रोमिला थापर आदि वामपन्थी इतिहासकार बड़े गर्व से कहते हैं कि उन्होंने कोई भारतीय साहित्य नहीँ पढ़ा है। वे भारतीय साहित्य से घृणा करते हैं तथा उसे समझने में भी असमर्थ हैं।
२००४ में संसद अनेक्सी में डाॅ कर्ण सिंह जी ने मुझे महाभारत कालीन ज्योतिष पर भाषण के लिये निमन्त्रित किया था। भाषण आरम्भ होने के पहले ही एक प्राध्यापक हल्ला करने लगे कि उस समय लोग खेती करना नहीँ जानते थे, ज्योतिष कहाँ से होगा। उनसे सन्दर्भ पूछा तो कहा-Food Gathering Communities of Mahabharata by Dr. Bipan Chand, Macmillan, 2004.
मेरी स्वाभाविक प्रतिक्रिया हुई कि मैं अनपढ़ों की किताब नहीँ पढ़ता।
डाॅ कर्ण सिंह जी नाराज हुए कि इमेरिटस प्रोफेसर बिपान चन्द को अनपढ़ क्यों कहा? उनको मैंने कहा कि यह स्वयं अपने को अनपढ़ कहेगा।
डाॅ बिपान चन्द से पूछा कि महाभारत के किस श्लोक में ऐसा लिखा है, तो उन्होंने बड़े गर्व से कहा कि महाभारत नहीँ पढ़ा है। उनको मैंने कहा कि जब पढ़ना सीख जायँ तब दूसरों को पढ़ायें, तब तक चुपचाप बैठें। बिपान चन्द ने वहाँ से तुरन्त मैकमिलन कम्पनी जा कर उस पुस्तक की बिक्री बन्द करायी।
कटक लौटने पर एक मैट्रिक फेल पण्डित से पूछा कि महाभारत में खेती के बारे में कहाँ लिखा है? उसने कहा कि विद्वान् होकर मूर्ख जैसा क्यों पूछ रहा हूँ? उसने गीता के अन्तिम अध्याय का श्लोक कहा-कृषि गोरक्ष वाणिज्यं वैश्य कर्म स्वभावजः।
मेरा दूसरा मूर्खतापूर्ण प्रश्न था-यह तो गीता में है, महाभारत में कहाँ है?
उसने कहा कि कि महाभारत में ही गीता है।
उसके लिये मेरा प्रश्न पागलपन था पर राधाकृष्णन तथा उस परम्परा के सभी संस्कृत प्राध्यापक गीता को काल्पनिक मानते हैं तथा कहते हैं कि १५०० वर्षों में कई लोगों ने जोड़ कर ७०० श्लोक पूरा किया था। इन लोगों से तृतीय कक्षा तक पढ़ी मेरी माता कहीं अधिक विद्वान् थीं।
✍🏻अरुण उपाध्याय
स्व. गिरिजेश राव जी (#सनातन_कालयात्री) जी का एक लेख प्रचलित हो रहा है। आप भी आनंद लीजिए।
रोमिला का वास्तविक नाम उर्मिला रहा होगा। रोमिला शब्द भी अर्थवान है, जिसकी देह लोम भरे हों। रोमशा नाम की एक वैदिक ऋषिका हैं ही जिनके नाम का आधार ले एक भीमकर्मा नैरुक्त सिंह ने यह सिद्ध कर दिया कि ऋग्वेद भारत पर यवन आक्रमण के पश्चात रचा गया। जीवनाधार ऋग्वेद को कुछ न कहते हुये एक अन्य भगवान श्री ने बताया कि अथर्ववेद भारत में आक्रान्ता बन कर आये व बस गये ग्रीक यवनों द्वारा रचा गया। लगे हाथ एक ने मथुरा के चौबों पर भी हस्तस्वच्छता अभियान चला दिया कि वे ही, वे ही हैं वे ग्रीक! एक रोमिल कांग्रेसी ब ने भारत पर मनमोहिनी पुतली को आगे रख दो युग शासन किया ही।
रोम अनन्त, रोमिल कथा अनन्ता,
कछू न बूझें सब साधू सन्ता।
