अमेरिका से मित्रता का मोल
पुष्परंजन
इस बार पाकिस्तान तड़प कर रह गया। तड़प इस वजह से कि संयुक्त राष्ट्र महासभा में इमरान ख़ान को तुर्की-ब-तुर्की जवाब मिल गया। दूसरा, अफग़ानिस्तान को लेकर जो गुब्बारे पाकिस्तान ने फुलाये, वह भी यूएन में फुस्स हो गया। तालिबान शासन की ओर से यूएन महासचिव एंटोनियो गुटरस को पत्र भेजा गया था कि नये विदेश मंत्री आमीर ख़ान मुत्ताकी को संयुक्त राष्ट्र महासभा में बोलने का अवसर दिया जाए। यह अनुरोध स्वीकार करने का मतलब था, तालिबान को मान्यता। पाकिस्तान ने इस वास्ते घोड़े खोल रखे थे, मगर मुंह की खानी पड़ी। दोहा स्थित तालिबान प्रवक्ता सुहैल शाहीन को यूएन में अफगानिस्तान का स्थाई प्रतिनिधि नियुक्त किये जाने के वास्ते एक पत्र भेजा गया है। इसे यूएन की नौ सदस्यीय मान्यता समिति को तय करना है। प्रश्न यह है कि पीएम मोदी की अमेरिका यात्रा क्या चीन और पाकिस्तान को लक्ष्य में लेकर थी?
दो फ्रंट खुल चुके हैं। तीसरा फ्रंट काबुल में खुलने वाला है। चीन का शत्रु भाव एक बार फिर सामने आने लगा है। उसने ‘क्वाड’ का नाम ‘एशियन नाटो’ रखा है, और कहा कि इसके चारों सदस्यों अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान की गतिविधियों पर हमारी नज़र है। दीगर है कि इन क्वाड देशों ने हिंद-प्रशांत से इतर, अफग़ानिस्तान में सक्रियता बढ़ाने के वास्ते बड़ी रणनीति तय की है।
पीएम मोदी अभी लौटे हैं, और अमेरिका अगले माह विदेश राज्यमंत्री विंडी शेरमन को दिल्ली भेज रहा है। 6-7 अक्तूबर, 2021 को विंडी शेरमन, यूएस-इंडिया बिज़नेस कौंसिल की बैठक में नई दिल्ली और मुंबई में रहेंगी, फ़िर पाकिस्तान प्रस्थान करेंगी, जहां विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी से उनका मिलना तय है। शेरमन से पहले सीआईए प्रमुख बिल बर्न्स और अमेरिकी विदेश मंत्री ब्लिंकन जुलाई, 2021 के आखि़री हफ्ते दोनों देशों का दौरा कर आये थे। हालांकि, प्रधानमंत्री मोदी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस और राष्ट्रपति जो बाइडेन को भारत यात्रा के वास्ते न्योता दे आये हैं। अब उन्हें कब आना है, इस पर व्हाइट हाउस की चुपी है। वे पहले शायद यह सुनिश्चित करें कि भारत में लोकतंत्र ठीक-ठाक काम कर रहा है, और गांधी का यह देश अहिंसा की राह पर है, फिर आने का कार्यक्रम तय करें।
फ्लोरिडा के सेंट अगस्टीन में ‘मेडिवल टार्चर म्यूज़ियम’ है, आप पन्द्रह डॉलर का टिकट कटाइये, और देखिये कि इस देश में मध्यकाल के समय यातना कैसे दी जाती थी। हॉलीवुड, कैलिफोर्निया, न्यू ओरलियंस, लुसियाना में इसी तरह के डेथ म्यूज़ियम हैं, जहां के टिकट कटाइये, और मौत का तांडव देख आइये। जिस जगह पर जो बाइडेन गांधी की अहिंसा का ज्ञान दे रहे थे, उसी वाशिंगटन डीसी में ‘गन वायलेंस मेमोरियल प्रोजेक्ट’ निर्माणाधीन है। शिकागो में 2019 में ऐसा एक और बन चुका। हिंसा देखने के वास्ते वाशिंगटन में ‘नेशनल क्राइम एंड पनिशमेंट म्यूज़ियम’ है। इस तरह के सात और म्यूज़ियम अमेरिका में हैं। अश्वेतों की बर्बर हत्या वाला म्यूज़ियम भी है। आप पैसे देकर हिंसा को याद कीजिए, और अंदर तक सिहर जाइये। भारत नीति-नियंता इन तथ्यों को आधार बनाकर अमेरिकी हुक्मरानों को आईना दिखा सकते थे।
