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आओ कुछ जाने

क्रोध विष है तो क्षमा अमृत है

डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’

गुरुकुल में आचार्य शिष्यों को ज्ञान दे रहे थे, तभी एक जिज्ञासु शिष्य खड़ा हुआ और बोला— गुरुदेव, पृथ्वी पर सबसे भयंकर विष क्या है और सर्वसुलभ अमृत क्या है?

गुरुदेव ने उत्तर दिया-वत्स, पृथ्वी पर सबसे भयंकर विष है क्रोध और सर्वसुलभ अमृत है क्षमा, किन्तुज् गुरुदेव गंभीर हो गए। शिष्य ने ही फिर पूछा-गुरुदेव, किन्तुज् क्या? गुरुदेव बोले—इस क्षमा अमृत को प्राप्त करने के लिए क्षमता और सबसे बढक़र अजेय सहिष्णुता की आवश्यकता होती है वत्स। ‘क्षमा’ वस्तुत: वीरों का आभूषण होती है, इसीलिए मुझे अमृत बताने के लिए ‘किन्तु’ कहना पड़ा।

सारे शिष्यों की जिज्ञासा और भी बढ़ गई और सभी ने एक स्वर से कहा कि हमें किसी दृष्टांत के माध्यम से विष और अमृत का सम्यक परिचय देने की कृपा कीजिए। सभी शिष्यों की सात्विक जिज्ञासा देखते हुए आचार्य ने जो दृष्टान्त शिष्यों को सुनाया, वह आज भी पूरे समाज को दिशा देने की शक्ति स्वयं में संजोए हुए है। भारतीय धर्मशास्त्र में उल्लिखित यह दृष्टांत आज की परिस्थितियों में अनुकरणीय और प्रेरक है। गुरुदेव ने शिष्यों को बताया कि एक बार महाराजा सुदास के सुपुत्र कल्याणपाद शिकार खेलकर दल-बल के साथ अपने राजमहल लौट रहे थे। मार्ग में एक इतनी तंग और छोटी पुलिया आ गई, जिस पर होकर एक समय में, एक ही तरफ से, एक ही व्यक्ति निकल सकता था। तभी एक विचित्र संयोग घटित हुआ और उसी तंग पुलिया पर दूसरी तरफ से महर्षि वशिष्ठ के ज्येष्ठ पुत्र शक्तिमुनि आते दिखे। एक तरफ महाराजा सुदास का राजकुमार पुत्र कल्याणपाद तो दूसरी तरफ महर्षि वशिष्ठ के तपस्वी पुत्र शक्तिमुनि उस बेहद तंग पुलिया के दोनों छोरों पर जमकर खड़े हो गए। दोनों में से कोई भी पीछे हटने और दूसरे को मार्ग देने के लिए तैयार नहीं हुआ। अंतत: महर्षि वशिष्ठ के पुत्र शक्तिमुनि ने तुरंत क्रोध में परिणाम की चिंता किए बिना ही राजपुत्र कल्याणपाद को राक्षस बन जाने का शाप दे दिया।

शाप फलित हुआ और कल्याणपाद शापग्रस्त होकर राक्षस बन गया और राक्षस बनते ही उसने शक्तिमुनि का ही भक्षण कर लिया। संयोग से उस समय शक्तिमुनि की धर्मपत्नी द्रश्यन्ति गर्भवती थी, जिसने कालान्तर में पराशर मुनि को जन्म दिया।

गुरुदेव ने गंभीर होकर कहा कि शक्तिमुनि के क्रोध से भयंकर विनाश हुआ, लेकिन अब क्षमा के अमृत का प्रभाव देखना भी तो जरूरी है। सभी शिष्यों की जिज्ञासा बलवती होती देख गुरुदेव बोले-महर्षि वशिष्ठ को जब सारी बात पता चली तो पुत्रहन्ता राजपुत्र कल्याणपाद को उन्होंने क्षमा दान देते हुए राक्षस-शरीर से मुक्त कर दिया। किन्तु, पिता से संस्कार रूप में मिले क्रोध के कारण बंधे होने पर पराशर मुनि अपने पिता के हत्यारे कल्याणपाद से प्रतिशोध लेने को उद्यत हो गए। यह सब जान कर वशिष्ठ जी ने पराशर मुनि को बुलाया और कहा—पौत्र पराशर, आज तुम्हें जीवन का तत्व बताता हूं। क्रोध करना शूरवीरता का नहीं, बल्कि मानवीय दुर्बलता का प्रतीक होता है। सच्चा शौर्य तो अपराधी को भी क्षमा-दान देने में है। तुम क्या समझते हो पौत्र कि मुझे अपने पुत्र की मृत्यु की पीड़ा नहीं थी और मैं कल्याणपाद को दण्ड देने की क्षमता नहीं रखता हूं, लेकिन मैंने जब यह अनुभव किया कि किसी के प्राण लेकर भी मेरा पुत्र अब जीवित नहीं हो सकता, तब मेरे अंतर्मन ने मुझे क्षमा-दान करने की प्रेरणा दी। पौत्र, सच यह है कि क्षमा करने के लिए बहुत विशाल हृदय और अनंत सहिष्णुता की आवश्यकता होती है। महर्षि की बात सुनकर पराशर मुनि का हृदय भी बदल गया और वे क्षमा के अमृत का महत्व समझ गए।

गुरुदेव द्वारा बताए दृष्टांत को सुनकर जैसे शिष्यों के हृदय निर्मल हुए थे, वैसे ही हमारे समाज को भी आज क्षमा का अमृत चाहिए, क्रोध का विष कदापि नहीं।

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