भारतीय स्वाधीनता का अमर नायक राजा दाहिर सेन, अध्याय – 12 ( क) राजा की वीरांगना कन्याएं

images (5)

जिस समय रानी लाडी और उनकी वीरांगना सहेलियों ने जौहर कर अपना बलिदान दिया, उस समय राजा दाहिर सेन की दोनों बेटियां सूर्या और परमल अपने जनसेवा और राष्ट्र जागरण के कार्य में लगी हुई थीं। हम पूर्व में भी उनके बारे में यह उल्लेख कर चुके हैं कि ये दोनों महान बेटियां मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण की सूचना के पहले दिन से ही देश के लोगों के बीच जाकर राष्ट्र जागरण का कार्य कर रही थीं। लोग उनके इस महान कार्य से बहुत अधिक प्रेरित हुए।

जनसेवा और राष्ट्र जागरण से
दोनों बहनें जगा रही थीं देश।
इस्लाम के बर्बर हत्यारों का
पहुंचा रही थीं घर-घर संदेश।।

अब इन दोनों को कासिम ने बन्दी बना लिया। इस युद्ध की यह सबसे बड़ी त्रासदी थी कि भारत की ये दोनों महान वीरांगनाएं शत्रु के हाथों पड़ गईं । उन्हें युद्ध के मैदान में अपना करतब दिखाने या किसी भी प्रकार से शत्रु का युद्ध के मैदान में सामना करने का अवसर नहीं मिला ,अन्यथा वह भी अपने पिता और अपनी माता की भांति अनेकों शत्रुओं के संहार का कारण बनतीं। इन दोनों महान वीरांगनाओं पर देश के लोगों को बहुत अधिक भरोसा था, लेकिन शत्रु की योजना कुछ इस प्रकार सफल हुई कि ये बिना युद्ध किए ही बन्दी बना ली गईं। इन दोनों बेटियों की सुन्दरता को देखकर मोहम्मद बिन कासिम ने इन्हें अपनी कामलिप्सा के लिए न रखकर अपने धर्म गुरु की वाहवाही लूटने के उद्देश्य से उसके लिए एक ‘माल’ के रूप में भेजना उचित समझा।

उपहार के रूप में भेज दी गईं खलीफा के पास

वास्तव में महिलाओं को एक माल के रूप में प्रयोग करने या उन्हें ‘माल’ या ‘चंट- माल’ कहने की परम्परा मुसलमानों की देन है। ये लोग महिलाओं को लूट के माल के रूप में ही अपने खलीफा के लिए भेजा करते थे। इसलिए कैसा माल है ? यह बताने की आवश्यकता पड़ती थी। उससे पहले इस प्रकार का अपमानजनक शब्द महिलाओं के लिए भारत में कोई प्रयोग नहीं करता था। मोहम्मद बिन कासिम ने इसी परम्परा का निर्वाह करते हुए भारत की इन दोनों महान बेटियों को अपने धर्म गुरु खलीफा की सेवा में भेजना श्रेयस्कर समझा । फलस्वरूप उसने इन दोनों बहनों को उपहार स्वरूप खलीफा के लिए निज देश भेज दिया।
रास्ते में दोनों बहनें कभी एक दूसरे को देखकर रोतीं तो कभी अपने परिवार के साथ हुई दु:खद घटनाओं को याद करके रोतीं , कभी माता- पिता की याद में आंसू बहातीं तो कभी देश की हुई दुर्दशा को देखकर या उसके बारे में सोच कर आंसू अनायास निकल आते । इसी प्रकार उनके मन में कभी यह भाव भी आता कि अब ये राक्षस हमारे साथ क्या करेंगे ? अपने साथ होने वाले सम्भावित व्यवहार के बारे में सोच कर तो दोनों को सिहरन आ जाती। देशद्रोही पापियों के द्वारा जो व्यवहार उनके माता-पिता के साथ किया गया, उसे याद करके भी इन्हें बहुत अधिक कष्ट होता । कभी मन ही मन तो कभी संकेतों में इन देशद्रोहियों को कोसने लगतीं, जिनके कारण सिंध देश और उनका परिवार इस प्रकार के दुर्दिनों में फंस गया था।

वक्त बड़ा बलवान बताया
रचता रहता अद्भुत खेल।
महलों में रहने वाले भी
पड़ जाते शत्रु की जेल।।

