लेखिका:- प्रो. कुसुमलता केडिया
भारत के संदर्भ में विभिन्न मुसलमानी लुटेरों और लड़ाकों की जो कहानियां अंग्रेजों के समय से फैलाई गईं और बाद में कांग्रेस शासन में अधिकृत इतिहास की तरह पढ़ाई गईं,उनके विषय में स्रोतों की प्रामाणिकता का प्रश्न सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और उस पर विचार किये बिना कुछ भी लिखते चले जाने को किसी बदनीयती से गढ़ी गई गप्प या मूढ़तापूर्ण अज्ञान तो कहा जायेगा, इतिहास कदापि नहीं।
सभ्यताओं के इतिहास (हिस्ट्री आफ सिविलाइजेशन) पर विल दुरें ने 11 खंडों में अपनी पत्नी इडा (एरियल) के साथ जो कुछ लिखा है,उसे भारत के बहुत से वर्तमान लेखक एक प्रामाणिक ग्रंथ की तरह लेते हैं और उसमें भारत के विषय में जो कुछ लिखा है विशेषकर भारत पर कथित मुस्लिम आक्रमण के विषय में जो कुछ लिखा है,उसे प्रामाणिक मानते हैं। परंतु ऐसा मानना तो निपट अज्ञान में ही संभव है। सदा पहले मूल स्रोतों का परीक्षण करना चाहिये और किया जाता है,उसके बिना इतिहास के विषय में कोई भी कथन करना विद्वत्तापूर्ण नहीं माना जाता।
फ्रेंच पिता और कनाडियन माता से उत्पन्न अमेरिका के कैथोलिक ईसाई विद्वान विलियम जेम्स ने लेखन के लिये अपना उपनाम विल दुरें रख लिया। जेसुइट पादरियों ने उसे पढ़ाया और न्यूजर्सी में वह एक पादरी बन गया। बाद में वह समाजवाद की ओर झुका परंतु प्रथम महायुद्ध के बाद वह अपने समय की राजनैतिक गतिविधियों को सत्ता पिपासा मात्र समझ कर उनसे उदासीन हो गया और वह जीवन और जगत को अधिक गहराई से देखने का प्रयास करने लगा। वह दार्शनिक स्पिनोजा से प्रभावित हुआ और पत्रकारिता भी करने लगा। ईसाई होने के कारण सेक्स को मूल पाप मानकर उससे जुड़े अपराध का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने वाले उसने अनेक लेख लिखे। बाद में वह फेरर माडर्न स्कूल का प्रधान अध्यापक हो गया जहां औद्योगिक कर्मचारियों को उनके काम की शिक्षा दी जाती थी। बाद में उस स्कूल की ओर से उसे यूरोप के दौरे पर भेजा गया। प्रधान अध्यापक रहते समय उसे छाया (इड़ा) काफमान नामक पन्द्रह साल की किशोरी के प्रति प्रेम हो गया और दोनों ने विवाह कर लिया। दोनों की एक बेटी हुई और विलियम की दूसरी पत्नी से एक बेटा भी हुआ।
प्रथम महायुद्ध के बाद उसे समाजवादी विचारों और सर्वहारा की क्रांति के राजनैतिक विचारों से अरूचि और जुगुप्सा हो गई तथा वह संस्कृतियों का अध्ययन करने लगा। उसने अध्यापकी छोड़ दी और भाषण शुल्क लेकर प्रेस्बिटेरियन चर्च में प्रवचन देने लगा। हर प्रवचन के उसे पांच से सात डॉलर तक मिलते थे और किसी किसी चर्च में कभी-कभी दस डॉलर तक मिल जाते थे। वहां वह तब तक पढ़ी हुई सामग्री को सभ्यता की कहानी के रूप में पेश करता था। बाद में इन्हीं कहानियों को विकसित और संपादित करके उक्त पुस्तक के ग्यारह खंड प्रकाशित हुए। स्पष्ट है कि तब तक भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारियों तथा कतिपय ईसाई पादरियों ने जो कुछ लिखा था, उस मनगढ़त कहानी को ही उसने भारत के विषय में अपने कथन का आधार बनाया। उसे न तो संस्कृत आती थी और न ही उसने कुरान आदि पढ़े थे, न महाभारत पढ़ा था और न ही भारत के किसी भी राजवंश के अभिलेखागार की सुरक्षित पांडुलिपियों को देख पाया था।
