अनुराग मिश्र
वैसे तो, भारत और पाकिस्तान की कोई तुलना नहीं है। सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत का दुनिया में अपना स्थान है और पाकिस्तान को उसके जन्म के बाद से ही संदेह भरी नजरों से देखा और आतंकी मुल्क के रूप में पहचाना जाता है। ऐसे में जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान संयुक्त राष्ट्र के मंच से भारत के खिलाफ प्रोपेगैंडा फैलाने की कोशिश करते हैं तो वास्तव में वह खुद ही दुनिया के सामने अपनी पोल खोल रहे होते हैं। आज के वक्त में कोई भी देश आतंकवाद पर पाकिस्तान के आदर्श ज्ञान के झांसे में आने वाला नहीं है। दुनिया के खूंखार आतंकी संगठन अल कायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन को शरण देने वाला मुल्क खुद को आतंकवाद का पीड़ित बताए तो लोगों को हंसी तो आएगी ही। इससे एक बात और साफ हो जाती है कि आजादी के इतने साल बाद जहां भारत परिपक्व होकर उभरा है, वहीं धर्म के आधार पर अलग होने वाला भारत का ही अंश आज अपनी पहचान के लिए मोहताज है।
इमरान के दुनिया को भरमाने वाला भाषण देने के फौरन बाद ही भारतीय राजनयिक स्नेहा दुबे ने उसी मंच से पाकिस्तान को जमकर लताड़ लगाई। इस युवा राजनयिक ने इमरान के हर एक दांव को चुन-चुन कर फेल कर दिया। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बोलने के लिए ज्यादा कुछ रह नहीं जाता था। कुछ घंटे बाद जब पीएम संयुक्त राष्ट्र महासभा में बोलने आए तो उन्होंने भारत के कद को समझते हुए पाकिस्तान की ओछी हरकत को तवज्जो ही नहीं दी। यह भारत की गरिमा और प्रतिष्ठा के लिहाज से भी हल्की बात होती। एक मंझे हुए राजनेता की तरह पीएम मोदी ने दुनिया के सामने उन मुद्दों की चर्चा की, जो वास्तव में वैश्विक समस्याएं हैं और जिनका हर देश से राब़्ता है। अंतरराष्ट्रीय मंच पर किसी भी नेता को वैश्विक मुद्दे ही उठाने चाहिए यही डिप्लोमेसी कहती है। दो देशों के अपने मुद्दों के लिए द्विपक्षीय रिश्ते और बातचीत कब काम आएगी लेकिन पड़ोसी मुल्क को कौन समझाए।
पाकिस्तान को पहले डिप्लोमेसी समझनी चाहिए तभी दुनिया में वह अपनी बेइज्जती से बच सकता है। अफगानिस्तान में तालिबान आतंकियों की सरकार बनने पर पाकिस्तानी हुक्मरान जिस तरह उछल रहे थे, उससे दुनिया में यही संदेश गया है कि इस मुल्क का कुछ होने वाला नहीं है। अमेरिका ने संबंधों की समीक्षा कहने की बात कहते हुए तगड़ा झटका दिया। अब सुबह से शाम तक इमरान खान अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के फोन के इंतजार में दुबले हुए जा रहे हैं। हालात ऐसे हैं कि जब मोदी की बाइडन और कमला हैरिस से मुलाकात की तस्वीरें सुर्खियां बन रही थीं, पाकिस्तान के टीवी चैनलों और विशेषज्ञों यहां तक कि विपक्षी नेताओं के चेहरों पर भी मायूसी छाई थी। जैसी करनी वैसी भरनी… ये कहावत गलत नहीं है। आतंकियों से हमदर्दी दिखाने वाले देश को यह दिन तो देखना ही था।