स्मृतियों में ऐसी कन्या से विवाह न करने के निर्देश हैं जिसकी देह बहुत लोम हों। कारण अन्त:स्राव की अधिकता एवं प्रजनन सामर्थ्य से जुड़े हो सकते हैं। रोमिलाओं के बाँझ होने की प्रायिकता अधिक हो सकती है। परिणति देखें तो रोमिला का सम्पूर्ण सृजन संसार इसकी साक्षी है।
स्राव अधिकता से मनुष्य पर आयतें उतरने लगती हैं। वह ऐन्द्रजालिक हो सकता है, आभासी सत्य गढ़ने लग सकता है। रोमिला में ये सारे गुण हैं जो उन्हें काल की सीमाओं के उल्लङ्घन के साथ साथ उसका भाई बाप करने की अद्भुत सामर्थ्य से भर देते हैं। रोमिला को किसी विश्वविद्यालय से प्रमाण की आवश्यकता नहीं। मुहम्मद, कबीर आदि क्या कभी तक्षशिला पढ़ने गये थे? पढ़ने नहीं गये तो पढ़ाने भी नहीं गये किन्तु रोमिल हबीबी गैंग की रोमिला मौसी या महिषी जो कहें, पढ़ाने की अपेक्षा से युक्त हैं, रही हैं। ये बात और है कि वे कर्क रेखा से उत्तरस्थ क्रान्तिकारी हीनू जुवाओं को कहाँइयाँ परोसती रही हैं। कबीता कहाँई प्रिय यह पुण्यक्षेत्र उनकी कहाँइयों पर टूट पड़ता है मानो मरुभूमि में रहते अभागे बोंग्ला को मेघना की हिलसा मिल गई हो!
मेघना से ध्यान आया कि कभी मरुभूमि अञ्चल में नदियाँ बहती थीं जिन्हें रोमिला के पाटनर हबीबी ने तुगलकों व लोदियों द्वारा निर्मित नहरों का जाल बताया था। सिन्धु सरस्वती सभ्यता के निर्माताओं ने सिकन्दर लोदी से नदियाँ बनाने की कला सीखी थी। क्रियान्वयन में काफिरों से हुई भूल के कारण उन पर लोदी के बॉस लल्ला का कोप हुआ और उसने स्तेपी क्षेत्र के आर्यों का आक्रमण करा उनके समस्त नगर नष्ट करा दिये। सबऑर्डिनेट लोदी को भी दण्ड मिला एवं उसे आजीवन काफिरों के दुर्गन्ध युक्त बुतखाने साफ करने पड़े। रोमिला का कहना है कि ल्ला की इस आभासी क्रूरता का कोई मजहबी ऐंगल था ही नहीं, वरन वे तो प्रजा को जड़ मान्यताओं से मुक्त करने एवं उनकी समृद्धि बढ़ाने हेतु किये गये विनम्र प्रयास मात्र थे। आज वही रोमिला डिग्री माँगे जाने पर भड़कती हैं, किञ्चित भी नहीं सोचतीं कि यह भी उनकी कल्याण कामना हेतु ही किया गया है। मस्तिष्क के स्थान पर अन्त:स्रावी ग्रन्थियों से सोचने की उद्भट क्षमता रोमिला के पास है किन्तु न तो वह यह मानना चाहती हैं न उनके प्रेमी जन कि वास्तविकता हैल्युसिनेशन नहीं होती तथा अकादमिकी में मस्तिष्क की बातें ही चलनी हैं। अन्त:श्रावी ग्रन्थियाँ उत्पात करें तो चिकित्सक के पास जाना चाहिये, नहीं जाने पर रोमिला जैसी दुर्घटनायें एक देश को भ्रमित एवं कहाँई-सम्मोहित बनाये रखने की क्षमता रखती हैं। रोमिला निस्सन्देह समर्थ हैं, परन्तु उस क्षेत्र में नहीं जिसमें बनी रही हैं। उन्हें कहाँई लेखिका होना चाहिये था। मेगा साँय साँय तो नहीं, सन सन अकादमी पीठ पुरस्कार अवश्य मिल जाते। वैसे पदम भी बुरे नहीं!
