Categories
इतिहास के पन्नों से

शिवाजी के स्वराज्य की विशेषताएं

नेतृत्व क्षमता और शासन व्यवस्था पर राज्यसभा सदस्य अनिल माधव दवे द्वारा लिखी गई पुस्तक शिवाजी व सुराज में मराठा योद्धा छत्रपति शिवाजी को एक कुशल राजनीतिज्ञ, एक कूटनीतिज्ञ और एक प्रकाशक के रूप में दिखाया गया है। पुस्तक में तत्कालीन प्रशासन से आज की शासन व्यवस्था का और उस समय के विभागों की तुलना वर्तमान समय में सरकार के विभिन्न मंत्रालयों से की गई है। इस पुस्तक को जब आप पढ़ेंगे तो आपको इसमें कहीं भी युद्ध या द्वंद्व का वर्णन नहीं मिलेगा। इसमें केवल कुशल शासन व्यवस्था चलाने और लोगों के कल्याण पर जोर दिया गया है। पाठकों को पुस्तक में शिवाजी के दर्शन, चरित्र और कार्य के साथ ही गांधी का स्वदेशी, भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम, फ्रांस की क्रांति, अमेरिका का स्वतंत्रता संग्राम, सभी समाज में घुमड़ती ‘स्वÓ के भाव की अभिव्यक्तियां मिलेगी, जिसका जन्म किसी नायक से या नायक के बगैर हुआ। साथ ही बीच-बीच में आज की सरकारों व नेताओं के विषयों पर भी चर्चा की है। जैसे वाजपेयी सरकार और कर्नाटक, मध्य प्रदेश शासनों के सुकार्यों की चर्चा हो या बीच-बीच में कांग्रेस की सरकार के विविध प्रसंग भी आते रहते हैं। वर्तमान भारत में सुशासन की स्थापना के लिए किन बातों पर ध्यान देना चाहिए, शिवाजी के माध्यम से इसकी भी विस्तृत चर्चा इस में की गई है। नरेंद्र मोदी की लिखी प्रस्तावना से यह बिंदु विशेषकर रेखांकित हो जाता है। उसे पढ़कर स्वयं मोदी का नेतृत्व-दर्शन भी झलक उठता है, जो पाठक के लिए एक बोनस की तरह है। प्रस्तुत है इस पुस्तक का एक छोटा सा अंश जो आपको इसकी गहराई से परिचित कराएगा।
हर व्यक्ति की प्रतिमा जीवन भर हर पल उसके द्वारा किए जाने वाले कार्यों व निर्णयों से बनती और बिगड़ती रहती है, किन्तु लोगों के मन में यह परिवर्तन धीरे-धीरे होता है। व्यक्ति की मृत्यु होने पर वह प्रतिमा जन के मन में समा जाती है। व्यक्ति द्वारा अपनी प्रतिमा निर्माण में किए गये परिश्रम व उनके द्वारा चुने गये सही-गलत मार्ग के कारण कितने समय तक व किस रूप में लोगों के मन-मस्तिष्क में जीवित रहेगा, यह निश्चित होता है। मृत्यु के सम्भवत: एक पखवाड़े बाद व्यक्ति शनै: शनै: लोगों के मन में विस्मृत होने लगता है। श्रेष्ठ नायक सदियों तक जनस्मृति व इतिहास में बने रहते हैं। इन दो के अतिरिक्त भारत के सनातन दर्शन में एक तीसरा प्रकार उन लोगों का है, जो लोकैषणा के ऊपर उठकर जीवन भर मौन साधक बन कार्य करते हैं और चुपचाप एक दिन अनंत की यात्रा पर चले जाते हैं। यह अत्यन्त ही उन्नत अवस्था है, जिसका विचार हम यहाँ नहीं कर रहे हैं।
प्रतिमा निर्माण में अवाश्यक तत्व नायक की सोच, समझ, संस्कार व उसके द्वारा रचा संसार होता है। देश व प्रदेश की सरकार का कोई मंत्री हो या प्रशासनिक अधिकारी अथवा सार्वजनिक जीवन में काम करने वाला समाज-सेवी, अगर उसकी प्रतिमा खोखली और रंगहीन है तो उसे कोई भी अपने मन-मस्तिष्क में कुछ माह से अधिक नहीं रख पाएगा। यही कारण है कि लोग अपने जन-प्रतिनिधियों या शासन के मंत्रियों को अल्प काल में ही भूल जाते हैं, जबकि कुछ राजनेता, समाजसेवी अथवा धर्म-प्रवर्तक लंबे समय तक अपनी प्रतिमा को जन की स्मृति में बनाए रखने में सफ ल होते हैं।