पर अब बड़ी बहन ने धैर्य और साहस के साथ उपस्थित संकट और समस्या पर सोचना आरम्भ कर दिया था। उसने अपनी छोटी बहन को भी ढाँढस बँधाया और उसे बताया कि जब कष्ट या संकट के बादल छाए हों तो उस समय धैर्य ही काम आता है। धैर्य और संयम से कोई न कोई ऐसी युक्ति भी निकल आती है जो संकट का समाधान बन जाती है। इसलिए धैर्य रखो और धैर्यपूर्वक उपस्थित संकट पर सोचने विचारने की शक्ति परमपिता परमेश्वर से मांगो। निश्चय ही हमें कोई न कोई ऐसा रास्ता मिलेगा जो हमारे इस संकट का और संकट में फंसे सम्मान का समाधान देगा। बड़ी बहन अपनी छोटी बहन को कभी प्यार की थपकी लगाती तो कभी उसे ढांढस बंधाते हुए उसके आंसू पोंछती थी। वह उसे समझाती कि इस समय जब राजा और रानी दोनों ही स्वर्ग सिधार चुके हैं, तब लोगों की अंतिम आशा की किरण के रूप में हम दोनों ही बचे हैं। हमें कुछ न कुछ ऐसा करना होगा जिससे देश का सम्मान और माता पिता की शान बच सके, साथ ही हमारे अपने सतीत्व की रक्षा हो सके।

संकट का बड़ी बहन ने खोजा समाधान

बड़ी बहन की बातों को सुनकर छोटी को भी अब बहुत कुछ समझ में आने लगा था। उसने बालकों की तरह रोना बन्द कर दिया और बहन के साथ मिलकर किसी ऐसी युक्ति पर विचार करना आरम्भ कर दिया जो देश के, उनके स्वयं के और माता-पिता के सम्मान का रक्षा कराने में सहायक हो। अन्त में उन दोनों ने मिलकर एक युक्ति खोज ली। जिससे उनके अपने स्वयं के माता-पिता के और देश के सम्मान की रक्षा होना संभव था। यह विचार सर्वप्रथम बड़ी बहन के मन मस्तिष्क में आया । तब उसने छोटी बहन की ओर बड़ी आशा भरी नजरों से देखते हुए उसे संकेतों में कुछ ऐसा समझाने का प्रयास किया जिससे छोटी बहन को लगा कि बड़ी बहन ने निश्चय ही कोई अच्छा समाधान खोज लिया है। छोटी बहन ने बड़ी उत्सुकता और आशा भरी दृष्टि से बड़ी बहन की ओर देखते हुए उस उपाय को यथाशीघ्र प्रकट करने का मानो निवेदन कर दिया।

संकट में जो धैर्य खो देते इंसान।
अपयश के भागी बनें ना मिलता सम्मान।।

तब बड़ी बहन ने बड़े आत्मविश्वास के साथ उसे बताया कि वह निश्चिंत रहे । अब मोहम्मद बिन कासिम या उसका धर्मगुरु खलीफा उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेगा । क्योंकि इन राक्षसों से अपने सम्मान की रक्षा के लिए उसने एक ऐसी युक्ति खोज निकाली है जो निश्चय ही हमारे सतीत्व की रक्षा करने में सहायक होगी। इतना ही नहीं, उसने कुछ ऐसा संकेत की छोटी बहन को दे दिया कि मेरे इस उपाय से न केवल हमारे सम्मान की रक्षा हो सकेगी, बल्कि देश के और माता-पिता के सम्मान की रक्षा भी हो पाएगी और हम मोहम्मद बिन कासिम की मृत्यु का कारण भी बन जाएंगी। बड़ी बहन के इस प्रकार के शब्दों को सुनकर छोटी बहन को अब बहुत कुछ समझ में आ गया था। इसलिए वह अब पहले की भांति अधिक विचलित नहीं थी।

जैसा भीतर का संसार – वैसा ही बाहर

सिन्ध देश से चलीं ये दोनों बेटियां धीरे-धीरे अब एक नई मंजिल की ओर बढ़ती जा रही थीं। जिसके लिए उन्होंने कभी सोचा तक कभी नहीं था। बीच में नदी, नाले पहाड़ आते जा रहे थे। इन सब प्राकृतिक चीजों को उनकी नजरें देख तो रही थीं, पर आज उनके देखने का ढंग कुछ और था। ये सारे उनसे कुछ पूछते थे, जिनका उनके पास कोई उत्तर नहीं था। वास्तव में मनुष्य के भीतर का संसार जैसा होता है उसे बाहर का संसार वैसा ही दिखाई देने लगता है। यदि घर में मृत्यु हो जाए तो पेड़ पौधे भी कुछ और ही कहते दिखाई देते हैं । घर के पेड़ पौधों पर बैठने वाले पक्षी भी चाहे पहले जैसी ही आवाज निकालते हों, पर आज उनकी आवाज में कुछ अंतर आ जाता है। घर में रहने वाले पशु आदि भी कुछ दूसरी मुद्रा में दिखाई देने लगते हैं । ऐसे समय में मन में जितने प्रश्न प्रतिप्रश्न बनकर उभरते हैं, उन सारे प्रश्न प्रतिप्रश्नों को प्राकृतिक चीजें भी दोहराती हुई दिखाई देती हैं और ऐसा लगता है कि जैसे पशु पक्षियों की आवाज से भी वही प्रश्न प्रतिप्रश्न बार-बार निकल-निकल कर सामने आ रहे हैं। ऐसे मानसिक दबाव और परिवेश की अवस्था में ये दोनों बहनें प्रकृति के दृश्यों से कुछ बातें करते -करते निरन्तर आगे बढ़ती जा रही थीं।