उधर, जब पीएम अमेरिका की सरजमीं पर पहुंचते हैं तो ऑस्ट्रेलिया, जापान से लेकर अंतरराष्ट्रीय मीडिया में चीन के खिलाफ बने क्वाड समूह की चर्चाएं तेज हो जाती हैं। चीन भी नजरें गड़ाए देख रहा है कि कैसे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उसकी दादागिरी अब ज्यादा समय तक चलने वाली नहीं है। अंतरराष्ट्रीय कारोबार के इस अति महत्वपूर्ण क्षेत्र पर दुनिया के हर देश समान पहुंच चाहते हैं। ऐसे में भारत समेत 4 देशों के इस गुट ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है। चारों नेताओं की अमेरिका में बैठक होती है पर संयुक्त बयान में खुले तौर पर चीन का जिक्र नहीं होता। यह भी एक डिप्लोमेसी है। मीडिया कहता रहे लेकिन आधिकारिक तौर पर राष्ट्र स्वीकार नहीं करते कि कोई भी काम किसी देश के खिलाफ किया जा रहा है। इससे छवि तो खराब होती ही है, एक गलत संदेश भी जाता है।
ऐसा भी नहीं है कि पीएम ने चीन को संदेश देने की कोशिश नहीं की पर जो तरीका उन्होंने अपनाया वह कुछ वैसा ही था जैसे अपने यहां कहा जाता है न- सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। चीन से भारत का बड़ा द्विपक्षीय कारोबार है, कई तरह के हमारे हित जुड़े हैं। पूर्वी लद्दाख प्रकरण के बाद भारत ने जहां भी संभव हुआ, चीन पर नकेल कसी है लेकिन इस तरह वैश्विक मंच से चीन का नाम लेना सीधे तौर पर टेंशन बढ़ाने वाला कदम होता। ऐसे में प्रधानमंत्री ने इशारों में अपनी बात कही। उन्होंने समंदर को ‘हमारी साझा विरासत’ बताते हुए कहा कि हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि समुद्री संसाधन का सिर्फ उपयोग करना है, उनका दुरुपयोग या अति दोहन नहीं करना है। उन्होंने कहा, ‘हमारे समंदर अंतरराष्ट्रीय व्यापार की जीवन रेखा हैं। हमें विस्तार और बहिष्कार की दौड़ से उनकी सुरक्षा करनी चाहिए। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को नियम आधारित विश्व व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए एक सुर में आवाज उठानी होगी।’ यह कहकर उन्होंने उन देशों को भी साध लिया जो दक्षिण चीन सागर और अन्य क्षेत्रों में चीन के बढ़ते प्रभाव से खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं।
पीएम यूएन के मंच पर पहुंचे तो एक आम धारणा ऐसी बनी थी कि वह पाकिस्तानी पीएम के सवालों के जवाब देंगे, लेकिन अंतर क्या रह जाता। 65 घंटे के सफर में 20 बैठकें करने वाले पीएम ने कोरोना काल में भारत की अहम भूमिका को रेखांकित किया। मानवता के प्रति अपने दायित्व को समझते हुए उन्होंने बताया कि कैसे भारत ने गरीब और विकासशील देशों को वैक्सीन उपलब्ध कराई।
संयुक्त राष्ट्र महासभा को जानकारी देते हुए पीएम ने कहा कि भारत ने दुनिया का पहला डीएनए टीका विकसित कर लिया है जिसे 12 साल की आयु से ज्यादा के सभी लोगों को दिया जा सकता है। भारत के वैज्ञानिक नाक से दिए जाने वाले कोरोना के टीके के निर्माण में जुटे हैं। एक बार फिर दुनिया के जरूरतमंद देशों को टीके देने शुरू कर दिए गए हैं। उन्होंने दुनिया के टीका निर्माताओं को भारत में टीके का उत्पादन करने का न्योता भी दिया। इस तरह पीएम ने कोरोना वैक्सीन जैसे बड़े मसले पर दुनिया के सामने भारत का मजबूती से पक्ष रखा, जो भारत की साख बढ़ाने वाला था।
पीएम मोदी ने यूएन के मंच से यूएन को भी सुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने दो टूक कहा कि अगर समय के साथ इस अंतरराष्ट्रीय संस्था ने सुधार नहीं किए तो उसकी प्रासंगिकता खत्म हो जाएगी। उन्होंने सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए भारत की दमदार दावेदारी एक बार फिर पेश की। चाणक्य के शब्द दोहराते हुए उन्होंने वैश्विक समाज से कहा कि जब सही समय पर सही कार्य नहीं किया जाता, तो समय ही उस कार्य की सफलता को समाप्त कर देता है। उन्होंने कहा कि आज संयुक्त राष्ट्र के बारे में तमाम तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं। किसी भी नेता के लिए इस तरह से मंच के खिलाफ में बोलना कोई छोटी बात नहीं है, आज भारत की भूमिका दुनिया में जिस तरह से बढ़ी है, उससे यह संभव हो सका है।
