बिखरे मोती
देह का सार है आत्मा,
सृष्टि का है ब्रह्म।
जान सके तो जान ले,
इनमें आनन्दम्॥1496॥
व्याख्या:- पाठकों को यहां यह बता देना प्रासंगिक रहेगा कि जीवात्मा तथा ब्रह्म यह दोनों प्रज्ञ है अर्थात् ज्ञान वाले हैं,चेतना वाले हैं,जबकि शरीर तथा प्रकृति प्राज्ञ है अर्थात् ज्ञान वाले नहीं है,चेतना वाले नही है किन्तु जीव और प्रकृति पर शासन करने वाला ब्रह्म है।सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि शरीर के प्रपंच के पीछे ‘जीवात्मा’ ही सार वस्तु है,संसार के प्रपंच के पीछे ‘ब्रह्म’ ही सार वस्तु है।’जीवात्मा’ तथा ‘ब्रह्म’ ही आत्म- तत्त्व हैं, उसे ही जानना चाहिए। जो साधक इन्हें जान लेता है, वह आनन्द के सागर में अवगाहन करता है, जीवन के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करता है, मानव-जीवन को सार्थक करता है।
दैवी-आसुरी सम्पदा,
का होता परिवार।
जैसी मन की कामना,
वही करे प्रसार॥1493॥
व्याख्या:- भगवान कृष्ण गीता केस 16 वें अध्याय में अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं – हे पार्थ ! इस संसार में दो प्रकार की सम्पदायें है :- देैवी और आसुरी। ध्यान रहे,दैवी सम्पदा वालों के चित्त सात्विकता की प्रधानता होती है जबकि आसुरी – सम्पदा वालों के चित्त में राजसिकता के साथ-साथ तामसिकता की प्रधानता होती है।देैवी सम्पदा वालों के चित्त में अर्पण,तर्पण और समर्पण का भाव होता है। वे जीवन में किसी भी प्रकार की उपलब्धि को परमपिता परमात्मा की कृपा का प्रसाद अथवा आशीर्वाद मानते हैं और अपने बड़ों तथा परमपिता परमात्मा के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करके अंहकार शून्य अथवा विनम्रता का परिचय देते हैं।स्वयं को कर्ता नहीं, निमित्त मानते हैं,जबकि आसुरी सम्पदा वालों के चित्त में अहम् -भाव होता है और स्वयं को कर्ता समझते हैं।दम्भ और अहंकार उनकी वाणी और चेहरे पर झलकता है।दैवी – सम्पदा और आसुरी – सम्पदा दोनों का परिवार साथ-साथ चलता है।दोनों की मन: स्थिति अभिरुचि और अभिप्सा भिन्न होती है।
देैवी सम्पदा वालो के चित्त में अभय,अन्तःकरण की पवित्रता,ज्ञान के लिए योग में स्थित होगा अर्थात् परमात्मा तत्व का जिज्ञासु होना,उसके शरणागत होना,दान, दम,यज्ञ, स्वाध्याय में रुचि रखना,आर्जवता का होना अर्थात् शरीर,मन,वाणी में सरलता का होना,सत्य,अहिंसा,दया,शांति, अपैशुनम् अर्थात् निन्दा – चुगली से दूर रहना,मार्दवता का होना अर्थात् अन्तः करण की कोमलता का होना,तेज, क्षमा,धैर्य,शौर्य, शौच अर्थात् शारीरिक, आर्थिक और वाचिकशुद्धि का होना, अद्रोह अर्थात् मन में वैरभाव का न होना,अमानित्व का होना अर्थात् अपने में श्रेष्ठता का भाव ने होना, अहंकारशून्य रहना। पराक्रम, पुरुषार्थ, संकल्प – सिद्धि, संयम इत्यादि दिव्य गुणों का भरा -पूरा परिवार इनके साथ चलता है।प्रायः ये धन-ऐश्वर्य के स्वामी होते हैं।
अब आसुरी सम्पदा वालों के संदर्भ में विचार करते हैं। इनमें जो विवेक-विचार होता है, वह घटिया दर्जे का होता है,तुच्छ होता है।उनका दृष्टिकोण ‘Eat,drink and be marry’ वाला होता है अर्थात् ‘खाओ,पियो और मौज करो’ ऋषि चार्वाक वाले सिद्धांत पर नवीन व्यतीत करते हैं।आगे भविष्य में क्या होगा?परलोक में क्या होगा? सत्य तत्त्व क्या है? धर्म क्या है? अधर्म क्या है? सदाचार-दुराचार क्या है?और उनका क्या परिणाम होता है? इस विषय पर उनकी बुद्धि काम नहीं करती परन्तु धनादि वस्तुओं के संग्रह में उनकी बुद्धि बड़ी तेज होती है। ईश्वर और परलोका का भय न होने से उनके द्वारा दूसरों की हत्या आदि बड़े भयानक कर्म होते हैं। अहिता अर्थात् दूसरों का नुकसान करना उनका स्वभाव होता है।काम, क्रोध, राग-द्वेष, दम्भअभिमान ईर्ष्या,घृणा,लोभ, मोह, मूढ़ता, हठ, दुःसाहस,क्रूरता, अपवित्रता आलस्य ,असत्य ,प्रमाद ,प्रसक्ता अर्थात् अत्यन्त आसक्त रहने वाला, विभ्रान्ता अर्थात् कामनाओं के कारण तरह-तरह से भ्रमित चित्त वाला इत्यादि दुर्गुणों का परिवार आसुरी सम्पदा वालों के साथ चलता है। ज्यों-ज्यों आसुरी सम्पदा आती जाती है त्यों-त्यों।
क्रमशः
प्रोफेसर विजेंद्र सिंह आर्य
संरक्षक उगता भारत