* डॉ संजय पंकज
हिंदी भाषा के विकास की बात शुरू होते ही बुद्धिजीवियों की चिंता भी बढ़ जाती है। राजभाषा, राष्ट्रभाषा और विश्वभाषा के रूप में हिंदी की चर्चा करते हुए अधिकांश मनोभाव हीनता और निराशा के साथ ही प्रकट होते हैं। हिंदी के प्रति ऐसा दृष्टिकोण नया नहीं है! हर वर्ष हिंदी दिवस के आगे-पीछे सप्ताह, पखवाड़ा या मासिक आयोजनों में सरकारी, गैर सरकारी प्रतिष्ठानों में महज औपचारिकता का निर्वाह होता है। जो बातें निकल कर आती हैं उसमें विश्वास और उत्साह कम ज्यादा क्षोभ और निराशा होती है। बदलाव प्रकृति का नियम है। तकनीकी विकास के दौर में तेजी से बदलते हुए विश्व में बहुत सारे मूल्य बदल गए हैं। विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जिसको भाषा दिवस विशेष का आयोजन करना पड़ता है। स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव वर्ष में भी भाषा-विकास की चिंता आखिर क्यों ? कहने की आवश्यकता नहीं कि भारतीय संपूर्ण भाषाओं में हिंदी की व्यापकता सर्वाधिक है। समन्वय और एकता की भारतीय संस्कृति उसके भाषा-गौरव में सन्निहित है। देवभाषा संस्कृत के सबसे समीप की भाषा हिंदी है। विश्व को पता है कि संस्कृत भाषा और उसका साहित्य कितना संवर्धित, परिमार्जित और उत्कृष्ट है। विभिन्न ज्ञानधाराओं को संस्कृत भाषा में प्रस्तुत किया गया है। वेद, उपनिषद और पुराणों के साथ ही रामायण तथा महाभारत जैसे अनेक ग्रंथों का जो महत्व है उसे कभी अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है। संस्कृत भाषा की लिपि देवनागरी हिंदी की भी लिपि है। इस लिपि की वैज्ञानिकता सिद्ध और प्रमाणित है। भारत के छोटे क्षेत्र से हिंदी का उद्भव माना जाता है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध स्वतंत्रता के युद्ध के लिए भारतीय एकता में संपर्क भाषा के रूप में हिंदी का ही प्रयोग किया गया और इसके लिए सर्वमान्य स्वीकृति अहिंदी भाषी बुद्धिजीवियों, चिंतकों, स्वतंत्रता सेनानियों और राष्ट्रीय नेताओं ने दी। पूरे देश में स्वतंत्रता प्राप्ति की लहर उठी जो एकजुट होती हुई ज्वार बन गई। हिन्दी ने जो व्यापक संपर्क स्थापित करने का काम किया और उसका जैसा गहरा तथा दूरगामी परिणाम प्राप्त हुआ इसके पीछे हिंदी की सहजता, सरलता, सादगी और निष्ठा है। स्वतंत्रता, स्वाभिमान, अस्मिता और भारतीय निष्ठा की भाषा हिंदी अपनी उदारता तथा व्यापक जन स्वीकृति के कारण निरंतर अपना प्रसार करती हुई फैल गई। लोक चेतना और जन संस्कृति में जो भाषा हृदयंगम हो चुकी है उसे समाप्त करना संभव और आसान नहीं है।
हिंदी भारत की भाषा मात्र नहीं है और भी बहुत कुछ है!भारतीय जन अपने मांगलिक अनुष्ठानों तथा सारे संस्कारों में पूजा-पाठ, हवन तथा मंत्रों का प्रयोग करते हैं। मंदिरों में होने वाले भजन, संकीर्तन तथा प्रार्थनाओं में जिन देवी-देवताओं के नाम उच्चरित होते हैं वे संस्कृत वांग्मय या लोक प्रचलन से आए हैं। राम, कृष्ण और शिव भारतीय प्रज्ञा के श्रेष्ठतम प्रतिमान हैं। ये नाम और चरित संपूर्ण भारत में शताब्दियों से प्रवाहित और गुंजायमान हैं। संशय तो इतिहास के संदर्भों पर होता है! बनने-मिटने की उसी में संभावना होती है! भारत की धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना में जो पारंपरिक आस्था भरी और बसी हुई है उसे खाली करना तथा उजाड़ना किसी के बूते से बाहर की बात है। हिंदी की उत्तरोत्तर प्रगति हुई है जबकि इसको लेकर राजनीतिक इच्छाशक्ति सदा ही लुंज पुंज रही है। सोचने पर बड़ा ही विचित्र लगता है कि एक देश के कई-कई नाम हैं। यह भारत हिंदुस्तान और इंडिया भी है। हिंदुस्तान और इंडिया के द्वंद्व से भी संभवत: बहुत कुछ गड़बड़ तथा गड्डमड्ड है। स्वतंत्र भारत में भाषा-नीति को लेकर राजनेताओं के बीच जो बहस हुई तो उसका फलाफल असमंजस में आया! कुछेक नेताओं के विचार हिंदुस्तानी भाषा के पक्ष में थे। यह हिंदुस्तानी भाषा हिंदी-उर्दू मिश्रण है।इसके प्रतिवाद में तर्क दिया गया कि उर्दू भाषा नहीं शैली है। गंभीरता से भाषा-नीति पर विचार नहीं करने का परिणाम यह हुआ कि हिंदी राजभाषा तो बन गई लेकिन आज भी घोषित राष्ट्रभाषा नहीं है! राष्ट्रभाषा की अहमियत विश्व के सारे देश जानते हैं। हर देश की अपनी राष्ट्रभाषा है। भारत ही है जिसकी आज भी घोषित और निर्धारित कोई राष्ट्रभाषा नहीं है फिर भी हम गर्व से कहते हैं कि हिंदी हमारी अस्मिता,स्वाभिमान और चेतना की भाषा है। यह गर्वोक्ति कहीं हमारी हीनता-ग्रंथि तो नहीं है! बुद्धिजीवियों के लिए संभव है कि ऐसा हो मगर भारतीय लोक और जन के लिए सचमुच हिंदी गर्व, पराक्रम, स्वाधीनता और चेतना की भाषा है। भारतीय निष्ठा विरासत को बचाने और पूर्वजीय परंपरा को आगे बढ़ाने में विश्वास करती है। हिंदी हमारी परंपरा है जिसे हम थाती की तरह संभाल कर निरंतर समृद्ध करते रहेंगे। इस संपदा को हमारे पूर्वजों ने जैसे बचाया है वैसे ही हम बचाने के अघोषित संकल्प के साथ सतत गतिमान रहेंगे। दूरदर्शी कवि गोपाल सिंह नेपाली ने दशकों पहले बुलंद स्वर में गाया था –
‘दो वर्तमान का सत्य सरल सुंदर भविष्य के सपने दो
हिंदी है भारत की बोली तो अपने आप पनपने दो!
हिंदी का विकास तेजी से हुआ है। यह जन-जन का कंठहार बनती पूरे देश में सुशोभित हो रही है। विश्व के अनेक देश हिंदी को सम्मानित दृष्टि से देखते भर नहीं बल्कि उसे अंगीकार भी कर रहे हैं। अब तो हिंदी बाजार की भाषा है इसलिए स्वाभाविक रूप से विश्वभाषा बन गई है। चीनी भाषियों की संख्या सबसे बड़ी है मगर चीन की घनी आबादी से बाहर आखिर किन-किन देशों में चीनी भाषा का प्रचलन है यह भी हमें सोचना चाहिए? अंग्रेजी भाषा ब्रिटिश साम्राज्यवाद के कारण भले ही व्यापक रूप से फैल गई मगर सिमट गया जब ब्रिटेन ही तो फिर इसके फैलाव का विवेकपूर्ण औचित्य अब कहां रहा? यह मानसिक गुलामी है जिसे कई देश ढो रहे हैं। ब्रिटिश गुलामी से मुक्त भारत भाषायी गुलामी में बुरी तरह से जकड़ा हुआ है इसीलिए हिंदी दिवस का आयोजन करते हुए लगभग पूरे महीने चिंतन से ज्यादा गंभीर रूप से चिंता व्याप्त रहती है। हिंदी विश्व के अनेक देशों में बोली, लिखी और समझी जाने वाली विश्वभाषा के रूप में समादृत है। कोरोनावायरस के कारण चीन की विश्वसनीयता संपूर्ण संसार में कमजोर हुई है। चीन के उत्पादनों का बाजार भी सिमट गया है। भारत ने विश्व के अनेक देशों के उत्पादनों के लिए अपना द्वार खोल दिया है। भारत में आने के लिए दो सौ ज्यादा देशों ने हिंदी में अपने छात्रों को प्रशिक्षित करना शुरू कर दिया है।