ऐसी स्थिति में उसकी लिखी चीजों को उसे तब तक प्राप्त जानकारी के रूप में रोचक वस्तु की तरह तो देखा जा सकता है परंतु भारत के इतिहास के विषय में उसे प्रमाण मानना मूढ़ता के अतिरिक्त और कुछ नही। इसी प्रकार ईलियट और डॉउसन की जो 8 खंडों में भारत के इतिहास पर विशेषकर मुसलमानों के द्वारा बताये गये इतिहास पर पुस्तकें छपी हैं, वे इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं कि उसमें उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि हमें भारत के विषय में विशेषकर भारत पर मुस्लिम शासन के विषय में कोई भी सामग्री भारत में प्राप्त नहीं हुई। ऐसे में हमें तुर्की में एक सुलेमान नामक सौदागर द्वारा कही गई कहानियों के बारे में सुनने को मिला और इन सुनी हुई कहानियों को ही हम महमूद गजनवी तथा अन्य मुसलमानों के द्वारा भारत में की गई लूटपाट को व्यवस्थित कहानी की तरह प्रस्तुत कर रहे हैं।
यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वयं ईलियट यह बताते हैं कि सुलेमान एक सौदागर था जो 9वीं शताब्दी ईस्वी में कभी भारत घूमने गया था। उसने कुछ किस्से लिखे थे। बाद में उन किस्सों को सुलेमान के एक साथी सौदागर ने और बढ़़ाकर सुनाया। यह साथी सौदागर कभी भी भारत नहीं गया था। उसने जो कुछ सुना था, उसमें ही कुछ और जोड़ दिया। 10वीं शताब्दी ईस्वी में मसूदी नामक व्यक्ति की भेंट बसरा में उस साथी सौदागर अबू जैद से हुई। उससे जो कुछ मसूदी ने सुना, वह किस्से के रूप में फैलता रहा जिसे 19वीं शताब्दी ईस्वी में एम. लैंगल्स ने प्रकाशित किया, ऐसा 1844 ईस्वी में एम रेनॉड ने बताया।
अब यह आधार है ऐसे किस्सों का जो स्वयं इन अंग्रेजों तथा अन्य यूरोपीय ईसाईयों की तथा लुटेरों, डकैतों, नाविकों और घुमक्कड़ों की गप्पें नहीं हैं, यह कह सकना संभव नहीं है। क्योंकि ये बातें सचमुच कभी कहीं कही गईं या सुनी गईं अथवा इन पादरियों के द्वारा अपने प्रयोजन से गढ़ी गईं, यह जांचने का कोई तरीका उपलब्ध नहीं है परंतु इन गप्पों को इतिहास कह पाना किसी भी कसौटी पर संभव नहीं है। यह स्पष्ट है।
स्वयं ईलियट और डॉउसन का यह कहना है कि जैकोबाईट पादरियों ने ईसाईयत के विश्वव्यापी फैलाव के लिये यह तय किया था कि वे लोगों से उनकी कहानियां सुनेंगे और उनकी पुरानी किताबों को सुनकर समझेंगे और उन बातों को अपनी बुद्धि से संशोधित और संपादित कर ईसाई विश्व के समक्ष इस तरह प्रस्तुत करेंगे जिससे कि वे बातें उन्हें समझ में आ सकें। ध्यान रहे, ये पादरी न तो अरबी के विद्वान थे, न फारसी के, न संस्कृत के, न जापानी भाषा के, न तमिल या सिंहली भाषा के, न वृहत्तर भारत की किसी भाषा के।
इन यूरोपीय घुमक्कड़ों और तथाकथित विद्वानों के ज्ञान का यह स्तर था कि स्वयं जॉन की ने यह लिखा है कि 19वीं शताब्दी ईस्वी तक अधिकांष तथाकथित भारतविदों को यह तक ज्ञात नहीं था कि भगवान बुद्ध भारतीय हैं या इथियोपियाई और राजा हैं कि योद्धा या फकीर। इसी प्रकार इन्हें यह नहीं पता था कि देवानां पियदस्सी अशोक लंका का था या ग्रीस का था या कहीं और का था। बुद्ध और अशोक भारत के हैं यह इन्हें स्वीकार नहीं हो रहा था। जिस विद्वत्ता की 19वीं शताब्दी ईस्वी तक यह हैसियत है और यह स्तर है, वे भारत में मुस्लिम आक्रमणों और मुस्लिम इतिहास के विषय में प्रामाणिक रूप में भला क्या लिख सकते हैं? और उन्हें स्वाधीन भारत में भारत के इतिहास की तरह पढ़ाना कैसी निपट मूढ़ता है?