प्रतिमा की दूसरों के मन में छाप व दूर देशों में रहने वाले लोगों पर हुए प्रभावों को समझकर यह पता लगाया जा सकता है कि व्यक्ति विशेष के लिए उस समकालीन समय में क्या धारणा प्रचलित थी? लोगों के मन में उसकी प्रतिमा कैसी थी? शिवा जी को हजारों मील दूर बैठे ईरान, पुर्तगाल, यूरोप तथा अन्य देशों के राजा व विद्वान् क्या समझते थे? उन्हें किस दृष्टि से देखते थे? इसे जानकर हम शिवाजी के आभा क्षेत्र को आंशिक रूप में समझ सकते हैं। उदाहरण के लिए:-
1. ईरान के युवा बादशाह अब्बास ने शिवाजी की कीर्ति सुन मुगल बादशाह औरंगजेब को संदेश भिजवाकर सावधान किया। चिन्ता व्यक्त करते हुए उसने शिवाजी से मुगल राज्य को बचाने के लिए सभी आवश्यक प्रयत्न करने का आग्रह किया।
2. पुर्तगाली वाइसरायकाल द सेंट व्हिसेंट ने शिवा जी की तुलना सिकंदर और सीजर से की। उसने कहा कि मैं भारत आने से पहले यूरोप में ही शिवाजी की कीर्ति सुन ली थी।
3. ग्रांट उफ लिखता है-”शिवाजी द्वारा जीती हुई भूमि और संपत्ति का मुगलों पर विशेष प्रभाव नहीं हुआ किन्तु उन्होंने महाराष्ट्र के लोगों के मन में जो प्रेरणा जगाई, वह मुगलों पर भारी पड़ी।
4. पुर्तगाली लेखक कास्मा द गार्द लम्बे समय तक मडगाँव में रहा। उसने सन् 1695 में पुर्तगाली भाषा में शिवाजी का चरित्र लिखा जो बाद में लिस्बन में प्रकाशित हुआ। इसमें वह लिखता है- शिवाजी केवल काम करने में ही तेज नहीं था, बल्कि उसका शरीर कसा हुआ था। चेहरा आकर्षण तथा व्यक्तित्व प्रभावी था। विशेष रूप से उसके काले नयन इतने भेदक थे कि जब वह देखता था तो मानो आखों से चिनगारियाँ निकल रही हों। उसकी आँखें उसकी बौद्धिक ऊचाँइयों का परिणाम देती थीं।
प्रतिमा निर्माण में अर्थात् नायक के बनने में उसकें द्वारा स्वीकार किए गये मूल्यों और मन्यताओं का बड़ा महत्व है। उसकी सारी चिन्तन प्रक्रिया व कार्य करने की शैली इन्हीं मूल्यों पर टिकी होती है, जो विकास-क्रम में धीरे-धीरे उसके मन-मस्तिष्क में धारणा का रूप ले लेती हैं। उसके आसपास निरन्तर घटनें वाली घटनाएँ असकी मान्यताओं को मजबूत व कमजोर बनाती हैं। स्वतंत्र आकार लेकर जब वह कार्य करने लगता है तो यही मूल्य और मान्यताएँ, जिन पर उसके विचार टिके होते हैं। वे कार्य में परिवर्तित होने लगते हैं। उदाहरण के लिए, मेरे एक परिचित राजनेता की ये मान्यता थी और है कि भारत में फैली नक्सलवादी हिंसा का आधार वैचारिक नहीं बल्कि आर्थिक है। उनके सहयोगियों ने बताया कि वह सत्य नहीं है। अगर अर्थ का अभाव व भूख ही कारण है तो भारत की 40 प्रतिशत जनता को हिंसा का मार्ग अपना लेना चाहिए, जिनका पेट दिन में एक बार भी ठीक से नहीं भरता और जिनके बच्चे भी कुपोषण के शिकार हैं। बहुत खोजने पर पता चला कि महोदय में बसी इस मान्यता का कारण उनके राजनीतिक गुरू हैं, जिनके विचार भी वैसे ही थे। समय समय पर गुरू शिष्य के बीच सामान्य बातचीत व चर्चाओं के माध्यम से यह धारणा महोदय में प्रविष्ट हो गई होगी।
वैसे ही दूसरी ओर योग्य धारणा सुशासन में सफ ल योजना का आधार बनती है। गुजरात के अधिकांश भू-भाग पर रहने वाला जनवर्षा आधारित जीवन व्यतीत करता है। उसमें भी कच्छ का पूरा भाग, सौराष्ट्र एवं गुजरात का बड़ा हिस्सा अल्प वर्षा के कई वर्ष देखे। परिस्थिति से निपटने के लिए श्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने जल अभाव से स्थायी मुक्ति हेतु एक अभिनव योजना बनाई। योजना के क्रियान्वयन में समाज को आगे रखा और सरकार केवल सहायक व सहयोगी की भूमिका में रही। सन् 2011 आते आते प्रदेश में 1,44,000 छोटे-छोटे चैक डैम 1,22,000 बोरी बंधान 2,49,100 खेत तालाब रचनाएँ खड़ी हो गईं। सब मिलाकर 6 लाख से अधिक भूजल संवद्र्धन व संग्रह की इकाइयाँ बना दी गईं। उनमें से 42.78 प्रतिशत