✍🏻श्रीधर जोशी
आम समझ के हिसाब से देखिये तो भी आराम से नजर आ जायेगा कि जो बॉलीवुड की सबसे सफल फ़िल्में होती हैं उनका धंधा भी हॉलीवुड की फिल्मों से कहीं कम होता है | किताबों के मामले में भी ऐसा ही है | Penguin या फिर Harper Collins जैसे प्रकाशक जो किताब अंग्रेजी में छापेंगे, वो हिंदी की bestsellers के मुकाबले कहीं ज्यादा बिकेगी |
कोई भी अंग्रेजी की भारतीय bestseller (जैसे चेतन भगत, जैसे लेखकों कि किताबें ) लाख प्रतियों से ज्यादा बिक जाती है, जबकि हिंदी तो हिंदी पट्टी में ही इस्तेमाल होती है इसलिए वो 10 हज़ार पर ही कहीं अटक जाएगी | जब हिंदी वाली किताबें दस हज़ार से ज्यादा प्रतियाँ बिकने लगे तो मैं अपनी पत्रिका में साहित्य का पन्ना छापूंगा, ये कहकर India Today कि हिंदी पत्रिका के एक नामचीन संपादक ने इंडिया टुडे से हिंदी साहित्य का पन्ना हटा दिया था |
जब हिन्दुओं और भारत के बारे में लिखने वाले अरुंधती राय, या वेंडी डोनिगर जैसा कोई लेखक लिखता है तो हम इसी चीज़ का सामना कर रहे होते हैं | रोमिला थापर और बिपिन चन्द्रा जैसे इतिहासकारों के मामले में भी इसी चीज़ से सामना होता है |
लगभग सभी भारतियों को इनके लिखे झूठ पर आपत्ति होती है लेकिन ज्यादातर लोग तो ये सोचकर इनके झूठ से हार मान लेते हैं की इनकी जानकारी हमसे ज्यादा है | अब हिन्दुओं में ज्ञानियों को सम्मान देने की परंपरा रही है तो विरोध ही नहीं करते ! जो कुछ लोग विरोध करते हैं वो नए तरीकों से वाकिफ नहीं होते | वो इस समस्या को थोड़े छोटे स्तर पर देख रहे होते हैं | इसलिए वो इसे बरसों के मुस्लिम शासन का नतीजा और इसाई मिशनरियों की साजिश बताने लगते हैं |
इस से ऐसे लेखकों को और फायदा हो जाता है | वो धर्म की आड़ में सत्य को छुपाने लगते हैं | भारत पर तुरंत किताबों और जानकारी पर पाबन्दी लगाने या फिर लेखकों से गाली गलौच करने का इल्जाम आने लगता है |
यहाँ आपको ध्यान देना होगा की पुराने ज़माने में सत्ता Hard Power से जीती जाती थी | यानि की तुरंत ही बल का प्रयोग, सेना का इस्तेमाल होता था | आज उपनिवेश बनाने की शुरुआत Soft power से होती है | जिसे आप प्रचार तंत्र के नाम से जानते हैं |
इस तरह के हमले को मीडिया की भाषा में Cultural Imperialism कहा जाता है | आपका सामना “सांस्कृतिक उपनिवेशवाद” से हो रहा है |
इसमें आपकी संस्कृति को हर तरीके से दोयम दर्जे का बताया जायेगा | आपकी प्रथाओं को, परम्पराओं को रुढ़िवादी, गरीबों मजलूमों का शोषक, नारी विरोधी बताया जायेगा | सबसे पहले इसके लिए शिक्षा के तरीकों को तोडा मरोड़ा जाता है | आज शिक्षा के तरीकों से कोई भी भारतीय संतुष्ट नहीं मिलेगा | कमियां सबको नजर आती हैं | लेकिन जैसे ही आप सुधार की चर्चा भर कर दें, आप पर शिक्षा के भगवाकरण का अभियोग लगा कर आपको तुरंत रोका जायेगा |
इतिहास के पुनर्लेखन की भी सब वकालत करेंगे, लेकिन कोशिश शुरू होने पर इसे इतिहास का भगवाकरण कहा जायेगा | और ये करते Cultural Imperialism के agent आपको हर प्रमुख प्रकाशन में दिखेंगे | मैं शिक्षा के तंत्र और तरीकों में परिवर्तन आमंत्रित करता हूँ |
बाकि विरोधी Cultural Imperialism के अभियोग का जवाब दें |
✍🏻आनन्द कुमार
बहुत से लेख हमको ऐसे प्राप्त होते हैं जिनके लेखक का नाम परिचय लेख के साथ नहीं होता है, ऐसे लेखों को ब्यूरो के नाम से प्रकाशित किया जाता है। यदि आपका लेख हमारी वैबसाइट पर आपने नाम के बिना प्रकाशित किया गया है तो आप हमे लेख पर कमेंट के माध्यम से सूचित कर लेख में अपना नाम लिखवा सकते हैं।