बनवारी
हम पराधीनता के अपने पिछले इतिहास को किस दृष्टि से देखें? इतिहासविद् सदा यह दावा करते हैं कि उसे वस्तुपरक दृष्टि से देखा जाना चाहिए। लेकिन इतिहासकारों ने कभी ऐसा किया नहीं है। क्योंकि ऐसा करना संभव ही नहीं है। हम किसी इतिवृत्त में अपने वर्तमान को ही नहीं समेट सकते, क्योंकि वह जिन अरबों उपकथाओं का अपने-अपने दृष्टिकोण से सरलीकृत वृत्त होता है, वह काल के प्रवाह की बानगी भी नहीं हो सकते, उसकी झलक देना दूर की बात है। इसलिए हमारी परंपरा हमें सिखाती है कि पिछले काल को हम इस दृष्टि से ही देखें कि आगे के काल के लिए हमें अपने कर्तव्य का भान हो सके। महाभारत इसी अर्थ में इतिहास है। आधुनिक ’हिस्ट्री’ लेखन इसी अर्थ में इतिहास नहीं है।
हमें अब तक के अपने इतिहास लेखन की दो अतियों से निश्चित रूप से बचना चाहिए। एक दृष्टि हमारे पिछले इतिहास को पहले मुसलमानों और फिर अंग्रेजों द्वारा देश के बहुसंख्यक हिंदुओं पर किए गए अत्याचारों के रूप में दिखाना चाहती है। दूसरी मुस्लिम काल के अत्याचारों को यह कहते हुए नकारती या अनदेखा करती है कि इससे आज के निर्दोष मुसलमानों के साथ अन्याय होगा और हम उन्हें एक कोने में धकेल रह होंगे। इस दृष्टि के समर्थक अंग्रेजों के समय हुए अत्याचारों को इसलिए नहीं देखना चाहते कि उन्हें यूरोपीय सभ्यता प्रगतिशील दिखाई देती है। वास्तव में इन दोनों दृष्टियों से न हम अपने अतीत को समझ सकते हैं और न उससे अपने वर्तमान और भविष्य को बनाने के लिए कोई शिक्षा हमें मिल सकती है। अपने इतिहास को हमें एक भारतीय के, एक अत्यंत उन्नत भारतीय सभ्यता के उत्तराधिकारी के सहज अभिमान से देखना चाहिए, क्योंकि उसी से हमें अपनी सभ्यता से भटके हुए मार्ग से वापस अपने मार्ग पर लौटने की दृष्टि मिल सकती है।
जब आप इस दृष्टि से अपने पराधीनता के काल का विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि वह अंग्रेजों की लिखी पराजय गाथा से कहीं मेल नहीं खाता। किसी भी समाज और सभ्यता के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह जानना है कि अशान्ति काल में भी, दुर्दिन के समय में भी हम अपनी सभ्यता के आदर्शो के अनुरूप, एक स्वाभिमानी और स्वतंत्रा जाति के अनुरूप व्यवहार कर पाए या नहीं? इस दृष्टि से देखने पर आप पाएंगे कि विपरीत काल के कारण पर्याप्त शौर्य और पराक्रम के बावजूद हारे अपने राजाओं के बाद भी हमारी सभ्यतागत निष्ठाएं, समाज का शौर्य और अभिमान बचा रहा।
हमारे इतिहासकारों द्वारा जितना ध्यान दिल्ली सल्तनत, मुगलकाल और उसके परवर्ती नाम मात्रा के मुगल राज्य, पर दिया गया है। उतना गुर्जर प्रतिहार राजााओं, मराठा, साम्राज्य, विजय नगर राज्य, राजपूत, बंुदेले या जाट राजाओं पर नहीं दिया गया। छोटे-छोटेे स्थानीय राजाओं की तो किसी ने सुध ही नहीं ली। हमारे ऐतिहासिक वृतांत मुख्यतः मुस्लिम राजाओं के दरबारी लेखकों के वृतांतों पर आधारित है। इस पूरे