देविंदर शर्मा
वर्ष 1995 में विश्व व्यापार संगठन के वजूद में आने के कुछ दिन बाद, मुझे लंदन के ‘द इकोलॉजिस्ट’ ने भारतीय और यूरोपियन किसान के बीच तुलनात्मक लेख लिखने को आमंत्रित किया था। इसके पीछे मंशा यह जानने की थी कि भारत के खेतों में फसल उगाने के लिए होने आने वाला खर्च क्योंकि अपेक्षाकृत कम है तो क्या उन्हें अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का विकल्प खुलने का कोई आर्थिक लाभ हुआ है। यह वह आम धारणा है, जिसे मुख्यधारा के अर्थशास्त्रियों ने, किसानों के विरोध के बावजूद, व्यापार संधि पर हस्ताक्षर को न्यायोचित बताने के लिए तैयार किया था। उनमें एक तर्क तो विश्व व्यापार संगठन की इस संधि को किसानों के लिए बड़ा ‘धमाकेदार मौका’ बताने तक चला गया। इस उम्मीद के साथ कि कृषि उत्पाद के निर्यात में बहुत बड़ा उछाल आएगा, किसान की आमदनी बढ़ने का कयास लगाया था, जिससे भारतीय कृषि की सूरत में बदलाव आना तय माना गया था। लेकिन इस बात के कोई पुख्ता सुबूत उपलब्ध न होने के कारण और बताए जा रहे कथित फायदों के नदारद होने पर, वास्तव में मैंने भारतीय किसान की तुलना यूरोपियन नस्ल की गाय से की थी।
विश्व व्यापार संगठन के अस्तित्व में आने के लगभग 26 साल बीतने के बाद, कृषि और ग्रामीण भारत पर राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन की पिछले हफ्ते आई नवीनतम रिपोर्ट में जो मंज़र सामने आया है, वह शोचनीय है। यह वस्तुस्थिति आकलन अध्ययन वर्ष 2018-19 में हुआ था। सर्वे रिपोर्ट में आय के हिसाब से किसान और गाय लगभग एक से हैं, लेकिन जो कुछ सामने आया है वह भयावह है– एक औसत भारतीय किसान की कमाई खेत-मजदूर से भी कम है। यदि आजादी के 75 साल भी किसानों की आमदनी अपने खेतों में काम करने वाले मजदूर से कम है, तो यह केवल यही दिखाता है कि जानबूझ कर बनाई गई आर्थिक नीतियों का मंतव्य कृषक की आमदनी इतनी कम रखना है कि मजबूरन खेती छोड़ शहरों की ओर पलायन करे, क्योंकि वहां सस्ते मजदूरों की जरूरत है, और बरसों से यही लीक चल रही है।
वर्ष 2012-13 में जब आखिरी वस्तुस्थिति आकलन अध्ययन हुआ था, तब एक कृषक परिवार की आमदनी कुल उपज की लगभग 48 फीसदी थी, जो वर्ष 2018-19 आते-आते 38 प्रतिशत से नीचे चली गई। जबकि इसी अवधि में केवल खेत-मजदूर के वेतन का हिस्सा 32 फीसदी से बढ़कर 40 प्रतिशत हो गया। औसत कृषक परिवार की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा वेतन देने में निकल जाता है, और उम्मीद है आने वाले सालों में भी यह चलन बना रहेगा। ‘कुल किये गए भुगतान’ के आधार पर की गणना के मुताबिक एक किसान परिवार की कुल मासिक आय 10,218 रुपये बैठती है। यदि इसकी तुलना वर्ष 2012-13 में रही आय यानी 6426 रुपये से करते हुए और मुद्रास्फीति जोड़ने के बाद इसमें 16 फीसदी की मामूली बढ़ोतरी हुई है। ‘किये गए भुगतान’ और अन्य अवयवों को शामिल करने के बाद वर्ष 2018-19 में किसान की औसत मासिक आय 8337 रुपये बनती है। इस अन्य अवयवों का मतलब है- खेती करने में घर खर्च से डाला गया पैसा, बकाया मजदूरी, मशीनरी, बीज इत्यादि पर पल्ले से किया खर्च। तथापि जहां तक फसल उगाने की बात है, एक औसत कृषक परिवार की वर्ष 2018-19 में मासिक आय 3,798 रुपये रही थी। अब वास्तव में, जब इसमें मुद्रास्फीति को भी जोड़ें तो 2012-13 से 2018-19 के बीच आय में दरअसल 8.8 प्रतिशत की कमी हुई है। इसको आगे यदि दिहाड़ी के हिसाब से बताया जाए, जैसा कि एक अखबार में छपा हैरान करने वाला विश्लेषण बताता है, तो खेती से हुई रोजाना आय मात्र 27 रुपये बैठती है! यहां तक कि मनरेगा में काम करने वाला मजदूर इससे ज्यादा दिहाड़ी बना लेता है। इससे केवल वही निष्कर्ष निकलता है, जो मैं सालों से कहता आया हूं–किसान को मिल रही भोजन पैदा करने की सजा। किसी भी सूरत में, खेती से होने वाली रोजाना आय एक दुधारू गाय से होने वाली आय से भी कम है, क्योंकि डेयरी से निकलने वाले एक लिटर दूध की थोक कीमत लगभग 30 रुपये है।