अफगानिस्तान का मसला भी ज्वलंत है और पड़ोसी देश होने के नाते भारत की अपनी चिंताएं है। ऐसे में प्रधानमंत्री ने कहा कि वहां की महिलाओं और बच्चों, अल्पसंख्यकों को मदद की जरूरत है। हमें उन्हें यह सहायता प्रदान करके अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए। यह सुनिश्चित करना बेहद जरूरी है कि अफगानिस्तान के क्षेत्र का इस्तेमाल आतंकवाद फैलाने और आतंकवादी हमलों के लिए न हो। मोदी ने किसी देश का नाम तो नहीं लिया पर पाकिस्तान को निशाने पर लेते हुए यह जरूर कहा कि हमें सतर्क रहने और यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि कोई भी देश वहां की नाजुक स्थिति का फायदा उठाने की कोशिश न करे और इसे अपने स्वार्थ के लिए एक साधन के तौर पर इस्तेमाल न करे। जिसको समझना था वे समझ चुके थे, मोदी क्या और किसे कह रहे थे।
इमरान के मुस्लिम कार्ड की अपनी वजह है
अब जरा इमरान खान के भाषण पर नजर दौड़ा लीजिए। अफगानिस्तान में तालिबान सरकार के प्रति हमदर्दी जताते हुए उन्होंने दुनिया से उसे समर्थन और सहयोग देने का आह्वान किया। एक देश जिसकी माली हालत इतनी खराब है कि कार और भैंसों की नीलामी करनी पड़ रही है, वह मुल्क संयुक्त राष्ट्र के मंच से अपने पड़ोसी देश में भुखमरी और गरीबी पर चिंता जता रहा है। वैसे, किसी देश के हित में बोलना बुरा नहीं है, लेकिन यहां इमरान के मुंह से निकल रहे शब्दबाण तालिबान के लिए रहम जुटाने के लिए थे। कश्मीर राग और तालिबान प्रेम के साथ ही इमरान ने इस्लाम और मुसलमानों का मसीहा भी बनने की कोशिश की जो वह पीएम बनने के बाद से ही आजमाते आ रहे हैं।
यूएन में इस्लामोफोबिया का जिक्र करना कोई नया नहीं है। इमरान पीएम बनने के बाद हर बार यह शिगूफा छोड़ते आ रहे हैं। वह करें भी तो क्या करें, बदहाल देश में बताने के लिए कुछ है नहीं, इस्लामिक कट्टरपंथियों की पनाहगाह बन चुके मुल्क में खैरात पर इकॉनमी चल रही है। अमेरिका भी सब दांव समझ चुका है। ऐसे में पाकिस्तान की बची खुची उम्मीद मुस्लिम देश ही हैं, जो इस मुस्लिम बहुल देश को कुछ दे सकते हैं। ऐसे में इमरान के इस्लामोफोबिया के जिक्र के पीछे की मंशा समझी जा सकती है। दुनिया में ईसाई के बाद मुस्लिम आबादी सबसे ज्यादा है। तीसरे नंबर पर हिंदू आते हैं। लेकिन पाकिस्तान के हुक्मरान यह भूल जाते हैं कि उसकी जनसंख्या के बराबर मुसलमान भारत में रहते हैं और जैसा कि स्नेहा दुबे ने भी इमरान और पाकिस्तान की पूरी आवाम को सुनाया कि उनके यहां तो टॉप पोस्ट पर अल्पसंख्यकों को रोकने के लिए कानून बना दिया गया है लेकिन भारत में अल्पसंख्यक राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और आर्मी चीफ जैसी टॉप पोस्ट पर पहुंच चुके हैं।
समझना पाकिस्तान को है हर बार शोर करके बेइज्जती झेलनी है या गंभीरता दिखाते हुए पड़ोसी देश से कुछ सीखना भी है।
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