काल में समाज की अन्य संस्थाएं किस तरह अपनी स्वतंत्राता, आस्था और ऊर्जा को बनाए रखे हुए थीं, इसकी ओर न के बराबर ध्यान दिया गया है। यहां तक कि उत्तर भारत की खाप पंचायतों के समृद्ध वृत्तांतों की भी अनदेखी की गई और इन वृत्तंातों को नष्ट हो जाने दिया गया। रजवाड़ों के अपने वृत्तांत अधिकांशतः उपेक्षित हैं। अंग्रेजों की लिखी पराजय गाथा ने अनेक भ्रामक धारणाएं फैलायी। एक कि हम किसी केंद्रीय सत्ता के न होने के कारण हारे। उस समय के संसार की सबसे महत्वपूर्ण केंद्रीय सत्ता चीन में थी। फिर भी वे उत्तरवर्ती कबीलाई योद्धाओं से हार गए थे और लगभग सवा सात सौ वर्ष तक पराधीन रहे।
हमारे पिछले इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण शौर्य गाथा मेवाड़ के गुहिलौत राजवंश की है। यह राजवंश जिन बप्पा रावल से आरंभ हुआ उनकी ही कीर्ति बहुत विस्तार से गाने योग्य है। सिंध पर निरंतर आक्रमण के कारण जब बल्लभी राज्य परास्त हुआ तो उसके अपदस्थ राजा शिलादित्य की पत्नी ने एक गुफा में अपने बच्चे को जन्म दिया था जो एक ब्राहा्रणी द्वारा पाला पोसा गया। उसके वंशजों ने भीलों के बीच राज्य स्थापित किया और उसी की नौंवी पीढ़ी में बप्पा रावल का जन्म हुआ था। बप्पा रावल राजपूत की सेना में नायक थे और अरब आक्रमणकारियों को खदेड़ते हुए उन्होंने गजनी तक विजय प्राप्त की थी। अपनी इस वीरता और सफलता से वे 734 ईस्वी में चित्तौड़ के राजा अभिषिक्त हुए और मेवाड़ राज्य की नींव पड़ी। बप्पा रावल ने पासा पलटते हुए पश्चिम सीमा को सुरक्षित करने के लिए कंधार, खुरासान, तूरान, इस्पाहान और ईरान पर आक्रमण करके उन्हें अपने राज्य का सामंत बनने के लिए विवश किया था। बीस वर्ष राज्य करने के बाद अपने पुत्रा को राज्य सौंपकर उन्होंने संन्यास ले लिया था। वे शिव भक्त थे।
बप्पा रावल जैसा ही पराक्रम उनके वंशज महाराणा संग्राम सिंह में दिखाई देता है। वह इतिहास में राणा सांगा के नाम से प्रसिद्ध हैं। जिन्होंने दिल्ली के शासक इब्राहिम लोदी को कई बार हराया था। एक लड़ाई में उनकी एक आंख और एक बांह चली गई थी, लेकिन इससे उनकी वीरता और उनके युद्ध कौशल पर कोई असर नहीं पड़ा। बाबर के भारत पर आक्रमण के समय वे उत्तर भारत की प्रधान शक्ति थे। अपने तोपखाने के बल पर बाबर उन्हें हराने में सफल अवश्य हुआ था लेकिन उस युद्ध में वह हारते-हारते ही बचा था। उस युद्ध में संग्राम सिंह का साथ देने वालों में हसन खां मेवाती और अफगान महमूद लोदी भी थे। उनकी मृत्यु के 50 वर्ष बाद ही उनके वंशज महाराणा प्रताप ने इस देश की शौर्य गाथाओं में एक नई शौर्य गाथा जोड़ दी थी। अकबर की ओर से लड़ने गए राजा मानसिंह की सेना से हल्दी घाटी के युद्ध में हार कर भी महाराणा प्रताप हारे नहीं थे। चित्तौड़गढ़ जो इस राजवंश के हाथ से पहले ही निकल चुका था। उसे छोड़कर लगभग पूरा मेवाड़ महाराणा प्रताप ने अकबर के रहते हुए ही फिर से विजित कर लिया था। हल्दी घाटी की लड़ाई में महाराणा प्रताप का तोपखाना भी एक अफगान सरदार हाकिम राय सूर के हाथ में था। महाराणा प्रताप के पुत्रा को जहांगीर से संधि करके अपनी प्रजा की सुरक्षा निश्चित करनी पड़ी थी लेकिन उन्होंने यह शर्त मनवाई थी कि मेवाड़ के किसी राजा को मुगल दरबार में आने के लिए विवश नहीं किया जाएगा। अपने वंश की यह आन इस राज परिवार के अंत तक बरकार रखी।