महमूद गजनवी द्वारा सोमनाथ के पवित्र मंदिर के ध्वंस की निराधार कहानी भी आज तो विश्वविदित है परंतु भारत में उस गप्प को लगातार पढ़ाया जा रहा है। पहले तो यह झूठ कहा गया कि अलबरूनी ने सोमनाथ मंदिर के विध्वंस का कोई उल्लेख किया है। फिर जब यह प्रमाणित हो गया कि अलबरूनी तो भारत का भक्त था और वह यहां संस्कृत के पंडितों से ज्ञान सीखने आया था तब से इधर-उधर के काल्पनिक विवरण दिये जाने लगे। परंतु अब यह प्रामाणिक रूप से सामने आ गया है कि 1038 ईस्वी में सोमनाथ मंदिर में तीर्थयात्रियों की विशाल संख्या के आने का प्रमाण है और उसमें कोई मंदिर तोड़े जाने का किसी प्रकार का उल्लेख किसी भारतीय संदर्भ में नहीं है जबकि सोमनाथ मंदिर को तोड़े जाने की तथाकथित घटना 1025 ईस्वी की बताई जाती है। जब से ये अभिलेख मिलें हैं तब से मंदिर ध्वंस की गप्प गढ़ने वाले लोग यह कहने लगे हैं कि शायद उसने मंदिर के किसी भाग को थोड़ी सी क्षति पहुंचाने में थोड़ी सी सफलता पाई थी। हास्यास्पद स्थिति यह है कि अब 20वीं शताब्दी ईस्वी में अंग्रेजी प्रचार से अभिभूत होकर लिखे गये उपन्यासों और नाटकों को ईसा पूर्व की शताब्दियों के लिये और 10वीं 11वीं शताब्दी ईस्वी के इतिहास के लिये (अलेक्जेंडर, चाणक्य-चन्द्रगुप्त से लेकर गजनी-गोरी तक के लिये) प्रमाण बताया जा रहा है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रतापी महाराज गजसिंह जी की आउटपोस्ट रही गजनी में किसी लुटेरे ने किसी समय क्या उत्पात मचाया, इसके किस्सों को गढ़ कर इतिहास की तरह प्रस्तुत किया जाता है। वह गजनी क्या कोई देश था या है? क्या किसी देश की राजधानी थी? उसकी सीमायें क्या थीं?, उसकी जनसंख्या क्या थी?, उसकी भाषा, उसका साहित्य आदि क्या था?, उसके पुरातात्विक अवशेष क्या थे? उसके अपने ग्रंथ क्या थे और वे कहां हैं, जिनके आधार पर यह इतिहास लिखने का दावा किया जा सकता है? उसका कोषागार कितना विशाल था और उसमें कितना धन था?, भारत से जो धन लूट कर ले जाया बताया जाता है, वह कहां रखा गया? जो हाथी, घोड़े, ऊंट और रत्न जेवरात ले जाये गये तथा जो स्त्रियाँ और युवतियाँ विशाल संख्या में ले जाई गई बताई जाती हैं वे किन रास्तों से कैसे ले जाई गयीं और गजनी में कहां रखी गईं? उस गजनी की सीमायें क्या थीं? क्या वह सीमा अचानक महमूद गजनवी के समय बनी, फैली और फिर उसके जाते ही समाप्त हो गई? लूट के जो विशाल खजाने और वजनी वस्तुयें बताई जाती हैं, वे कितने ऊटों पर लादकर उन ऊँची पहाड़ियों और दुर्गम रास्तों से ले जाईं गईं? क्या वैसा करना आज भी संभव है। इन सब विवरणों की जाँच के बिना कोई इतिहास कैसे लिखा जा सकता है? जिसका पिता एक मामूली सिपहसलार था उसने कितने वर्षों के भीतर ऐसा विशाल साम्राज्य बना लिया और फिर अचानक वह साम्राज्य तथा उसके सभी अवशेष कैसे समाप्त हो गये, इन सब पर विचार किये बिना जो कुछ लिखा जाता है वह बेहूदों के प्रलाप के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
