आसुर उपनिषद की उत्पत्ति
आसुर उपनिषद की उत्पत्ति
गतांक से आगे…
छान्दोग्य उपनिषद में विस्तारपूर्वक लिखा है कि इन्द्र (आर्य) और विरोचन (अनार्य) दोनों मिलकर किसी के पास ज्ञान सीखने गये। गुरु ने उनकी पात्रता और कुपात्रता की परीक्षा की। इन्द्र संस्कृत आत्मा और विरोचन मलिनआत्मा निकला और ज्ञान के ग्रहण करने में असमर्थ सिद्व हुआ। गुरु ने परीक्षार्थ जितनी बातें उनसे कहीं उनसब बातों को उसने सिद्धांत ही समझा। जरा भी अपनी बुद्धि से काम न लिया। परन्तु इन्द्र ने हर परीक्षा वाक्य की एकान्त में तर्क से पड़ताल की और असत्य ज्ञात होने पर वापस आया है। कई बार इस तरह परीक्षा और तर्क करने से वह सत्य ज्ञान को पहुंच गया।पर विरोचन एक ही बार आकर और जो कुछ उल्टा सीधा सुना था, उसी को सिद्धांत मानकर चुप बैठ गया और उन्हीं संदिग्ध बातों का असुरों में प्रचार करने लगा। यहीं से आसुर उपनिषद का आरंभ हुआ। इस उपनिषद की उत्पत्ति अफ्रीका खण्ड में हुई।क्योंकि असीरिया और इजिप्ट के निवासी असुर कहलाते थे। असीरिया में ही असुर वाणीपाल और असुर नासिरपाल नामी राजा हुए हैं।वे लोग अपने को असुर ही कहते थे। इजिप्टवालों से उनकी रिश्तेदारी भी थी।इजिप्ट अफ्रीका मे ही है। वहां से ही आसुर उपनिषद का सिद्धांत प्रचलित हुआ है।मद्रासी द्रिविड़ो में अफ्रीका निवासी हिट्टाइट जाति का मिश्रण है ही।वह जाती यद्यपि एशिया माइनर की बसने वाली कही जाती है,पर यथार्थ में यह अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया की रहने वाली है। क्योंकि हिट्टाइटों, ऑस्ट्रेलिया निवासियों और द्रविड़ो का रूप, रंग और भाषा आदि सब एक समान ही है। इस तरह से यह आसुरी सिद्धांत अफ्रीका में उत्पन्न होकर मद्रास आये और वहां से भारत में फैले। छान्दोग्य में वर्णित उक्त विरोचन की कथा में लिखा है कि अपने आप को ब्रह्म मानने वाले असुरों की यह पहचान है कि वै मुर्दों को वस्त्र लगाकर के सजाकर गाड्ते हैं और इसी में दोनों लोकों की जय समझते हैं। यह इशारा मिश्र वालों की ममी और पिरामिमें का है।वहीं पर मुर्दों इस तरह रखे जाते हैं और वहीं पर इसमें लोक- परलोक की जय मानी जाती है। इस कथन की पुष्टि में हम यहां छान्दोग्य उपनिषद से यह सारा प्रकरण लिखते हैं और बतलाते हैं कि किस प्रकार आसुर उपनिषद की उत्पत्ति हुई। यह कथा छानदोग्य उपनिषद के आठवें खण्ड में है। वहां –जो पुरुष है, वही आत्मा है। इस पर विश्वास करके दोनों ने दर्पण देखा, तो जिस प्रकार के वे थे वैसे ही दिखे और लौटकर प्रजापति से कहा कि-
तौ होचुर्यथैवेदमावां भगव: साध्वलंकृतौ सुवसनौ परिष्कृतौ स्व एवमेवेमौ भगव: साध्वलंकृतौ परिष्कृतावित्येब आत्मेति होवाचैतदमृतमभयमेतद ब्रह्यति तौ ह शान्तह्रदयौ प्रवव्रजतु:।
(छान्दोग्य 8/8/3)
“जैसा यह शरीर साफ सुथरा पहले था, वैसा ही अब भी दिखते हैं। हे भगवन! जैसे हम दोनों विमल वस्त्रों से अलंकृत हैं, उसी प्रकार हम दोनों दर्पण में विमल और उत्तम वस्त्रों से अलंकृत दिखलाई पड़ेते हैं। तब प्रजापति बोले कि यही आत्मा है, यही अमृत है, यही अक्षय है और यही ब्रह्म है।यह सुनकर वह दोनों शान्तहृदय वहां से चले गये।”
इस प्रकार प्रजापति ने कहा कि –
तौ हान्वीक्ष्य प्रजापतिरूवाचाऽनुपलभ्यात्मानमननुविद्य वज्रतो यतर एतदुपनिषदो भविष्यन्ति देवा वाऽसुरा वा ते पराभष्यंतीति स ह शांतहृदय एवं विरोचनोऽरान जगाम।
तेभ्यो हेतामुपनिषद प्रोवावात्मैवेह महय्य आत्मा परिचय्र्य आत्मानमेवेह महयन्नात्मानं परिचरन्नुभौ लोका ववाप्नोतीमञामुञ्चेति।
(छान्दोग्य 8/8/4)
” यह आत्मा को न पाकर और न जानकर जाते हैं। जो देवता अथवा असुर इस ज्ञानवाले होंगे, वे नष्ट हो जाएंगे। अब वह प्रसिद्ध शान्तहृदय विरोचन असुरों के निकट पहुंचा और उनसे यह उपनिषद् कहने लगा कि, इस लोक में मनुष्य स्वयं ही पूजनीय और सेवनीय है, इसलिए यहां अपने आप को ही पूजता हुआ और सेवन करता हुआ मनुष्य दोनों लोकों को प्राप्त होता है।इस उपदेश के अनुसार लोग अपने आप को ही ईश्वर मानने लगे और दानयज्ञादिकों को बंद कर दिया।”
(छान्दोग्य 8/8/4)
क्रमशः
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन : उगता भारत
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।