जितनी कृषि-आय कम होगी उतना ही आगे कर्ज लेने में मुश्किल पेश आएगी, कई बार विभिन्न स्रोतों से ऋण लेना पड़ता है। किसान के सिर चढ़ा औसत कर्ज, जो वर्ष 2012-13 में 47,000 था वह 2018-19 में बढ़कर 74,100 रुपये हो गया। भारत के कुल किसानों का लगभग आधा यानी 50.2 प्रतिशत के सिर पर पर कर्ज बकाया है। हैरानी की बात है कि मिजोरम में बकाया ऋण में भारी-भरकम 709 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है, इसके बाद सूची में उत्तर-पूरब से असम और त्रिपुरा का स्थान है।
हाल ही में, मार्च, 2021 के अंत में, संसद को बताया गया है कि किसानों की तरफ रहता कुल बकाया ऋण 16.8 करोड़ है, सूची में सबसे ऊपर तमिलनाडु है। यह देखते हुए कि भारत में लगभग 77 फीसदी परिवार खेती आधारित स्व-रोजगार वाले हैं और इनमें 70.8 फीसदी के पास 1 हेक्टेयर से भी कम कृषि भूमि है। 1 से 2 हेक्टेयर वाले किसानों की गिनती केवल 9.9 प्रतिशत है। परिवार की कृषि से होने वाली आय वह मानी जाती है, जहां एक घर में 4,000 रुपये से ऊपर की आमदनी खेती और अन्य संबंधित गतिविधियों से हुई हो, और घर का कम से कम एक सदस्य सालभर निरोल रूप से किसानी करता हो। अब देशभर में चूंकि 10 हेक्टेयर से ज्यादा भूमि वाले किसान महज 0.2 प्रतिशत हैं, तो यह तथ्य उस भ्रामक प्रचार की हवा निकालने को काफी है, जिसमें कहा जा रहा है कि मौजूदा किसान आंदोलन वस्तुतः बड़े किसानों द्वारा चलाया जा रहा है।
किसान छोटा हो या बड़ा, उसको हक से बनती कमाई से महरूम रखना उस कुटिल नीति के तहत है जिसे पिछले कुछ दशकों में एक-के-बाद-एक बनी केंद्रीय सरकारों ने आगे बढ़ाने का काम किया है ताकि लोगों को खेती से हटाया जाए। विश्वबैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी संस्थाएं चाहती हैं कि ग्रामीण जनसंख्या शहरों की ओर पलायन करे, ऐसा करना उस बलवती आर्थिक सोच के तहत है कि शहरी जनसंख्या की गति बढ़ने से तेज आर्थिक विकास स्वतः बनता है, खेती को तौर-तरीकों को जानबूझ कर पुरानी लीक पर कायम रखने से ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि किसान खुद से खेती से तौबा कर पलायन करने को मजबूर हो जाए। हैरानी नहीं होगी यदि वस्तुस्थिति आकलन सर्वे की रिपोर्ट 2018-19 को मुख्यधारा के अर्थशास्त्री आधार बनाकर शहरों की ओर पलायन वाली योजना में और तेजी लाने के लिए कहने लगें।
जबकि होना उलटा चाहिए। जहां भारत के खाद्यान्न उत्पादन ने वर्ष 2020-21 में रिकॉर्ड 30.86 करोड़ मीट्रिक टन का आंकड़ा छुआ है, साल-दर-साल उपज बढ़ी है, इसके विपरीत खेती से होने वाली आय नीचे की ओर जा रही है। ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) द्वारा पिछले 20 सालों (2002-21) पर तैयार प्रॉड्यूसर सब्सिडी एस्टीमेट हमें बताता है कि वियतनाम, अर्जेंटाइना और भारत, ऐसे तीन देश हैं जो अपने किसानों पर नेगेटिव टैक्स लगा रहे हैं। कुल कृषि आय के आधार पर भारत ने अपने किसानों पर लगभग माइनस 5 फीसदी कम कर टैक्स लगा रखा है।
किसान अब समझ गया कि सरकार का नए कृषि कानून थोपना दरअसल खेती संकट में आगे और इजाफा करने का वादा भर है। जो कुछ वह मांग रहे हैं, वह यही कि कृषि आय नीति पर पुनर्विचार हो, जहां खेती, गैर-कृषि स्रोतों से आई कमाई लगाए बिना, अपने आप में आर्थिक रूप से व्यावहारिक बन सके।