मगर, यह सोच लें कि ऐसे कटाक्ष से भारत-अमेरिका के उभयपक्षीय व्यापार पर इसका असर पड़ना है, तो अदूरदर्शिता होगी। इस तरह के कूटनीतिक कटाक्ष को केवल दबाव का हिस्सा मानिये। यह संकेत भर देना था कि यूएन महासभा के मंच पर लंबी-लंबी अवश्य छोड़िये, मगर हमें सब पता है कि ज़मीन पर क्या हो रहा है। 1992 में जेम्स कारविल के उस वाक्य को अमेरिका हर समय याद रखता है ‘इट्स द इकोनॉमी स्टूपिड!’ अमेरिका को पैसा चाहिए, नेता बदल जाने का मतलब यह नहीं कि उसे भारत से उभयपक्षीय व्यापार नहीं करना है। अमेरिकी विदेश मंत्रालय के फैक्टशीट के अनुसार, ‘2019 में 149 अरब डॉलर का व्यापार दोनों देशों के बीच हो रहा था। 2017 में मात्र 9.6 मिलियन बैरल कच्चा तेल अमेरिका से आया था। 2018 में यह बढ़कर 48.2 मिलियन बैरल हो गया।’ 2020 में इराक़ के बाद अमेरिका दूसरे नंबर पर भारत के लिए तेल निर्यातक देश रहा था, नाइजीरिया और सऊदी अरब तीसरे-चौथे नंबर पर। आप ईरान से रुपये में तेल मत ख़रीदो, डॉलर दो और अमेरिका से तेल लो। 2021 में जो बाइडेन प्रशासन ने यह गणित बदल दिया। 12 अप्रैल, 2021 को हिंदू बिज़नेस लाइन की ख़बर थी, ‘2020 में दूसरे नंबर पर रहे अमेरिका से भारत के रिफाइनरी अब 2 लाख 87 हज़ार बैरल कच्चा तेल प्रतिदिन के हिसाब से मंगा रहे हैं।’ अर्थात् अब अमेरिका सबसे टॉप पर है।
अमेरिकी विदेश मंत्रालय के अनुसार, ‘2008 में मात्र 81 हज़ार छात्र यूएस में पढ़ते थे, 2019 में दो लाख दो हज़ार हो चुके थे।’ 2020 में यह संख्या 4.4 प्रतिशत घटकर 1 लाख 93 हज़ार 124 पर पहुंच गई थी। 2021 की पहली तिमाही में 50 हज़ार से अधिक छात्रों ने अमेरिकी विश्वविद्यालयों में दाखिला लिया। यह भी अर्थशास्त्र का हिस्सा रहा है। भारत-अमेरिकी सहकार जी-20, आसियान, आईएमएफ, वर्ल्ड बैंक, डब्ल्यूटीओ, इंडियन ओशन रिम एसोसिएशन और हिंद-प्रशांत इलाds में साफ-साफ दिख रहा है।
ह्वाइट हाउस के ओवल ऑफिस में जो बाइडेन और मोदी ने ग्लोबल पार्टनरशिप का जो अहद किया है, 1746 शब्दों के उस साझा बयान के हर लाइन की व्याख्या मास्को और पेइचिंग में हो रही है। उस बयान में कोविड से लेकर, सुरक्षा परिषद विस्तार में भारत को सीट, अक्षय ऊर्जा, यूएवी-डिफेंस तकनीक का हस्तांतरण, फाइव जी-सिक्स जी व फ्यूचर जनरेशन तकनीक में सहयोग, हाई एंड डिफेंस प्रोडक्शन, क्रास बार्डर टेररिज़म को रोकने, आंतरिक सुरक्षा, साइबर क्राइम, अंतरिक्ष में सहयोग, आज़ादी के 75 साल जैसे सारे आयामों को समेटा गया है।
अब सवाल यह है कि भारत-अमेरिकी सहकार से भविष्य में रूस के साथ कैसे संबंध रहेंगे? यह दिख रहा है कि रूसी दिलचस्पी तुर्की, ईरान, चीन-पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान में तेज़ हुई है। सेंट्रल एशियाई देश रूसी प्रभाव क्षेत्र में हैं। इसे ध्यान में रखना होगा कि पाकिस्तान लगातार एक नई धुरी तैयार करने की जुगत में है, जिस वास्ते उसे मास्को और पेइचिंग की शह मिली हुई है। रूस, पाकिस्तान को न सिर्फ़ सामरिक सहयोग दे रहा है, बल्कि नार्थ-साउथ गैस पाइपलाइन की अधोसंरचना के वास्ते ढाई अरब डॉलर ख़र्च कर चुका है। पाकिस्तान के स्टील मिलों में रूसी इंजीनियर दिखने लगे हैं। ऐसे माहौल में क्या भारत को एस-400 रूसी मिसाइल समय पर मिलने की उम्मीद की जानी चाहिए? रूसी शस्त्र निर्यातक ‘रोसोबोरोनेक्सपोर्ट’ ने दिसंबर, 2021 से पहले एस-400 मिसाइल भारत को भेज देने का आश्वासन दे रखा है!
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