‘सारी दाल ही काली है’
देश के राजनीतिक दलों और राजनीतिज्ञों को केन्द्र सरकार के उस शपथपत्र से वास्तव में ही राहत मिली होगी जिसे उसने सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत कर कहा है कि राजनीतिक दलों को आरटीआई कानून की सीमाओं में नही लाया जा सकता। केन्द्र का मानना है कि ऐसा करने से राजनीतिक दलों का कामकाज प्रभावित होगा। राजनीतिक दलों में एक प्रतिद्वंद्विता इससे आरंभ हो जाएगी और राजनीतिक दल एक दूसरे की जानकारियां प्राप्त कर उनका दुरूपयोग कर सकते हैं।
भारतीय राजनीति की यह ‘गौरवमयी’ परंपरा रही है कि यहां जनहित से जुड़े मुद्दों को नजरअंदाज कर दलगत खींचातानी करते हुए संसद का पूरा सत्र राजनीतिक दल शोर शराबे और हंगामे में बिता सकते हैं, जनता के धन का अपव्यय कर सकते हैं, संसद के अमूल्य समय को गलियों में खेलते हुए बच्चों की भांति ऐसे ही बिता सकते हैं, जमकर अनर्गल ओच्छी बयानबाजी कर सकते हैं, पर जब उनके अपने वेतन भत्ते आदि बढ़ाने के लिए कोई विधेयक या प्रस्ताव संसद में आता है, तो हमारे जनप्रतिनिधि ‘राष्ट्रहित’ में उसे फटाफट पारित कराने में अपना अमूल्य सहयोग करते हैं। उस पर कोई राजनीति नही होती, कोई भाषण नही होता, कोई खींचतान नही होती, अध्यक्ष की कुर्सी के पास आकर कोई सांसद या जनप्रतिनिधि हंगामा नही करता और हम देखते हैं कि हमारे ‘अनुशासित जनप्रतिनिधि’ यथाशीघ्र उस विधेयक को पारित करा लेते हैं।
हम अपने जनप्रतिनिधियों के वेतन-भत्ते आदि बढऩे के विरोधी नही हैं, हम जानते हैं कि सार्वजनिक जीवन जीने वाले व्यक्तियों का निजी जीवन और व्यापार आदि कभी-कभी कितने प्रभावित हो जाते हैं? इसलिए घर फूंककर तमाशा देखने वाले ईमानदार जनप्रतिनिधियों के वेतन-भत्ते आदि यदि नही बढ़ाये जाएं तो उनका जीवन चलना भी कठिन हो जाएगा, अत: वेतन भत्ते आदि उचित अनुपात में बढऩे ही चाहिए। पर हमारा मानना है कि इस देश में जनप्रतिनिधियों ने स्वार्थ को राष्ट्रहित और राष्ट्रहित को स्वार्थ बनाकर जिस प्रकार उसका दुरूपयोग करना आरंभ किया है वह निश्चय ही हर राष्ट्रवासी के लिए चिंता और चिंतन का विषय है। यदि हमारे जनप्रतिनिधि अपने स्वार्थ में अनुशासित हो सकते हैं तो इसका अभिप्राय है कि उन्हें अनुशासन आता है, वह जानते हैं कि अनुशासन क्या होता है, संयम क्या होता है, धैर्य और विवेक क्या होते हैं? अत: ऐसे जनप्रतिनिधियों से स्वाभाविक रूप से अपेक्षा की जाती है कि वह संसद की कार्यवाहियों के प्रति गंभीर हों।
ऐसी परिस्थितियों में सांसदों और राजनीतिक दलों को आरटीआई से बाहर रखना कितना उचित होगा जब राजनीतिक दल और हमारे माननीय जनप्रतिनिधि संसद में अपना ‘असंसदीय आचरण’ दिखाने के लिए कुख्यात होते जा रहे हों? वह विधान बनाने वाले विधायक हैं, तो उन्हें तो प्रत्येक प्रकार की नैतिकता और विधिक व्यवस्था के अधीन रहना ही चाहिए। इसलिए राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी और भी अधिक बढ़ जाती है, कि हमारे देश में चुनाव सुधारों की और राजनीतिक आचार संहिता लागू करने की मांगें बहुत लंबे काल से की जाती रही है।
एक लोकसभा का एमपी करोड़ों रूपया खर्च करके संसद में जाता है और वहां बैठकर ऊंघता है, कोई काम नही करता, एक व्यक्ति राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए पचास करोड़ से एक अरब रूपये तक खर्च करना चाहता है और काम कुछ नही करता। अंतत: ऐसा क्यों है और ऐसा क्या आकर्षण है जो हमारे राजनीतिक दलों को इतना महंगा चुनाव लड़ाकर और चुनाव को जनसाधारण की पहुंच से बाहर करके अपने जनप्रतिनिधि संसद में भेजने की गरज रहती है। ऐसे आकर्षण हमें ढूंढऩे चाहिए, जिन्होंने जनप्रतिनिधियों को ‘लोकतंत्र का हत्यारा’ बना दिया है। ‘लोकतंत्र का हत्यारा’ हम इसलिए कह रहे हैं कि जनसाधारण को राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय देना हमारे संविधान की प्रस्तावना का आदर्श वाक्य है और हमारे संविधान का ध्येय है, हमारे राजनीतिक दल इस ‘आदर्श वाक्य’ या ‘संवैधानिक ध्येय’ की धज्जियां उड़ाकर कितने ही गरीबों और पात्र व्यक्तियों की योग्यता को कुचलते हुए सांसद बन जाते हैं। उनका यह कृत्य आर.टी.आई. के अंतर्गत आना चाहिए। हमारा ध्येय है राजनीति की गंगा में आ रहे कूड़े कचरे को रोकना, धनबली और ‘गन’बली को विधानमंडलों से बाहर रखना और देश के प्रति समर्पित लोगों को विधानमंडलों के भीतर पहुंचाने का मार्ग प्रशस्त करना। तब हमारे राजनीतिक दल ही बदमाशों को टिकट देते हैं, उन्हें विधानमंडलों में भेजते हैं और उन्हीं राजनीतिक दलों को-जिनसे यह पूछा जाना चाहिए कि तुमने अमुक बदमाश को विधानमंडल में क्यों भेजा? क्या तुम्हारे पास कोई अन्य प्रत्याशी नही था? या तुमने उसे विधानमंडल में भेजने के लिए कितने लोगों के राजनीतिक अनुभव और पार्टी की सेवाओं को नजरअंदाज किया, अब आर.टी.आई. से बाहर रखा जाएगा। इससे लोकतंत्र की रक्षा नही होगी इससे तो लोकतांत्रिक मूल्यों का और भी तेजी से क्षरण होगा।
हमारा मानना है कि चरित्र हनन के प्रश्न पूछने या ऐसे प्रश्न पूछने जिनसे किसी अन्य राजनीतिक दल को लाभ मिलना संभावित है या ऐसे प्रश्न पूछने जिससे देश की सुरक्षा और सामाजिक शांति व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो, से ही राजनीतिक दल आर.टी.आई. से बाहर रखे जाने चाहिए। यदि मोदी सरकार भी राजनीतिक दलों के स्वार्थों को साधने में उनका साथ देगी तो मानना पड़ेगा कि ‘दाल में काला नही अपितु सारी दाल ही काली है।’
मुख्य संपादक, उगता भारत