चैक डैम तो केवल कच्छ और सौराष्ट्र में ही बने। छोटे छोटे बांधों के माध्यम से 22 नदियों के पानी को 206 स्थानों पर रोका गया। सरल भाषा में समझने के लिए मान लिया जाए कि सौ मिलियन पानी के भंडार, जिसमें प्रत्येक की जल ग्रहण क्षमता 10,000 लीटर हो उनका निर्माण किया गया। नर्मदा नदी पर बने सरदार सरोवर बाँध के माध्यम से जल अभाव वाले 10600 गाँव व 103 शहरों में पेय जल उपलब्ध कराया गया। जहाँ कल तक पीने का पानी टैंकरों से पहुँचाया जाता था, वहाँ अब हर घर में नलों से पानी पहुँच रहा है।
संगृहीत भण्डारों का सदुपयोग हो व दुर्जन उसका दुरूपयोग न कर सकें, इस हेतु गाँवों में जल उपभोक्ता संगठन बनाए गये। वे इन इकाईयों की देख रेख व उपभोक्ताओं से आवश्यक शुल्क वसूलने का कार्य करते हैं।
गुजरात के 1500 किलोमीटर से अधिक लम्बा समुद्री किनारे का खारा पानी भू-जल स्तर घटने के कारण जमीन की निचली सतह में बढऩे लगा था। इस कारण औसतन 6 किलोमीटर का भूमिगत जल खारा हो चुका था। इस हेतु विशेष योजना के माध्यम से पूरे क्षेत्रा में मीठे जल का संचय बढ़ाया गया। परिणाम स्वरूप खारा पानी फिर मीठा होने लगा। अत: कल तक प्रदेश में भूमिगत जल का स्तर जो 3 से 5 मीटर प्रतिवर्ष घट रहा था, वह केवल न रूक गया, बल्कि आज उसी गति से प्रति वर्ष बढ़ रहा है। केंद्र के जल संसाधन मंत्रालय व गुजरात सरकार से प्राप्त आँकड़ों के अनुसार 189 तहसीलों के भूजल स्तर में औसतन 4.31 मीटर की बढ़ोतरी हुई है, जो अधिकतम 19.57 मीटर तक पहुँची हैं। गाँव गोचर पादम, सीम, वनक्षेत्रा व नगरीय क्षेत्रों में बनी कुल जल संग्रह योजनाओं को सरल ढंग से समझने के लिए कहा जाए तो गुजरात के कुल 18618 गाँव व नगरों में प्रति बस्ती औसतन 32 जल ग्रहण रचनाएँ बनी हैं, जिनका औसत प्रति तालाब 100 व्यक्ति आता है। गुजरात के कुल भू-भाग के संदर्भ में लिखा जाए जो वह 3 तालाब प्रति वर्ग किलोमीटर है।
अच्छा योजक विपरीत परिस्थितियों को सुअवसर में बदल देता है। इसीलिए चाणक्य का मत था कि अमावस्या का दिन व रात मुहूर्त देखकर कार्य करने वालो और कर्मकंाड को मानने वालों के लिए अशुभ हो सकता है, किन्तु किसी राजा और सेनापति के लिए दुश्मन पर हमला करने की वह सबसे शुभ घड़ी है। शिवा जी ने चाणक्य की इन मान्यता को स्वीकार कर उसे क्रियारूप दिया। उनके द्वारा किए गए आक्रमणों व मुहिमों में से अधिकांश का समय या तो अमावस्या की रात्रि का था अथवा उससे एक दो दिन आगे पीछे का। युद्ध व हमले में विजय ही शुभ है और पराजय अशुभ। अत: मूल्य और मान्यताएँ ही सफल शासन व उसके विभिन्न कार्यों का आधार बनते हैं। शिवाजी ने अपनी कार्यशैली से दो मान्यताएँ सृजित कीं- 1. शासन करने के लिए होता है, छोडऩे के लिए नहीं। 2. युद्ध जीतने के लिए होता है, लडऩे के लिए नहीं।
हर नायक के व्यक्तिगत व पारिवारिक जीवन में मिले अनुभव उसके मूल्यों और मान्यताओं के संसार को खड़ा करने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं, जो उसके द्वारा साथी व समाज के साथ व्यवहार करने का कारण बनती है। व्यक्ति के विकसित होकर सफल नायक बनने की यात्रा के चार पायदान हो सकते हैं, जो क्रमश: आरंभ, आकलन, आस्था और अभय शीर्षकों के अन्र्तगत आगे प्रस्तुत हैं। नायक इन गुणों को स्वयं में कैसे विकसित करे, इसके लिए भी शिवाजी एक आदर्श उदाहरण हैं। शिवाजी ने अपने अंदर ये गुण कैसे बसाएं और बढ़ाए, सभी नायक उन्हें अपने-अपने संदर्भ में समझें और स्वयं में उसका विकास करें, यह प्रार्थना है।

Comment:Cancel reply

Exit mobile version