भारत में सावन
सुरेन्द्र नाथ गुप्ता
भारत में सावन और बरसात एक दूसरे के पर्याय हो गये हैं और यहाँ के सामाजिक जीवन के मनोभावों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गये हैं। बरसात तो सारे विश्व में होती है परंतु सावन केवल भारत में ही आता है। संसार में कहीं तो नाम मात्र ही बरसात होती है, कहीं ये बारह महीने होती है, कहीं सर्दी के मौसम में होती है तो कहीं होती है बर्फ की बरसात। क्या इन स्थानो पर आपको ये उल्हाना सुनने को मिल सकता है कि तेरी दो टकिया क़ी नौकरी, मेरा लाखों का सावन जाये
सच ! भारत कि बरसात की तो बात ही कुछ निराली है। भीषण गर्मी के बाद आने वाली वर्षा का एक अपना ही आनंद है। जेठ और आसाढ़ की चिलचिलाती धूप, तपती धरती, जलता आकाश, थपेड़े मारती लू, सारी प्रकृति पानी के लिये व्याकुल हो उठती है, स्वयं नदियाँ तक प्यासी हो जाती हैं। मानव ही क्या, समस्त जीव-जन्तु, नभचर, थलचर और जलचर सभी तो आकाश की ओर निहारने लगते हैं। तभी अचानक आकाश मे चारों ओर से उमड़-घुमड़ कर छा जाती हैं काली-काली घनघोर घटाएं – मानो पूर्व सूचना देती हैं कि आने वाला है वो काला कन्हैया, कंस कि काल कोठरी में, भादो क़ी कृष्णाष्टमी क़ी काली अंधियारी रात में। इन घटाओं से टपकती हैं अमृत क़ी बूंदें, धरती क़ी बुझती है प्यास, मिट्टी से उठती है सोंधी-सोंधी सुगंध, अमराइओं से फैलती है भीनी-भीनी गंध, जंगल में नाचते हैं मोर। चारों ओर हरियाली ही हरियाली। प्रकृति नवयौवना क़ी तरह श्रंगार करके खड़ी हो जाती है। छोटे-छोटे नदी-नाले और रजवाहे तक इतरा के चलने लगते हैं। सर, वापी, तड़ाक, उपवन् वाटिका सभी मानो अपनी-अपनी मर्यादा तोडऩे को आतुर होने लगते हैं। खेतों में गावों की भोली भाली युवतीयों के रंग-बिरंगे आंचल लहराने लगतें हैं, । परदेसी पिया की याद दिलों को करने लगती है बेचैन और चाँद को छिपा कर अपनी हथेलियों में सावन बन जाता है चकोर की विरह वेदना। बहने लगती है जवां दिलों को होले-होले गुदगुदाने वाली पुरवैया की मादक बयार। लड़कियां हाथों में रचाती हैं मेहन्दी, पेड़ों में पड़ जाते है झूले, पींग बढ़ाती बालाओं के कंठों से निकलती हैं सावन की मधुर मल्हार की तान। ब्रज में होता है रास, गाये जाते हैं रसिया, बांके-बिहारी जी और राधा वल्लभ जी के सजते हें फूल-बंगले, इतराते हुये मचलते हैं इत्र में डूबे हुये फौव्वारे।
युगों-युगों से समंदर में छपाछप करता, बरस दर बरस, यूं ही भारत में, और केवल भारत में आता है धड़ धड़ाता हुआ वह घुम्मक्कड़ सावन।