चित्त – भाव से ही मिलें,
कर्मों के परिणाम।
सात्विकता के भाव से,
कर्म करो निष्काम॥1498॥
व्याख्या:- कर्म और भाव के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध पर प्रकाश डालते हुए श्वेताश्वतर – उपनिषद के ऋषि कहते हैं – ” ‘कर्म’ (Action) शरीर है ‘भाव ‘ (Intention ) उसकी आत्मा है।” उदाहरण के लिए मान लीजिए यज्ञ पर पाँच आदमी बैठे हैं। कोई अगाध श्रद्धा के साथ प्रभु में लीन होकर उसका स्मरण करता है,कोई नाम ले रहा है,मंत्र बोल रहा है किंतु चिंतन दूषित जल रहा है, कोई दाएं-बाएं देख रहा है,कोई आपस में चुप-चुप बातें कर रहा है,कोई फोन कर रहा है,छोटे बच्चों के साथ खेल रहा है। विचार कीजिए क्या सबको यज्ञ का पुण्य फल एक जैसा मिल सकता है कदापि नहीं यज्ञ का पुण्य-फल एक जैसा मिल सकता है ? कदापि नहीं, यज्ञ का पुण्य-फल जैसा जिसका श्रद्धा- भाव था उसके अनुरूप मिलेगा। इसलिए चित्त भाव ही ‘कर्म’ की आत्मा कहलाता है। मनुष्य को चाहिए कि वह अपने ‘कर्म’ में सात्विकता के भाव से करें, निष्काम भाव से करें। गीता में भगवान कृष्ण ने निष्काम-भाव पर बड़ा जोर दिया है। निष्काम – भाव से अभिप्राय है – आसक्ति, ममता, कामना आदि को छोड़कर परमपिता परमात्मा की प्रसन्नता के लिए जो कर्म किए जाते हैं, जिनमें फल की इच्छा का लोप होता है,ऐसे कार्य निष्काम कर्म कहलाते हैं।याद रखो, ‘कर्म’ जीव को तभी तक बांध सकता है,जब तक उसमें भाव या कामना है। काम,क्रोध,लोभ,मोह यही तो भाव है।भावों के वश में आकर जीव अन्धा हो जाता है और जो कुछ नहीं करना चाहता,उसे कर डालता है। इसी से कर्म-चक्र चलता है। भावों से अलग हो जाने पर वह कर्म तो करता है परन्तु क्योंकि उन कर्मों में भाव नहीं होता,इसलिए वे कर्म-बन्धन का कारण नहीं बनते हैं।इसलिए मनुष्य को निष्काम-भाव से कर्म करने का स्वभाव बनाना चाहिए ताकि वह प्रभु-कृपा का पात्र बना रहे और संसार के बन्धनों से मुक्त हो।
क्रमशः
प्रोफेसर विजेंदर सिंह आर्य