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भारतीय राष्ट्रीयता परखने वाला युद्ध

हरीश खरे

आज से 50 साल पूर्व इसी महीने भारतीय राष्ट्रीयता की परीक्षा हुई थी। पाकिस्तान ने भारत पर एक युद्ध थोपा था। यह पहला मौका था जब देश ने पंडित जवाहरलाल नेहरू की अनुपस्थिति में गंभीर संकट का सामना किया।

देश तब तक भारत-चीन सीमा पर हुई क्षति से उबर नहीं पाया था परंतु उस टकराव का स्थान कम आबादी वाला क्षेत्र था। इस बार देश को अपने ऐसे इलाके में विषम परिस्थितियों में बचाव करना था, जो भौगोलिक दृष्टि से देश का हृदय-स्थल था। पाकिस्तान ने सुनियोजित तरीके से आक्रमण के लिए ऐसा वक्त चुना जब भारत बड़ी विषम चुनौतियों से जूझ रहा था। हम उस वक्त को याद करें तो भारत तदर्थवाद के दौर से गुजर रहा था। पंडित जवाहरलाल नेहरू का अवसान हो चुका था और नये प्रधानमंत्री जनमानस के बीच अपनी छवि नहीं गढ़ पाये थे। यहां तक कि सत्ताधारी पार्टी तक में उनके नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह लगाये जा रहे थे। देश की आर्थिक हालत अच्छी नहीं थी। विदेशी मुद्रा संकट व खाद्यान्न की कमी का देश सामना कर रहा था। यदि नगा आंदोलनकारी उत्तर-पूर्व में मुश्किल पैदा कर रहे थे तो कश्मीर घाटी में भी बेचैनी थी। इसी बीच जनवरी, 1965 के तीसरे हफ्ते में भाषाई विवाद का संकट सामने आया। संवैधानिक प्रावधानों में उल्लेखित था कि 26 जनवरी, 1965 को देश की राजकाज की भाषा अंग्रेजी से हिन्दी हो जायेगी। इसके खिलाफ सारा दक्षिण भारत विरोध में उठ खड़ा हुआ और इस राजनीतिक भूचाल का केंद्र मद्रास था। अचानक ही केंद्र सरकार की संघीय ढांचे की पकड़ संदेहों के घेरे में आ गयी। आंतरिक रूप से लोकतांत्रिक व्यवस्था सहमति और समझौते का विकल्प प्रस्तुत करती थी लेकिन बाहरी लोगों ने भारतीय लोकतंत्र के लचीलेपन के गलत निष्कर्ष निकाले।

शायद सबसे गलत निष्कर्ष पाकिस्तान के राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अयूब खान का था, जिन्होंने लालबहादुर शास्त्री को कमजोर नेतृत्व के रूप में आंका। अयूब खान और उसके जनरलों ने सबसे पहले रण के कच्छ क्षेत्र को अपना निशाना बनाया और भारत ने उसका मुंहतोड़ जवाब दिया। इस तरह यह मामला अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थों तक जा पहुंचा। अयूब खान और उनके सिपहसालार इस खुशफहमी से उत्साहित थे कि वे ब्रिटिश विदेश नीति-निर्धारकों की कुटिल नीति के अनुरूप चल रहे हैं। दरअसल, ब्रिटेन की विदेश नीति बेंकन सैंडीज़ की कुटिल नीतियों से प्रभावित रही है, जिसका मानना था भारत-चीन युद्ध के बाद परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए पश्चिम को कश्मीर विवाद का समाधान थोपना चाहिए। इस ब्रिटिश प्रस्ताव को अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जेएफ कैनेडी ने अस्वीकार कर दिया था। एक बार फिर ब्रिटिश रणनीतिकार पाकिस्तान के साथ इस साजिश के भागीदार बने जो शरारतपूर्ण ढंग से प्रचार कर रहा था कि कश्मीर में क्रांति करीब है। जब पाकिस्तान ने भारत पर युद्ध थोपा तो लालबहादुर शास्त्री एक सशक्त नेतृत्व के रूप में सामने आये।

उन्होंने भारतीय सेना को खुली छूट दी कि पाकिस्तानी हमले का मुंहतोड़ जवाब दे। और फिर 13 अगस्त को आकाशवाणी पर संदेश में उन्होंने बेबाक रूप से पाकिस्तान से कहा, ‘मैं स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूं कि ताकत का जवाब ताकत से दिया जायेगा। और हमारे खिलाफ होने वाले किसी भी आक्रमण को सफल नहीं होने दिया जायेगा।’ इसके दो दिन बाद लालकिले की प्राचीर से उन्होंने अपने नेतृत्व की चमक दिखाई। यहां तक कि चीन की धमकियों के सामने भी वे निर्भीक खड़े रहे। यह युद्ध 48 दिन चला और उसके बाद शांति प्रयासों के लिए ताशकंद में कूटनीतिक प्रयास हुए।

शायद चीन ही इस युद्ध का दीर्घकालीन विजेता रहा। चीन ने समानता की अमेरिकी सोच के आगे चतुराई?से पाकिस्तान की कुटिलताओं पर परदा डाला और दरार में अपनी जगह बना ली। इस तरह भारत ने चीन-पाक गठबंधन के रूप में भारी सामरिक दबाव का सामना किया। दरअसल, 1965 का युद्ध भारत ने शुरू नहीं किया मगर यह भारत की जरूरत का युद्ध बन गया। इस युद्ध ने भारत की राष्ट्रीयता को एक नयी ऊर्जा प्रदान की।

एक समकालीन पर्यवेक्षक ने गहनता से अभिव्यक्त किया—‘युद्ध की विभीषिका ने राष्ट्र की आत्मा को नयी ऊर्जा दी और लोगों में अनूठी एकता का संचार किया। इस युद्ध में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, क्रिश्चियन, एंग्लो इंडियन व पारसी युवाओं और भारतीय सैन्य बलों ने समान रूप से युद्ध के मैदान में योगदान दिया। यह एक करिश्मे जैसा था। इसने कालांतर में भारत की साझी और धर्मनिरपेक्ष विरासत को मजबूती प्रदान की।’

यह भारत की अग्निपरीक्षा थी, जिसमें उसने युद्ध के मैदान में और बाहर भी शानदार सफलता पायी।

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