित किया गया। प्रथम हिंदू, द्वितीय जनजातियां और तृतीय दलित वर्ग। अंग्रेजों ने भारत में जातिवाद की समस्या को वर्तमान जटिलता की ओर बढ़ाने में सहायता प्रदान की। उन्होंने हिंदू केवल ब्राह्मण माना। बाकी सारे हिंदू समाज में एस.सी., एस.टी. आदि कई ऐसे नाम दे डाले जो उससे पहले सुनने को नही मिले थे। हमारी मान्यता है कि अंग्रेजों को ऐसा करने के लिए तथा हिंदू समाज की जड़ों में चूना डालने के लिए उन्हें हमारे कथित ब्राह्मण समाज की अमानवीय नीतियों ने ही प्रोत्साहित किया। इन लोगों का ज्ञान विज्ञान इतना संकीर्ण हो गया था कि ये अपने ही लोगों को गले लगाने के लिए तैयार नही थे। जो लोग आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक और राजनैतिक किन्हीं भी कारणों से पीछे रह गये थे उन्हें, आगे लाने के स्थान पर उनका शोषण किया जा रहा था। ज्ञान-विज्ञान यद्यपि कभी इतना संकीर्ण होता नही है, परंतु भारत में एक समुदाय के लोगों ने इसे इतना संकीर्ण बनाकर दिखा दिया। फलस्वरूप समाज में ज्ञान-विज्ञान (वेदादि शास्त्रों) को ही झुठलाने वाले और उनमें अनास्था रखने वाले लोग भारत में ही जन्म लेने लगे। यह क्रम आज तक जारी है। वेदों का ब्राह्मण जाति के लोगों की पुस्तक मानने वाले भारत में ही हैं। इनका मानना है कि वेद ही वह पुस्तक है जो लोगों को एक दूसरे से घृणा करना सिखाती है।

इस दुरावस्था से उबारने के लिए भारत में महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद, स्वामी श्रद्घानंद और इन जैसी अनेकों हस्तियों ने जातिवाद के विरूद्घ अवाज उठाई। जिसके कुछ सकारात्मक परिणाम भी सामने आये।

1931 की जनगणना के समय जनगणना के कार्य में लगे लोगों को सरकार की ओर से निर्देशित किया गया ‘‘दलित वर्ग ऐसी जातियां हैं जिनके साथ छू जाने से सवर्ण हिन्दू अपने को अपवित्र मानते हैं। इस संज्ञा का प्रयोग किसी व्यवसाय के संदर्भ में नही है, बल्कि ऐसी जातियों के संदर्भ में है जिन्हें हिंदू समाज ने परंपरागत स्थान के कारण, मंदिरों में प्रवेश की अनुमति नही दी है, जिन्हें अलग कुंओं से पानी लेना पड़ता है या पाठशाला के भवन में बैठकर नही, बल्कि उसके बाहर खड़े रहकर शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती है। इस प्रकार की अनर्हताएं, भारत में भिन्न-भिन्न रूपों में उपस्थित हैं, दक्षिण में अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा इस प्रकार की भावनाएं अधिक हैं।’’

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