ॐ गुर्जर -गाय और वेद हिंदुत्व के आधार स्तंभ ॐ
सृष्टि में इतिहास की खोज एवं इतिहास लेखन सतत् चलने वाली प्रक्रिया है। इतिहास वेत्ता और इतिहास लेखन का अधिकारी वह है, जिसने स्वयं को पा लिया है। इतिहास लेखन के नाम पर वारेन हेस्टिंग्स के काल से अंग्रेजों द्वारा प्रारंभ की गई अखंड भारत वर्ष के इतिहास लेखन की परंपरा भ्रांति मुलक और अज्ञान युक्त है। अज्ञान संघर्ष करता है और ज्ञान प्रतीक्षा करता है, अज्ञान का स्वत: स्फूर्त ज्ञान प्राप्त करने की। अखंड भारत वर्ष का सांस्कृतिक इतिहास मंत्र दृष्टा भारतीय ऋषियों और तंत्रज्ञों ने वेद -इतिहास पुराण- यंत्र- मंत्र -तंत्र साहित्य” स्वभाव स्वतंत्र विज्ञान” रूप संग्रहित किया है।
हिंदू धर्म संस्कृति रक्षक गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज, पृथ्वीराज चौहान और अनंगपाल तोमर की प्रतिमा के अनावरण को लेकर भारतीय वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत (क्षत्रिय वर्ण) के अंतर्गत कर्म विज्ञान आधारित जन्मना जाति सामाजिक व्यवस्था स्वरूप मूलत: गुर्जर- राजपूत” इतिहास की पुस्तकों में उल्लेखित भ्रांति पूर्ण साभिप्राय: राजपूत शब्दार्थ के राजपूत जाति शब्द प्रयोग को लेकर परस्पर विवाद कर रहे हैं।
गुर्जर और राजपूत जाति शब्द के सही अर्थ को ग्रहण करने के लिए हमें भारतीय कर्म मीमांसा विज्ञान और गोत्र -प्रवर शब्दार्थ का पुनरावलोकन करना होगा। भारतीय कर्म मीमांसा कारो ने वेद विज्ञान, स्वभाव- स्वतंत्र तंत्र विज्ञान, जैन और बौद्ध दर्शन तथा हिंदू परंपरा में पुनर्जन्म के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए कर्म को जन्म और पुनर्जन्म का कारण माना है। कहीं-कहीं कर्म और ईश्वर को एक रूप अभिन्न स्वीकार किया है।
यह सनातन सत्य है कि”अज्ञान में अंत: क्रांति और जीव जगत के मूल स्वरूप की ओर उत्क्रांति या विकास- खनिज कोटि से देव कोटी तक सृष्टि क्रम अनादि काल से अनंत काल तक चलता ही रहेगा”। इसे गीता में अर्जुन को गीता उपदेश के दूसरे श्लोक से समझा जा सकता है-“मैं पहले कभी नहीं था, यह बात नहीं है, इसी प्रकार तुम और यह राजा लोग पहले नहीं थे, यह बात भी नहीं है,यह भी नहीं है कि हम सब आगे ना होंगे”यह पुनर्जन्म परंपरा त्रिकाल बाधित रूप से चलने वाली है। इसी प्रकार कर्म के महत्व को आज पूरा संसार भूल गया है। प्रत्येक मनुष्य और प्रत्येक जाति पर कर्म का प्रभाव कैसा नियमित पड़ता है, इसकी और आज किसी का ध्यान नहीं है।
गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज, पृथ्वीराज चौहान तथा अनंगपाल तोमर की जाति पर विवाद फैलाने वाले गुर्जरों-राजपूतों और देश की राजनीति को भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि वह अपने कर्म की इस प्रतिक्रिया से बच नहीं सकते हैं, इतिहास उन्हें कभी क्षमा नहीं कर सकता है।