तुगलक वंश की समाप्ति के बाद दिल्ली सल्तनत कमजोर हो गई थी और इसी का लाभ उठाकर बाद में बाबर को भारत में पैर टिकाने की जगह मिली। महाराणा संग्राम सिंह की पराजय के बाद जो मुगल शासन स्थापित हुआ था उसे 1540 में शेरशाह सूरी ने बाबर के पुत्रा हुमायुं को हराकर हस्तगत कर लिया। पांच वर्ष में अफगान शेरशाह सूरी की मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका पुत्रा इस्लाम शाह गद्दी पर बैठा। उस समय रेवाड़ी के एक ब्राहा्रण परिवार में जन्में हेमचद्र ने बारुद के व्यापार के सहारे इस्लाम शाह तक पहुंच बनाई । अपनी राजनैतिक सूझबूझ और वीरता से वह इस्लाम शाह की ओर से पंजाब का शासक बना। इस्लाम शाह की मृत्यु और उसके 12 वर्ष के बेटे की हत्या के बाद आदिलशाह सूरी गद्दी पर बैठा। वह पियक्कड़ और ऐश पसंद बादशाह था। उसने हेमचंद्र को अपना वजीर और सेनानायक घोषित किया। हेमचन्द्र ने आदिलशाह की ओर से अनेक युद्ध लड़े और सभी जीते। वह अपने समय का सबसे कुशल योद्धा था। हुमायूं की मृत्यु के बाद हेमचंद्र को लगा कि दिल्ली में मुगल और मुस्लिम राज्य को समाप्त करके अपना राज्य स्थापित किया जा सकता है। उस समय वह बंगाल में था। वहां से आकर उसने दिल्ली पर आक्रमण किया और दिल्ली को जीतकर 7 अक्टूबर 1556 को दिल्ली के पुराने किले में पंरपरागत हिंदू विधि से उसने अपना राजतिलक करवाया और अपने आप को विक्रमादित्य घोषित कर दिया।
उस समय तक तुर्क और मुगलों को विदेशी और अफगानों को देसी माना जाने लगा था। हेमचंद्र की सेना में बहुतायत अफगानों की थी। उसने अपनी सेना में हिंदू योद्धाओं की तेजी से भर्ती की थी। फिर भी वह मुख्यतः मुस्लिम सेना ही थी। फिर भी उस सेना के बूते पर अपनी वीरता, युद्ध कौशल और सैनिकों के बीच लोकप्रियता के कारण वह एक हिंदू सम्राट के रूप में अपना राज्यभिषेक करवा पाया, यह कम महत्वपूर्ण बात नहीं है। उसका राज्य छप्पन दिन ही चला क्योंकि पानीपत की लड़ाई में एक अधिक कुशल सेना के बावजूद एक दुर्घटना के कारण उसकी पराजय हो गई। बारह वर्ष के युवा अकबर की ओर से उज्बेक बैरम खां ने कमान संभाली हुई थी और वह युद्ध हारने ही वाला था कि एक तीर ने हेमू की आंख को बेधते हुए उसे अचेत कर दिया और दिल्ली में फिर मुगल सत्ता बहाल हो गई। इतिहास में ऐसी दुर्घटनाएं होती रहती है। मुख्य बात यही है कि एक व्यक्ति के अद्वितीय पराक्रम के कारण 16वीं शताब्दी के मध्य में एक मुस्लिम सेना एक हिंदू राजा के लिए उसके नेतृत्व में लड़ी।