हिंदी के प्रसार में भारतीय साहित्य, सिनेमा,रेल, बैंक, हिंदी अखबारों, दूरदर्शन चैनलों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों का भी महत्वपूर्ण योगदान है। 1893 में शिकागो के विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद के माध्यम से पूरे ऐश्वर्य के साथ भारत खड़ा हुआ था। संसार की आशा भरी दृष्टि भारत की ओर पुरजोर ढंग से उठी। विश्व बंधुत्व और संकटमोचक के रूप में भारत विवेकानंद के शौर्य से भासमान हुआ। स्वामी दयानंद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश जैसी विशिष्ट और अति महत्वपूर्ण कृति को हिंदी में प्रस्तुत किया। भारतीय धर्मचार्यों, धार्मिक संस्थानों तथा प्रवचन कर्ताओं का हिंदी के प्रसार-प्रचार में ऐतिहासिक और शाश्वत महत्व है। अजातशत्रु और सर्वप्रिय अटल बिहारी वाजपेयी के हिंदीप्रेम तथा संकल्प ने संयुक्त राष्ट्र संघ में जब हिंदी को गुंजायमान किया तो संसार भली-भांति हिंदी भाषा की आत्मीयता से परिचित हुआ और फिर वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे पूरे भारत तथा भारत से बाहर राजनीतिक सद्भाव के साथ प्रतिष्ठित किया। हिंदी भारत की भाषा मात्र नहीं बल्कि अस्मिता है। सूर, तुलसी, कबीर जैसे स्वाभिमानी तथा सांस्कृतिक साहित्य साधकों ने इस भाषा को गौरव शिखर पर स्थापित किया। हिंदी तो सचमुच भारत की प्रकृति है। प्रकृति में बदलाव होता है उसका समापन नहीं। बीज मिट्टी की पथरीली परतों को चटका कर अंकुरित होता है। उचित वातावरण में बीज वृक्ष बनकर विशाल होता है। वृक्ष की विशालता से उसकी समृद्ध वंशवृद्धि होती है। हिंदी की वृद्धि- समृद्धि भरपूर संतोष देनेवाली है। ऐसे में निराशावादी स्वर महज बुद्धिजीविता का अनर्गल भड़ास तथा प्रलाप है। निरंतर विकसित और फैलती हुई हिंदी भाषा कभी शिथिल और विचलित नहीं हुई, यह तो प्रमाणित है। इसके विकास के प्रति संशयपूर्ण दृष्टिकोण भ्रामक और निर्मूल है। भारतीय स्वतंत्रता की भाषा हिंदी अंधकार से प्रकाश की सुदृढ़ यात्रा करते हुए ऊंचाई की ओर लगातार अग्रसर है। संशय करने वालों के लिए इतना ही कहा जा सकता है कि –
कुछ नहीं दिखता था अंधेरे में मगर आंखें तो थीं,
ये कैसी रौशनी आई कि लोग अंधे हो गए!
भारत की राजनीतिक इच्छाशक्ति संकल्पित होकर अपनी दृढ़ता का अगर व्यापक परिचय दे तो हिंदी के प्रति थोड़ी बहुत हमारी जो झिझक और शंका है निश्चित रूप से वह पूर्णत: समाप्त हो जाएगी। हमें तो महाप्राण निराला के स्वर में गाना चाहिए –
भारति जय विजय करे,
कनक शस्य कमल धरे!
भारत की भारती यह हिंदी विश्वभाल पर अपने आलोक के साथ चमकती हुई एक ऐसी दिव्य बिंदी है जिसमें विराट आत्मीयता और शाश्वत प्रेम अंतर्भुक्त है। मंत्रसिंचित शीतलता की वाणी हिंदी में सूर्य का दिप्त जागृति- आलोक है तो निर्मल चांद की निष्कलुष उज्जवलता भी है। इसे किसी दूसरी भाषा से प्रतिद्वंद्विता और प्रतिस्पर्धा नहीं है। एक महासमुद्र है हिंदी जिसमें अनेकानेक भाषायी नदियां आकर अंतर्लीन हो जाती हैं। हर भाषा का अर्थ-व्यापक शब्द इसे स्वीकार्य है।
‘ होता है सूरज का प्रभाव तो होता रहे,
समुद्र में उछाल तो चांद ही लाता है!
‘शुभानंदी’
नीतीश्वर मार्ग, आमगोला
मुजफ्फरपुर – 842002
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