सच्चिदानंदधन ईश्वर द्वारा भूतों की उत्पत्ति को कर्म कहा गया है। त्रिगुणात्मिका प्रकृति में रजोगुण से स्वभाव सिद्ध स्पंदन को कर्म कहा गया है। मीमांसा कारों के अनुसार कर्म के तीन भेद हैं-सहज कर्म, जैव कर्म और ऐश कर्म। सहज कर्म प्राकृतिक स्पंदन के साथ प्रकट होता है। आदि सृष्टि में ब्रह्मांड गोलक का बनना, जीव सृष्टि का उद्भिज रुप उत्पन्न होना, सहज कर्म के अंतर्गत उद्भिज योनि, स्वेदज योनि, अंडज योनि, जरायुज योनि में उत्पन्न होता हुआ जीव अंत में पूर्ण अवयव मनुष्य योनि में पहुंच जाता है।
मनुष्य योनि में जैव कर्म का उदय होता है, यही गुर्जरोदय” स्वयं की खोज” सूर्योदय गुरुत्तर गुरु वीर गुर्जर: जैव कर्म दिव्यत्व प्राप्ति का हेतु है। जिसका प्रतीक उत्तराखंड राज्य के द्वार हाट नगर में गुर्जर देव मंदिर है।
गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज को अपना पूर्वज मानने वाले गुर्जर और राजपूतों को पहले यह प्रत्यक्ष कर लेना चाहिए कि अखंड गुर्जर देव मंदिर को खंडहर रूप में परिवर्तित किसने और क्यों ?किया है? संपूर्ण अखंड भारत के खंडहर मंदिर उनकी वीरता और विवाद पर प्रश्न चिन्ह अंकित कर रहे हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है-कर्म प्रधान विश्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा।
इस दृष्टि से गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज ,पृथ्वीराज चौहान और अनंगपाल तोमर की प्रतिमा को लेकर अजेय कर्मवीर महापुरुषों की जाति को लेकर अनर्गल विवाद करने वाले लोगों को भारतीय गोत्र- प्रवर महिमा की दृष्टि से अपने पूर्वजों के गोत्र प्रवर का पुनरावलोकन कर लेना चाहिए।
भारतीय वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत जन्मना जाति व्यवस्था की निरंतरता को बनाए रखने के लिए चार अभेद्य दुर्ग कहे गए हैं। यह हमें नहीं भूलना चाहिए।
गोत्र- प्रवर अर्थात कुल परंपरा रजो- वीर्य शुद्धि मुलक संतति प्रजनन, जिसका हेतु वर्ण व्यवस्था कहीं गई है। जिसमें जन्म से जाति मानने की दृढ़ आज्ञा है। प्रवृत्ति मुलक आश्रम व्यवस्था और सतीत्व मुलक नारी धर्म की प्रतिष्ठा। गोत्र- प्रवर का संबंध सृष्टि के आदि से प्रचलित है।
प्रजापति द्वारा मानस सृष्टि से उत्पन्न ऋषियों से गोत्र -प्रवर विज्ञान का उत्स है। वर्तमान की क्षत्रिय और वैश्य जातियों में ऋषि- पुरोहित गोत्र से गोत्र- प्रवर मानने की सामाजिक व्यवस्था भी प्रचलित है। वर्तमान में स्व: जातीय अभिमान, स्वधर्म गौरव जन्मातंर विज्ञान और रजो- वीर्य शुद्धता का गौरव स्थापित करने हेतु गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज, पृथ्वीराज चौहान तथा अनंगपाल तोमर के वंशजों को परस्पर भ्रांति मुलक विवादों को भुलाकर राजनीति के हाथों का खिलौना बनने के बजाय,
हिंदुत्व पुनर्जागरण के कार्य में लगकर अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित जीवन मूल्य की पुनर्स्थापना के क्रम में देश धर्म और संस्कृति की रक्षा के कार्य में लगना चाहिए। यह वर्तमान भारत राष्ट्र के सभी सनातन संप्रदाय धर्मी हिंदुओं और कालांतर में उनसे अलग हुए सामाजिक जातीय समूहों से प्रार्थना है।
मोहनलाल वर्मा संपादक देव चेतना मासिक पत्रि
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