हर दृश्य गुजरता जाता था
ज्यों गुजरे जीवन का बीता पल।
कुछ नए प्रश्न उभरकर आते थे
न जाने अब क्या होगा कल ?

अन्त में वह समय आ ही गया जब ये दोनों बहनें अपने ‘लक्ष्य’ पर पहुंच गईं। कई दिन और कई रात चलने के बाद भारत की ये दोनों महान बेटियां खलीफा को ले जाकर भेंट कर दी गईं। वास्तव में किसी मुस्लिम धर्मगुरु या खलीफा को एक उपहार के रूप में प्रस्तुत की गईं ये दो बेटियां दो लड़कियां न होकर भारत की अस्मिता , भारत का सम्मान और भारत की प्रतिष्ठा की प्रतीक थीं। उस समय वह किसी राजा की बेटी भी नहीं थीं, अपितु हिंदुस्तान की बेटी थीं, हिन्द की बेटी थीं सिन्ध की नहीं। इस बात को समझकर खलीफा के दरबार और उसकी राजधानी में उत्सव सा मनाया जाने लगा। वास्तव में जिस हिंदुस्तान ने अब से पहले हजारों मुस्लिमों के शव धरती पर बिछा दिए थे, उस हिंदुस्तान से आज खलीफा को पहली बार एक सबसे बड़ा उपहार मिलने जा रहा था, इसलिए उत्सव मनाया जाना स्वाभाविक था। खलीफा को इस उपलब्धि के लिए बधाई देने वालों का तांता लग गया। दो बेटियों का राक्षसों के हाथ लगना उनके लिए बहुत बड़ी बात हो गई थी। बस, इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि राजा दाहिर सेन और उनके सैनिकों की धाक मुस्लिमों को उस समय किस सीमा तक भयभीत कर डालती थी?

खलीफा के दरबार में

खलीफा ने अपने मन के भावों को प्रकट करने के लिए यह घोषणा की कि हिन्दुस्तान से आए ‘उपहार’ को वह अपने दरबार में ही स्वीकार करेगा। उसका आशय स्पष्ट था कि ऐसा करने से उसके दरबारी और अन्य लोग उत्सव का आनन्द ले सकेंगे और हिंदुस्तान से आए उपहार को भी देख सकेंगे। खलीफा की घोषणा के अनुसार निर्धारित समय पर दरबार का आयोजन किया गया। सभी आमंत्रित लोग दरबार में निर्धारित समय पर पहुँच गए और अपने-अपने स्थानों को सबने ग्रहण कर लिया। अन्त में खलीफा एक बहुत ही शानदार जुलूस के साथ दरबार में प्रवेश करता है और अपने स्थान पर आकर बैठ जाता है।
खलीफा का दरबार ही नहीं स्वयं खलीफा भी हिंद की दोनों बेटियों की झलक पाने के लिए आतुर था । दोनों बेटियों को सही समय पर खलीफा के सामने प्रस्तुत किया जाता है। सौंदर्य की प्रतिमा दोनों बहनों को देखकर खलीफा बहुत प्रसन्न होता है। खलीफा का इस प्रकार प्रसन्न होना स्वाभाविक ही था।आज हिंदुस्तान से उसे पहली बार लूट का सबसे ‘चंगा माल’ जो मिल गया था। कामलिप्सा में आतुर खलीफा ने भारत की इन दोनों महान बेटियों को अपने पास अपनी बगल में आकर बैठने के लिए कहा। राजा दाहिर सेन की बड़ी बेटी पहले से ही इस क्षण की प्रतीक्षा में थी। उसे पता था कि कामातुर खलीफा उसे और उसकी बहन को अपने पास बुलाएगा । बड़ी राजकुमारी ने पहले से ही यह मन बना लिया था कि जब खलीफा उन्हें दरबार में अपने पास बैठने के लिए बुलाएगा तो उसे उस समय खलीफा से क्या कहना है ?

