महर्षि च्यवनकी गो-निष्ठा
पूर्वकाल की बात है कि एक बार महर्षि च्यवन अभिमान, क्रोध, हर्ष और शोक का त्याग करके महान व्रत का दृढ़तापूर्वक पालन करते हुए बारह वर्ष तक जलके अंदर रहे। जल जंतुओं से उनका बड़ा प्रेम हो गया था और वे उनके आसपास बड़े सुख से रहते थे। एक बार कुछ मल्लाहों ने गंगाजी और यमुनाजी के जल में जाल बिछाया। जब जाल खींचा गया, तब उसमें जल जंतुओं से घिरे हुए महर्षि च्यवन भी खिंच आये। जाल में देखकर मल्लाह डर गये और उनके चरणों में सिर रखकर प्रणाम करने लगे। जाल के बाहर खींचने से स्थल का स्पर्श होने से और त्रास पहुंचने से बहुत से मत्स्य कलपने और मरने लगे। इस प्रकार मत्स्यों का बुरा हाल देखकर ऋषियों को बड़ी दया आयी और वे बारंबार लंबी सांस लेने लगे। मल्लाहों के पूछने पर मुनि ने कहा-देखो ये मत्स्य जीवित रहेंगे, तो मैं भी रहूंगा, अन्यथा इनके साथ ही मर जाऊंगा। मैं इन्हें त्याग और उन्होंने कांपते हुए जाकर सारा समाचार महाराज नहुष को सुनाया।
मुनि की संकटमय स्थिति जानकर राजा नहुष अपने मंत्री और पुरोहित को साथ लेकर तुरंत वहां गये। पवित्र भाव से हाथ जोडक़र उन्होंने मुनि को अपना परिचय दिया और उनकी विधिवत पूजा करके कहा-द्विजोत्तम आज्ञा कीजिए मैं आपका कौन सा प्रिय कार्य करूं?
महर्षि च्यवन ने कहा-राजन इन मल्लाहों ने आज बड़ा भारी परिश्रम किया है। अत: आप इनको मेरा और मछलियों को एक हजार स्वर्ण मुद्रा देने के लिए पुरोहित जी से कहा। इस पर महर्षि च्यवन बोले-एक हजार स्वर्णमुद्रा मेरा उचित मूल्य नही है। आप सोचकर इन्हें उचित मूल्य दीजिए।
इस पर राजा ने एक लाख स्वर्ण मुद्रा से बढ़ते हुए एक करोड़ अपना आधा राज्य और अंत में समूचा राज्य देने की बात कह दी परंतु च्यवन ऋषि राजी नही हुए। उन्हों ने कहा आपका आधा या समूचा राज्य मेरा उचित मूल्य है ऐसा मैं नही समझता। आप ऋषियों के साथ विचार कीजिए और फिर जो मेरे योग्य हो वही मूल्य दीजिए।
महर्षि का वचन सुनकर राजा नहुष को बड़ा खेद हुआ। वे अपने मंत्री और पुरोहित से सलाह करने लगे। इतने ही में गाय के पेट से जन्मे हुए एक फलाहारी वनवासी मुनि ने राजा के समीप आकर उनसे कहा-महाराज ये ऋषि जिस उपाय से संतुष्ट होंगे, वह मुझे मालुम है।
नहुष ने कहा-ऋषिवर आप महर्षि च्यवन का उचित मूल्य बतलाकर मेरे राज्य और कुलकी रक्षा कीजिए। मैं अगाध दुख के समुद्र में डूबा जा रहा हूं। आप नौका बनकर मुझे बचाईये।
नहुष की बात सुनकर मुनि ने उन लोगों को प्रसन्न करते हुए कहा-महाराज ब्राह्मण सब वर्णों से उत्तम हैं। अत: इनका कोई मूल्य नही आंका जा सकता। ठीक इसी प्रकार गौओं का भी कोई मूल्य नही लगाया जा सकता। अतएव इनकी कीमत में आप एक गौ दे दीजिए।
महर्षि की बात सुनकर राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षि च्यवन पास जाकर कहा-महर्षे मैंने एक गौ देकर आपको खरीद लिया है। अब आप उठने की कृपा कीजिए। मैंने आपका यही उचित मूल्य समझा है।
च्यवन ने कहा-राजेन्द्र अब मैं उठता हूं। आपने मुझे उचित मूल्य देकर खरीद लिया है। मैं इस संसार में गौओं के समान दूसरा कोई धन नही समझता।
वीरवर गायों के नाम और गुणों का कीर्तन करना सुनना, गायों का दान देना और उनके दर्शन करना बहुत प्रशंसनीय समझा जाता है। ऐसा करने से पापों का नाश और परम कल्याणकारी प्राप्ति होती है। गायें लक्ष्मीजी की मूल हैं, उनमें पाप का लेश भी नही है। वे मनुष्यों को अन्न और देवताओं को उत्तम हविष्य देती हैं।
स्वाहा ओर वषट्कार नित्य गायों में ही प्रतिष्ठित है। गौएं ही यज्ञ का संचाचलन करने वाली और उनकी मुखरूपा हैं। गायें विकार रहित दिव्य अमृत धारण करती और दूहने पर अमृत ही प्रदान करती हैं। वे अमृत की आधार हैं। समस्त लोक उनको नमस्कार करते हैं। इस पृथ्वी पर गायें अपने तेज और शरीर में अग्नि के समान हैं।
वे महान तेजोमयी और समस्त प्राणियों को सुख देने वाली हैं। गौओं का समुदाय जहां बैठकर निर्भयता से सांस लेता है वह स्थान चमक उठता है और वहां का सारा पाप नष्ट हो जाता है। गायें स्वर्ग की सीढ़ी हैं और स्वर्ग में भी उनका पूजन होता है। वे समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली देवियां हैं। उनसे बढक़र और कोई भी नही हैं। राजन यह जो मैंने गायों का माहात्म्य कहा है सो केवल उनके गुणों के एक आशंका दिग्दर्शनमात्र है। गौओं के संपूर्ण गुणों का वर्णन तो कोई कर ही नही सकता।
तदनंतर मल्लाहों ने मुनि से उनकी दी हुई गौको स्वीकार करने के लिए कातर प्रार्थना की। मुनि ने उनकी दी हुई गौ लेकर कहा-मल्लाहो इस गोदान के प्रभाव से तुम्हारे सारे पाप नष्ट हो गये। अब तुम इन जल में उत्पन्न हुई मछलियों के साथ स्वर्ग को जाओ।
देखते ही देखते महर्षि च्यवन के आशीर्वाद से वे मल्लाह तुरंत मछलियों के साथ स्वर्ग को चले गये। उनको इस प्रकार स्वर्ग को जाते देख राजा नहुष बड़ा आश्चर्य हुआ। तदनंतर राजा नहुष की और गोजाति की पूजा की और उन्नसे धर्म में स्थित रहने का वरदान प्राप्त करके वे अपने नगर को लौट आये और महर्षि अपने आश्रम को चले गये।
(मानसप्राज्ञ पं. श्रीरामराघवदास जी शास्त्री ‘पुजारी’)