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संपादकीय

जनसांख्यिकीय आंकड़े और मुसलमान

भारत में साम्प्रदायिक आधार पर जनसांख्यिकीय आंकड़े जारी कर दिये गये हैं। जिनके अनुसार देश की कुल जनसंख्या का 79.8 प्रतिशत हिंदू हैं। 14.2 प्रतिशत मुसलमान हैं। 2.3 प्रतिशत ईसाई हैं, 1.7 प्रतिशत सिख हैं, 0.4 प्रतिशत जैन और 0.7 प्रतिशत अन्य लोग हैं। इसके अतिरिक्त 0.2 प्रतिशत लोग देश में ऐसे भी हैं, जिन्होंने जनगणना के समय अपना धर्म नही बताया था।

देश में सबसे तेजी से मुस्लिम आबादी में वृद्घि हो रही है। 2001 की जनगणना के समय मुस्लिम जनसंख्या तेरह करोड़ 81 लाख थी जो कि कुल जनसंख्या का 13.4 प्रतिशत था। पिछले एक दशक में यह जनसंख्या साढ़े तीन करोड़ बढक़र देश की कुल जनसंख्या का 14.2 प्रतिशत भाग हो गयी है। इस एक दशक में मुस्लिम जनसंख्या 24.6 प्रतिशत बढ़ी है। इस वृद्घि दर से देश में जनसांख्यिकी संतुलन गड़बड़ाएगा और सामाजिक परिस्थितियों में भी हमें परिवर्तन होते दिखाएंगे। स्पष्ट है कि ये परिवर्तन नकारात्मक भी होंगे।

साम्प्रदायिक आधार पर जारी किये गये इन आंकड़ों के संदर्भ में हमारा मानना है कि देश में हिंदू की परिभाषा को एक रूप देकर स्थिरता प्रदान किया जाना समय की आवश्यकता है। मौहम्मद करीम छागला (महाराष्ट्र हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस) के अनुसार हिंदुस्थान का हर निवासी वैसे ही एक हिंदू है जिस प्रकार चीन का निवासी चीनी, अमेरिका का निवासी अमेरिकन और जापान का निवासी स्वाभावत: जापानी है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी हिंदू धर्म को एक जीवन प्रणाली माना है। इसे संप्रदाय नही कहा जा सकता, क्योंकि संप्रदाय वह होता है जिसका कोई प्रवत्र्तक होता है। कोई भी व्यक्ति यह दावा नही कर सकता कि हिंदू धर्म का प्रवर्तक अमुक ऋषि, महापुरूष या अमुक सम्राट रहा है। ऐसी ही मान्यता पश्चिमी जगत के विद्वानों की हिंदू और हिंदुत्व के प्रति रही है।

अब प्रश्न यह आता है कि जब बुद्घिजीवी वर्ग में प्रामाणिक आधार पर यह सिद्घ है कि हिंदू और हिंदुत्व एक जीवन प्रणाली है और यह भी कि ये दोनों शब्द इस देश की राष्ट्रीयता के परिचायक हैं तो हिंदू को फिर एक संप्रदाय के रूप में प्रदर्शित करने की क्या आवश्यकता है जैसा कि ये आंकड़े बताते हैं। इससे तो हम पुन: एक वितरण्डवाद खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं, अपने पुरातन सांस्कृतिक मूल्यों की सुरक्षा के स्थान पर हम उनका विनाश करते जा रहे हैं।

वीर सावरकर ने इस भारत भूमि को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि मानने वाले हर व्यक्ति को हिंदू माना है। उनकी हिंदू की यह परिभाषा और भी सरल है हिंदू महासभा का चिंतन भी यही रहा है। इस देश के इतिहास, धर्म, संस्कृति और इतिहास नायकों के प्रति आदर भाव रखना और उस आदरभाव से नि:सृत सांस्कृतिक विचारों के आधार पर जो सामाजिक और राष्ट्रीय परिवेश बनता है, वही इस देश की राष्ट्रीयता है और वही हिंदुत्व है। उस उच्च अवस्था में मानवतावाद के नीचे सारे संप्रदाय आ जाते हैं। जहां हर किसी को अपनी धार्मिक और साम्प्रदायिक परंपराओं पूजापाठ आदि को अपनाने की पूर्ण स्वतंत्रता होगी।

अब जो आंकड़े प्रस्तुत किये गये हैं उनके अनुसार हिंदू को एक वर्ग या संप्रदाय के रूप में दर्शित प्रदर्शित किया गया है। इसे पूर्णत: अवैज्ञानिक, अतार्किक और इस देश की परंपरा के विपरीत कहा जाएगा। फिर भी जो आंकड़े आये हैं और उनमें मुस्लिम जनसंख्या की वृद्घि में जिस प्रकार के संकेत दिये गये हैं वह भविष्य की एक खतरनाक तस्वीर की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं। इससे साम्प्रदायिक तनाव और दुराव की भावना में वृद्घि होगी। मुस्लिम साम्प्रदायिकता और बढ़ेगी। इसके अतिरिक्त मुसलमान जो कि पहले  से ही निर्धनता अशिक्षा और बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहे हैं बढ़ती जनसंख्या के कारण वह और भी अधिक इन विसंगतियों के भंवर जाल में फंसेंगे। जिससे दीर्घकाल तक उनका निकलना असंभव है। इसका कारण यही है कि इस संप्रदाय पर आज भी कठमुल्लों का वर्चस्व है। इन मठाधीशों के भंवरजाल को तोडने के लिए इस्लाम में भीतर ही भीतर बड़ी क्रांति की आवश्यकता है और यह क्रांति एक निर्धन, अशिक्षित और बेरोजगार मुस्लिम समाज नही कर सकता। क्रांति के लिए शिक्षित समाज की आवश्यकता होती है, जिसे कठमुल्ला बनने नही देंगे। क्रांति से बचने के लिए ही कठमुल्ला भारत के मुसलमानों को शिक्षित नही होने देते हैं। वे उन्हें वही मजहवी तालीम देते हैं जो मुस्लिम समाज को उनके प्रति समर्पित बनाये और जिसके माध्यम से उनका मुस्लिम समाज पर वर्चस्व स्थापित रह सके।

जो मुस्लिम अधिक जनसंख्या बढ़ाकर एक अलग देश का सपना दिखाकर मुस्लिमों को बहकाने की कोशिश करते हैं, उनके सामने पाकिस्तान का उदाहरण है जो यह बताता है कि अलग देश ले लेने से निर्धनता, अशिक्षा व बेरोजगारी जैसी समस्याएं समाप्त नही हो जाती हैं। ये तब और भी अधिक विकराल रूप ले लेती हैं। पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था आज ध्वस्त होने के कगार पर है और केवल भारत को बर्बाद करने के अपने ‘भूत’ के कारण यह देश स्वयं ही बर्बाद हो चुका है। परिवर्तित परिस्थितियों में ‘ग्लोबलाइजेशन’ के इस युग में साम्प्रदायिक संकीर्णता से सामाजिक विकास बाधित होता है, और मानव-मानव न रहकर दानव बनता जाता है। इस्लाम का स्वरूप सुधारने के लिए मुस्लिमों के उदार और सुशिक्षित लोग बाहर आयें और इस संप्रदाय को एक निश्चित दिशा व दशा देने का ठोस कार्य करें। यदि इन आंकड़ों से कुछ ऐसे संकेत और संदेश प्राप्त करके कार्य किया गया तो ही इसका लाभ है, अन्यथा तो हानि ही हानि है।

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