1947 ई. के बाद भारत के शासक बने लोगों की आत्महीनता का स्तर यह है कि वे कम्युनिस्ट लेखक इरफान हवीब के पूज्य कम्युनिस्ट पिता मोहम्मद हवीब को इस्लाम के इतिहास के विषय में केवल इस आधार पर प्रमाण मान लेते हैं कि वे मुसलमान थे। जबकि मोहम्मद हवीब जी ने गजनी-गोरी आदि के समकालीन किसी भी साक्ष्य का न तो कभी अवलोकन किया न उन्हें मूल रूप में उद्धृत किया है।
यही स्थिति तथाकथित बाबरनामा और जहांगीरनामां आदि गप्पों की है। 1857 ईस्वी तक दिल्ली में मुसलमानों की जागीर होने की बात तथ्य है। तब फिर बाबरनामा या जहांगीरनामां कुछ भी अपने मूल चुगताई भाषा में दिल्ली में क्यों नहीं उपलब्ध मिले और वे अचानक बीसवीं शताब्दी ईस्वी में अंग्रेजों को ही क्यों मिले? सभी जानते हैं कि बाबरनामा के नाम से ही अनेक प्रतियां मिलने का दावा किया जाता है जो परस्पर भिन्न भिन्न हैं और जहांगीरनामा के नाम से भी और इन दोनों पुस्तकों के मूल नाम बाबरनामा या जहांगीरनांमा नहीं थे, तब फिर वे इन नामों से क्यों प्रसिद्ध किये गये।
अचानक 1913 ईस्वी में पहली बार बाबरनामा की चार प्रतियों को नीलामी के लिये दिल्ली में अंग्रेजों ने जो रखा, वह वे मध्य एशिया से कहीं से लाये थे। मुगल दरबार में वे प्रतियां क्यों नहीं सुरक्षित थीं?
विक्टोरिया संग्रहालय और अलबर्ट संग्रहालय लंदन में इन्हें सुरक्षित रखने के पहले किसी भी मुस्लिम देश में या मुस्लिम नवाबों के यहां ये प्रतियां क्यों नहीं मिलीं? ये महत्वपूर्ण प्रश्न है। संसार में कहीं भी इन नामों वाली मूल पुस्तक क्यों नहीं उपलब्ध है और अंग्रेजों को ही ये मूल प्रतियां कहां से मिल गईं।
इन सब प्रश्नों की गहरी छानबीन के बिना भारत में मुसलमानों की जीत और हार तथा शासन और लड़ाईयों का कोई भी विवरण प्रामाणिक नहीं हो सकता। अलेक्जेंडर डॉउ ने और जेम्स टॉड ने तो इन भारतीय राजाओं की मदद से और इनके अनुरोध पर राजाओं द्वारा इन्हें सुलभ करा दिए गये कथाकारों की मदद से जो कुछ सुना और लिखा, उसका उल्लेख तो उन्होंने किया था परंतु मुसलमानों के आक्रमण और जीत की कहानी रचने वाले ईलियट या डाउसन या विल दुरें आदि ने किन्हीं मूल स्रोतों का उल्लेख नहीं किया है। बिना मूल स्रोतों के विषय में प्रमाणिक जानकारी दिए उस अवधि के इतिहास की एक पंक्ति भी नहीं लिखी जा सकती। यह तो भारत के शासक-शिक्षाविद भुला ही देते है कि भारत के किसी ग्रामीण या किसी देसी राजकीय कर्मचारी से उनकी भाषा को ठीक से जाने बिना, सुन-सुनकर, इन लोगों ने यह अटकल-पच्चू कथाएं लिखी हैं, यह इन लोगों ने यानी डाउ और टाड ने स्वयं स्वीकार किया है।
✍🏻कुसुमलता केडिया
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