अगर शुद्ध भारतीय साहित्य की रचना की चर्चा करें तो एक मध्यकालीन रचनाकार, कवि और आध्यात्मिक विवेचनकर्ता की चर्चा आवश्यक हो जाती है, जिनका नाम है तुलसीदास। संस्कृत में लिखी वाल्मीकि रामायण को किसी विद्वान के विश्लेषण के बगैर समझ पाना कठिन था, लेकिन जब अवधी भाषा में तुलसी ने रामचरितमानस जैसा महाकाव्य लिखा तो पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम का चरित्र मानो घर-घर पहुंच गया।
तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की और उसे लोगों को सुनाना भी प्रारम्भ किया। रामचरितमानस लोकप्रिय होने लगा। काशी के कुछ लोगों ने ईष्र्यावश उनके ग्रंथ को नष्ट करने का प्रयास किया। व्यथित होकर तुलसीदास जी ने ग्रंथ अपने मित्र टोडरमल के पास रखवा दिया और अपनी आश्चर्यजनक स्मृति से रामचरितमानस की पुन रचना की। रामचरितमानस दोगुनी गति से लोकप्रिय होने लगा। तत्कालीन आचार्य मधुसूदन सरस्वती जी उसे देख कर बहुत प्रसन्न हुए और उस पर अपनी ओर से यह टिप्पणी लिख दी- आनन्दकानने ह्यस्मिंजंगमस्तुलसीतरु:। कवितामंजरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥ अर्थात् काशी के आनंद-वन में तुलसीदास साक्षात् चलता-फिरता तुलसी का पौधा है। उसकी काव्य-मंजरी बड़ी ही मनोहर है, जिस पर श्रीराम रूपी भंवरा सदा मंडराता रहता है।
मध्यकालीन समाज में जब विभिन्न कुरीतियां समाज को प्रभावित कर रही थीं, ठीक उस समय तुलसीदास जी ने रामचरितमानस और अन्य ग्रंथों के माध्यम से सीताजी का 16 वर्ष में विवाह, भगवान श्रीराम की न्याय व्यवस्था आदि घटनाओं का उल्लेख कर समाज को नई दिशा देने का प्रयास किया। तुलसीदास ने कई कालजयी ग्रन्थों- वैराग्य संदीपनी, रामाज्ञाप्रश्न, जानकी-मंगल, रामचरितमानस, सतसई, पार्वती-मंगल, गीतावली, विनय-पत्रिका, कृष्ण-गीतावली, बरवै रामायण, दोहावली और कवितावली आदि की रचना की। इन सभी ग्रंथों में जहां एक ओर भगवान श्रीराम सम्बंधी दर्शन दिखता है, वहीं सामाजिक चेतना सम्बंधी कार्य भी उल्लिखित हैं।
एक घटना का वर्णन करते हुए जब तुलसीदासजी कहते हैं, बोले राम सकोप तब… तो भले ही यह परिलक्षित होता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम को क्रोध भी आता है, लेकिन ‘सकोप’ शब्द का अर्थ केवल क्रोधयुक्त होना नहीं, बल्कि सकारात्मक क्रोध से है, जो मनुष्य मात्र के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने के लिए किया गया व्यक्तित्व दर्शन मात्र है। गोस्वामीजी पन्थ व सम्प्रदाय चलाने के विरोधी थे। उन्होंने स्वराज्य के सिद्धांत , रामराज्य का आदर्श आदि को समाज में स्थापित करने का प्रयास किया। तुलसीदास जी ने भगवान श्रीराम से अनुराग और उनकी भक्ति के साथ-साथ शिवजी के रुद्रावतार हनुमान जी की आराधना कर शैव और वैष्णवों के बीच मध्यकालीन समाज में बढ़ी हुई दूरी को भी कम करने का प्रयास किया, जो आध्यात्मिक और सामाजिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।