संजीव सिंह
भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं। विडंबना यह है कि योगी आदित्यनाथ, जिन्होंने पिछले कुछ वर्षों में विकासोन्मुख नेता के रूप में अपनी छवि बनाई है, उन्हें एक ऐसे समुदाय से नाराजगी और गुस्से का सामना करना पड़ रहा है जो उनको जी-जान से प्यार करता है – वह हैं राजपूत जिनको राज्य में ठाकुर के रूप में भी जाना जाता है। विधानसभा चुनावों से कुछ महीने पहले, ग्रेटर नोएडा के दादरी पीजी कॉलेज में एक छोटा सा प्रतिमा-अनावरण कार्यक्रम गूजर और राजपूत समुदायों के बीच एक ऐतिहासिक बहस का केंद्र बन गया है। इसने योगी आदित्यनाथ को एक नया सिरदर्द दे दिया है।
सम्राट मिहिर भोज की जाति को लेकर गरमाई वेस्ट यूपी की सियासत
सम्राट मिहिर भोज नौवीं शताब्दी के महानतम राजा थे जिन्होने अपनी तलवार और सक्षम प्रशासन के बल पर इस्लामी आक्रमणकारियों को सिन्ध पार नहीं करने दिया था। उनकी प्रतिमा के अनावरण को लेकर विवाद तब शुरू हुआ जब प्रतिमा की पट्टिका पर गुर्जर सम्राट लिखा गया। गूजर समुदाय का दावा है कि सम्राट मिहिर भोज गूजर हैं क्योंकि कुछ इतिहास की पाठ्यपुस्तकें उन्हें गुर्जर-प्रतिहार वंश से संबंधित बताती हैं। राजपूत समुदाय इससे नाराज है क्योंकि यह साबित करने के लिए पर्याप्त ऐतिहासिक साक्ष्य और सबूत हैं जो बताते हैं कि मिहिर भोज शाही प्रतिहार राजपूत वंश से संबंधित थे। इतिहास के उस दौर मे ‘गुर्जर’ शब्द हमेशा एक भूभाग (राजस्थान और गुजरात के कुछ हिस्सों)के लिये प्रयोग किया जाता था ना कि किसी जाति विशेष के लिये। राजपूतों को कॉलेज में स्थापित मूर्ति से कोई समस्या नहीं है क्योंकि सम्राट मिहिर भोज एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं; उनका गुस्सा विशेष रूप से प्रतिहार राजपूत राजा को पट्टिका में गलती से ‘गुर्जर’ कहे जाने पर है। वे इसे अपने इतिहास के विनियोग के रूप में देखते हैं।
नाराज़गी का सबसे बड़ा कारण यह है कि योगी आदित्यनाथ, जो राजपूत युवाओं में भी बहुत लोकप्रिय हैं, ने सम्राट मिहिर भोज की मूर्ति का अनावरण किया जिन्हे गुर्जर के रूप में चित्रित किया गया है। पिछले कुछ दशकों से यही माना जाता है कि राजपूत समुदाय अंदरूनी कलह के कारण विभाजित रहता है। परंतु इस घटना ने दिखा दिया का आज का राजपूत युवा अपने अतीत को छोड़ कर एकजुट होने को तैयार है। उनकी सामूहिक ताकत जब दिखी जब युवाओं ने ट्वविटर जैसे सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म पर 17 सितंबर को जैसे हैशटैग टॉप ट्रैन्ड्स मे शामिल कर दिया। इन तीनों हैशटेग पर क्रमश: 3 लाख से अधिक ट्वीट्स किये गये। ऑनलाइन आंदोलन की सुगबुगाहट ज़मीन पर भी दिखी जब कई राजपूत संगठनों ने दादरी में शक्ति प्रदर्शन की कोशिश की। हालांकि स्थानीय प्रशासन ने स्थिति पर काबू पाने में कामयाबी हासिल कर ली थी। कुछ समाचार एजेंसियों से पता चलता है कि 22 सितंबर को होने वाले आयोजन के 30 किमी के दायरे में आने वाले अधिकांश राजपूत गांवों में पुलिस ने कड़ी निगरानी रखी थी। यह भाजपा के लिए चिंता का विषय होना चाहिए, खासकर चुनावी मौसम के दौरान, जब विपक्षी दल भाजपा पर निशाना साधने के लिये भावनात्मक मुद्दों की तलाश कर रहे हैं।
विभिन्न अनुमानों के अनुसार, पश्चिमी यूपी में गूजर लगभग 2% मतदाता हैं और वे नोएडा और अविभाजित मुजफ्फरनगर जिलों में 6-8 सीटों को प्रभावित कर सकते हैं। राज्य में राजपूत वोट लगभग 10-12% है और समान रूप से फैला हुआ है। राजपूत बड़े मतदान पैटर्न पर प्रभाव डालते हैं, यही वजह है कि उन्हें राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव लड़ने के लिए अधिक सीटें मिलती हैं। पिछले कुछ समय से देखा गया है कि अधिकांश समुदाय राजनीतिक सत्ता मे बड़ा हिस्सा पाने के लिये अपनी संख्या बढ़-चढ़ कर बताते हैं। किंतु अगर हम भारत मे हुई जाति आधारित अंतिम जनगणना रिपोर्ट के हिसाब से देखें तो वास्तविक संख्या बनाम दावा की गई संख्या साफ हो जाती है। 1931 की जाति जनगणना के अनुसार, तत्कालीन युनाईटेड प्रॉविंसेस (अब उत्तर प्रदेश) में गूजरों की जनसंख्या 0.7% और राजपूतों की जनसंख्या 7.2% थी।
भले ही योगी आदित्यनाथ राज्य भर में एक लोकप्रिय नेता के रूप मे उभरे हैं, लेकिन भाजपा का चुनावी गणित अब भी बिगड़ सकता है। गाज़ियाबाद और सहारनपुर के बीच पश्चिमी यूपी की लगभग 120 सीटों पर राजपूत वोट भाजपा की धार को कुंध सकता है। यह योगी आदित्यनाथ के लिए विडंबना होगी कि जिन्हें केवल एक राजपूत नेता के रूप में ब्रांडेड किया जाता है और अक्सर मुख्यधारा की मीडिया उनको राजपूतों के लिए एक सॉफ्ट कॉर्नर रखने के लिये उनकी आलोचना करती है, उन्हें उसी समुदाय के आक्रोश का सामना करना पड़ रहा है। शायद इस पहलू पर मीडिया कवरेज की कमी का एकमात्र कारण यह है कि यह मुद्दा उनके लोकप्रिय नैरेटिव में फिट नहीं बैठता है।
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