मुस्लिम आक्रमणकारियों की एक प्रवृत्ति हिंदू मंदिरों पर आक्रमण करना, देवमूर्ति को खंडित करना, मंदिर की संपत्ति लूटना और पुजारियों की हत्या करना थी। लेकिन जिस जिद से मुस्लिम आक्रमणकारियों ने मंदिर तोड़े उसी जिद से हिंदू राजाओं और श्रेष्ठियों ने उनका पुनर्निमाण करवाया। सोमनाथ, जगन्नाथ पुरी, काशी विश्वनाथ और द्वारिकाधीश मंदिर अनेक बार टूटे और अनेक बार बने। सोमनाथ मंदिर का निर्माण एक बार उज्जैन के राजा भोज ने किया तो काशी विश्वनाथ का इंदौर की महारानी अहिल्याबाई ने। यह मंदिर समाज की आस्था के केंद्र थे, हमारी सभ्यता के केंद्र थे। इसलिए भारतभर के हिंदू राजाओं को अपने दायित्व का भान रहा कि समर्थ होकर उन्हें यह मंदिर फिर से बनवाने हैं। यह भी स्मरण रखना चाहिए कि मुस्लिम आक्रमणकारियों ने ऐसा केवल हमारे यहां नहीं किया। आखिर इस्लाम मक्का की देव पूजा के विरोध में ही खड़ा हुआ था। इसलिए इन सभी घटनाओं को उस समय के काल की प्रवृत्ति के रूप में ही देखा जाना चाहिए।
यह सोचना भी उचित नहीं है कि देश के सभी लोगों ने इस आततायी विदेशी शासन को बिना प्रतिरोध के स्वीकार कर लिया। दिल्ली जो मुस्लिम सत्ता का केंद्र थी, के आसपास लंबे-चौड़े क्षेत्रा में महाराजा हर्ष के समय से ही जो खाप पंचायतें गठित थीं उन्होंने लोगों की स्वतंत्राता की निरंतर रक्षा की। 1670 में कृष्ण जन्मभूमि मंदिर तोड़े जाने से व्यथित होकर ही गोकुल के नेतृत्व में जाट और अन्य जातियां इकट्ठी हुई थी और 18वीं शताब्दी के उत्तर्राद्ध में इन जातियों के बीच के पैदा हुए जाट राज्य के सामने दिल्ली के मुगल राजा असहाय दिखाई देने लगे थे। महाराज सूरजमल की गिनती भारत के ऊंचे पराक्रमी राजाओं में ही की जानी चाहिए। अनेक जगह मुस्लिम शासन राजस्व वसूलने में असमर्थ रहने पर स्थानीय छोटे राजाओं से संधि करने के लिए विवश हुआ था। इसी क्रम में काशी राज्य की स्थापना हुई थी जिसके नरेशों ने अपने पवित्रा आचरण और वीरता के काशी स्थित विश्वनाथ को प्रसन्न किया जगन्नाथ पुरी की सुरक्षा में खुरदा के राज्य की भी ऐसी ही भूमिका रही है।
राजधर्म की रक्षा में सतर्कतापूर्वक लगे रहे इन राजवंशों के साथ क्या हमने न्याय किया? अंग्रेज इतिहासकारों ने हमारी जो पराजय गाथा लिखी है उसमें इन राजाओं की ही नहीं, समाज में पंचायती संगठन की भी नगण्य भूमिका ही देखी गई है। अंगेजी शिक्षा ने हमें अपने इस गौरवपूर्ण इतिहास से बिल्कुल काट दिया है। आज यह हाल है कि राजपूतों को मुगलों से संधि करने के कारण निंदित किया जाता है। जबकि कांग्रेस के जिन नेताओं ने मुस्लिम काल से थोपी गई जिन औपनिवेशिक व्यवस्थाओं को और दृढ़तापूर्वक देश में स्थापित कर दिया, वे हमारे नायक हो गई हैं। आज केवल कांग्रेस ही नहीं पूरा राजनीतिक तंत्रा इस व्यवस्था का पोषक है। जब तक हम अपनी इतिहास दृष्टि की ओर नहीं लौटते, अपनी सभ्यता में नहीं लौट पाएंगे और इन औपनिवेशिक व्यवस्थाओं में बने रहेेंगे।