तैयार राजकुमारी पहले से थी
खलीफा से क्या कहना है ?
उससे पहले के हर सदमे को
बस मौन साध कर सहना है ।।

अपनी पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार बड़ी बेटी ने बड़ी ही सहजता के साथ खलीफा से कहा कि – ‘ महोदय ! हम आपके पास बैठ तो जाएंगी , परन्तु आपके पास बैठने के योग्य हम छोड़ी नहीं हैं। आपके मोहम्मद बिन कासिम बहुत ही नीच और कमीना व्यक्ति है। राजकुमारी ने कहा कि आपका सेनापति मोहम्मद बिन कासिम बहुत ही लम्पट और व्यभिचारी है, जो आपका अपना होने का नाटक तो करता है पर वास्तव में आपका है नहीं। उसने हमें आपके योग्य छोड़ा नहीं है ,क्योंकि उसने हमारे कौमार्य को पहले ही भंग कर दिया है।
महाराज ! हम तो स्वयं ही आपकी होकर रहना चाहती थीं, परन्तु आपके कासिम ने हमारे साथ जिस प्रकार का अन्याय और अत्याचार किया है वह न केवल हमारे साथ किया है अपितु आपके साथ भी माना जाना चाहिए। क्योंकि किसी भी पराजित हिन्दू राजा की बेटियों पर आपका ही अधिकार है और हम भी आपको अपना पति स्वीकार कर चुकी थीं। फिर कासिम को यह अधिकार किसने दिया कि वह आप की ‘चीज’ को पहले ही चख कर देख ले ? हमारे हिंदुस्तान में तो ऐसा कार्य बहुत ही अधिक निंदनीय माना जाता है और ऐसे नीच कर्म करने वाले को मृत्युदंड दिया जाता है। पता नहीं आपके देश में ऐसे नीच कुकर्मी लोगों के साथ क्या व्यवहार किया जाता है ?

क्या कहते हैं इलियट महोदय

जब ये दोनों बहनें खलीफा के दरबार में प्रस्तुत की गईं तो उस समय का वर्णन करते हुए इतिहासकार इलियट लिखते हैं, “खलीफा वालिद ने दुभाषिये से बड़ी छोटी का पता लगाने को कहा, ताकि बड़ी का भोग पहले लगाया जा सके और छोटी का बाद में। बड़ी को अपने पास रखकर खलीफा ने छोटी को वापिस हरम में भेज दिया। खलीफा उसकी सुन्दरता से मुग्ध हो गया था। उसने उसके कमनीय शरीर पर अपना हाथ रख, उसे अपनी ओर खिंचा।” उसकी कामाग्नि भड़क उठी और वो जल्द से जल्द उसे बाँहों में भरने को उतावला था कि तभी सूर्यदेवी विद्युत् की गति से पीछे हटती हुई खड़ी हो गयी और बोली, “यह कैसा नियम है आप लोगों का ? पहले तीन रात हम दोनों बहनों को कासिम ने अपने पास रखा और फिर आपके पास भेज दिया। सम्भवतः अपने नौकरों की जूठन खाने का ही रिवाज है, आप लोगों में।”

अजीब रिवाज है आपका जूठन लगती ठीक।
नौकर को बड़ा मान लो किसने दी ये सीख।।

भारत की इस महान बेटी का तीर अपने सही निशाने पर लग चुका था। अपने सम्मान और कौमार्य को बचाए रखने के लिए राजकुमारी ने जिस योजना पर मंथन किया था, अब वह चरितार्थ हो चुकी थी।
राजकुमारी ने अपनी योजना को जिस प्रकार सोचा विचारा था, जब वह उसी रूप में लागू हो गई तो राजकुमारी को भी मन ही मन बहुत अधिक प्रसन्नता हो रही थी। यह भी सम्भव था कि राजकुमारी की यह योजना मनोवांछित फल न देकर विपरीत दिशा में चली गई होती, पर राजकुमारी ने जिस साहस, गम्भीरता, सहजता, सरलता और निर्भीकता के साथ अपनी बात को प्रस्तुत किया उसी का परिणाम था कि उसका तीर सही निशाने पर लगा। इससे पता चलता है कि दोनों राजकुमारियाँ न केवल निर्भीक और साहसी थीं अपितु वे दोनों ही मनोविज्ञान की भी बहुत अधिक समझ रखने वाली थीं। वे जानती थीं कि अपनी बात को प्रस्तुत करते समय किस प्रकार की भावाभिव्यक्ति देनी होती है ?

(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “राष्ट्र नायक राजा दाहिर सेन” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹175 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति

Comment: