कश्मीर में सिकंदर का शासन और हिंदुओं की स्थिति इस प्रकार थी कि सिकंदर का शासन मानो खौलते हुए तेल का कड़ाह था और हिंदू उसमें तला जाने वाला पकौड़ा। ऐसी अवस्था में बड़ी क्रूरता से हिंदुओं से जजिया वसूल किया जाता था। जजिया को जोनराज ने राजतरंगिणी में व्याख्या करते हुए संस्कृत के चण्ड दण्ड (ऐसा दण्ड जो चाण्डाली वृत्ति से क्रूरता पूर्वक या हिंसा का साधन अपनाकर ग्रहण किया जाए) के समानार्थक माना है। इसी प्रकार जोनराज ने मुस्लिमों द्वारा हिंदुओं के धन और स्त्रियों की लूट को लोत्रदण्ड कहा है। जिसे मुस्लिम आक्रांताओं ने ‘माल-ए-गनीमत’ कहा था, उसे जोनराज ने लोत्रदण्ड (चोरी अथवा लूट का धन) कहा है।
संघर्ष फिर भी जारी रहा
बहुत से हिंदुओं ने जजिया की अमानवीय यातनाएं सहन कीं और उन असीम यातनाओं को सहन करने के पश्चात भी अपने अस्तित्व का संघर्ष जारी रखा।
श्रीवर ने अपनी राजतरंगिणी में लिखा है-‘‘विद्या और ज्ञान के भण्डार इस पवित्र कश्मीर देश की महानता का कहां तक वर्णन करूं। यहां के सारे संस्कृत ग्रंथ एक से बढक़र एक मनोहारी और चित्ताकर्षक थे, किंतु अब विनाशकारी आग में झुलस जाने के पश्चात मात्र खाली कहानी दोहराई जा रही है। उन पुस्तकों, ग्रंथों और ज्ञान की अक्षय पूंजी का विनाश उसी प्रकार कर दिया गया जिस प्रकार हेमंत ऋतु में पाला गिरने से सब खिले हुए कमल विनष्ट हो जाते हैं।’’
हमारे प्राचीन पुस्तकालय बड़े विशाल काय हुआ करते थे। उनमें प्राचीनतम साहित्य उपलब्ध होता था और ज्ञान-विज्ञान में पारंगत होने की इच्छा रखने वाले विद्यार्थियों को अध्ययन की सभी सुविधायें उपलब्ध होती थीं। इन पुस्तकालयों को इस प्रकार भारत की संस्कृति के प्रति रूचि उत्पन्न करने हेतु विशेष रूप से तैयार किया जाता था। ये भारत के अक्षय ज्ञान स्रोत तो थे ही, साथ ही भारत के निर्माण की गंगा भी इन्हीं से निकलती थी। भारत में अज्ञान अविद्या और अज्ञानांधकार इसलिए भी फैला कि अनेकों प्राचीन पुस्तकालय मुस्लिम आक्रांताओं ने विभिन्न कालों में अग्नि की भेंट चढ़ा दिये थे। इनका उद्देश्य यही होता था कि भारत की सांस्कृतिक धरोहर के इन केन्द्रों को जलाकर भारत को अपने गौरवपूर्ण अतीत से सरलता पूर्वक काटा जा सकता है। इसलिए जब इन शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान के केन्द्रों को जलाया गया तो बहुत से पुस्तकालय तो कई-कई माह तक जलते रहे, क्योंकि उनमें पुस्तकों का ढेर ही इतना था कि आग बुझने का नाम नही लेती थी।
ज्ञान छिपाने की प्रवृत्ति यहीं से जन्मी
भारत प्राचीन काल से ही ज्ञान-विज्ञान को बांटने वाला देश रहा है। उसकी मान्यता रही है कि ज्ञान को जितना बांटा जाएगा उतना ही वह बढ़ेगा। इसलिए ज्ञान को सबका धन सबके लिए मानकर बिखेरते चलो। भारतवासियों की ज्ञान के विषय में यह मान्यता नितांत वैज्ञानिक और तर्कसंगत थी। पर कालांतर में वह समय भी आया कि जब भारतीयों ने अपने ज्ञान-विज्ञान को छिपाने का प्रयास करना आरंभ किया। उनके भीतर अहंकार उत्पन्न हो गया कि हम तो विश्व में सर्वश्रेष्ठ हैं, इसलिए हम किसी को अपना ज्ञान-विज्ञान भी क्यों दें?
अलबेरूनी के आक्षेप
भारतीयों की इस मानसिकता पर पक्ष-विपक्ष में बहुत कुछ लिखा गया है। अलबेरूनी ने लिखा है :-‘‘भारत बहुत छोटे छोटे राज्यों में विभक्त है। सब राज्य स्वतंत्र हैं और परस्पर युद्घ में प्रवृत्त रहते हैं। ब्राह्मण अपने अधिकारों की रक्षा के लिए इतने व्याकुल हैं और जाति-भेद का ऐसा द्वेष-भाव फैल रहा है कि वैश्यों और शूद्रों को वेदपाठ करते देखकर ब्राह्मण उन पर तलवार लेकर टूट पड़ते हैं, और उन्हें राज कचहरी में उपस्थित करते हैं, जहां उनकी जिह्वा काट ली जाती है। ब्राह्मण सब प्रकार के राज्य कर से मुक्त हैं। हिंदू किसी देश को नही जाते, किसी जाति को श्रद्घा की दृष्टि से नही देखते। वे अपने को और अपनी जाति को सर्वश्रेष्ठ समझते हैं।’’
ज्ञान छिपाने की भावना हिंदुओं में क्यों पनपी
इस बात पर चिंतन करने की आवश्यकता है कि भारतीयों के भीतर ज्ञान छिपाने की या ज्ञान में सर्वोत्कृष्ट होने की भावना पनपी क्यों? निष्पक्ष चिंतन से ज्ञात होता है कि भारतीयों के इस प्रकार के पतन के पीछे जहां अन्य कारण उत्तरदायी हैं, वहां एक प्रमुख कारण ये भी था कि यहां मुस्लिम आक्रांताओं ने अनेकों बार ज्ञान विज्ञान के भारतीय केन्द्रों को जला जलाकर नष्ट कर दिया था। भारत के लोगों ने जब ज्ञान-विज्ञान के प्रति मुस्लिमों के इस दृष्टिकोण को देखा तो एक तो उन्हें ऐसा लगा कि इन लोगों की ज्ञान के प्रति कोई श्रद्घाभावना नही है, दूसरे ज्ञान को इनसे जितना बचाकर रखा जाए उतना अच्छा है।
अत: भारतवासियों ने अपने ज्ञान विज्ञान की पुस्तकों को पहाड़ी क्षेत्रों में या दुर्गम क्षेत्रों में छिपाने की आपातकालीन युक्तियां खोजनी आरंभ कर दीं। कालांतर में इस दुश्प्रवृत्ति के कारण साधु संतों ने ज्ञान विज्ञान की गूढ बातों को अपने शिष्यों तक से भी छिपाना आरंभ कर दिया। यह एक दुश्प्रवृत्ति का विस्तार था-जो स्वाभाविक था।
विरोध के लिए मचल गये हृदय
जब सिकंदर बुतशिकन कश्मीर के हिंदू पुस्तकालयों को जला-जलाकर नष्ट कर रहा था, तब राष्ट्रभक्त धर्मवीर हिंदुओं को उसका यह कृत्य अच्छा नही लग रहा था। अपनी आंखों के सामने अपने सांस्कृतिक वैभव को उजड़ते देखकर हिंदुओं को असीम वेदना की अनुभूति हो रही थी। इसलिए उन्होंने भी अपने ज्ञान विज्ञान की पुस्तकों को हिमाचल की कंदराओं में या दुर्गम जंगलों में ले जाकर छिपाने का प्रयास किया।
श्रीवर ने अपनी रजतरंगिणी में लिखा है-‘‘मुसलमानों के द्वारा किये गये इस ज्ञान संहार की ताण्डव लीला को देखकर उस समय के विद्वान लोग पुस्तकों को किसी प्रकार बचाने के लिए छद्मवेष धारण करके कुछ एक पुस्तकों को लेकर दुर्गम पहाड़ों को पार करके यहां से भाग गये। इस प्रकार वर्षों तक इन कश्मीरी पंडितों ने जंगलों इत्यादि में छिपकर भारत की प्राचीन संस्कृति की रक्षा की। इसके उपरांत भी असंख्य दुर्लभ ग्रंथ सुल्तानों के हमामों और भट्टियों में जलकर राख हो गये।’’
तथ्यों को सकारात्मक सोच के साथ स्वीकार करें
इस प्रकार स्पष्ट है कि हिंदुओं को अपनी संस्कृति का हो रहा संहार देखना प्रिय नही था। उसकी रक्षा के लिए उन्होंने अपना सुख त्याग कर जिस मार्ग का अनुगमन किया, वह भी निस्संदेह एक प्रकार की देशभक्ति ही थी। जिसे हम उसी रूप में स्वीकार करें-इसे किसी प्रकार के मिथ्या आरोपों में जकडक़र प्रस्तुत न करें, कि उस समय के भारतीय बड़े कूपमंडूक थे, वे किसी से अपना ज्ञान बांटना नही चाहते थे, वे अंधविश्वासी थे और अपनी पुस्तकों को छिपाते फिर रहे थे इत्यादि। यह तो विदेशियों की वह भाषा है जो उन्होंने हमारे लिए प्रयोग की है, और हमारे देशभक्त, संस्कृति रक्षक, धर्मवीर पूर्वजों को अपमानित करने के लिए एक अभियान उनके विरूद्घ चलाया है। सत्य और असत्य के मध्य भेद कर मिथ्यावाद को निकाल फेंकना और सत्य का यथानुरूप महिमा मंडन किया जाना समय की आवश्यकता है।
अत्याचारों का करूण क्रंदन
कश्मीर हिंदुओं के रक्त पिपासु लोगों के लिए उस समय एक तीर्थ ही बन गया था। हजारों सैय्यद कश्मीर में आकर भारतीयों के धर्मांतरण की प्रक्रिया में लग गये थे। ये सैय्यद लोग पूर्व और मध्य एशिया से आये थे। इनके अत्याचारों की करूण कहानी का वर्णन श्रीवर राजतरंगिणी में करते हुए लिखता है-‘‘सैय्यदों के अत्याचारों की कहानी अति भयंकर है। वे मानवता एवं क्रूरता की सीमा पार कर गये थे। वैद्य पंडित भुवनेश्वर को सैय्यदों ने मारकर उसके चंदन लिप्त मस्तक को काटकर राजपथ पर रख दिया था। सैय्यदों ने जनता में भय उत्पन्न करने के लिए कटे सिरों को वितस्ता के तट पर कोयलों और लकडिय़ों में रख दिया।’’
वह आगे लिखता है कि ‘‘हिंदुओं के शव वितस्ता नदी में फेंक दिये जाते थे। तैरते हुए वे दुर्गंध करते थे। महायदमसर में बहते चले जाते थे। उनका अंतिम संस्कार करने का भी कोई विचार नही करता था। वितस्ता के दोनों ओर तटों पर आने वाली स्त्रियों को बाणों से बींधकर अंग विदीर्ण कर देना साधारण बात थी। वितस्ता तट पर रोककर प्रतिदिन दो तीन व्यक्तियों को सूली पर चढ़ा देते थे। रूई की गद्दी पर रखे उपधान के स्पर्श का उत्तम सुख प्राप्त करने वाले सुंदर श्रंगार परिपूर्ण वे भूमि (सम्भ्रांत सामंतों की ओर संकेत है) पर नग्नावस्था में काक, कुक्कुट वृकों के भोजन बनते, खाये गये मेदा, मांस बंसा से निकलते कृत्रियों सहित तथा दुर्गंध युक्त देखे गये। समुद्र मठ से लेकर पूर्वाधिष्ठान तक मार्गों में ईंधन के गट्ठर के समान निर्वस्त्र शव पड़े हुए थे। अधिकारियों का वध बिना न्याय किये ही कर दिया जाता था। उनके शवों के साथ क्रूरता की जाती थी।
राजप्रासाद के प्रांगण से चाण्डालों के कूल्हों में रस्सी बांधकर उन्हें (ताज एवं याचक को) खींचा, उनके शरीर के अंग मलयुक्त हो गये थे। वे कुत्तों के भोजन बने। सैनिकों के पराजित होने पर उनका मस्तक काटकर उन्हें झण्डों पर टांग दिया जाता था।’’
हिंदू का शौर्य निर्भय था
कितना रोमांचकारी वर्णन है। लगता है पराभव के उन क्षणों में भी भारतवासियों ने अपनी वैदिक संस्कृति का दामन छोड़ा नही था। सर्वत्र भय का वातावरण था पर हिंदू का शौर्य निर्भय था। सर्वत्र संकट था पर हिंदू ऊपर से मौन रहकर भी भीतर से आंदोलित था, और यही भाव उसे जीवित रखे हुए था। युग-युगों की साधना का फल था यह। जिसे वह प्रभु से अभयपन की प्रार्थना के माध्यम से मांगता आया था। आज जब राष्ट्र यज्ञ के लिए बलि दी जाने लगी थी तो भी अधिकांश हिंदू (छह छह मन यज्ञोपवीतों के ढेरों को देखकर भी) यही कह रहे थे-
ओउम्। अभयं मित्रादभयम् मित्रादभयं ज्ञातादभयं परोक्षात्।
अभयं नक्तमभयं दि वान: सर्वा आशामम् मित्रं भवंतु।।
(अथर्व 19-15-6)
जब सर्वत्र शव ही शव बिखरे पड़े हों और दूर-दूर तक भी अहिंसा का भाव समझने वाले लोगों की कमी स्पष्टत: झलक रही हो, तब भी अभयपन की प्रार्थना करना और राष्ट्रवेदी के लिए अपने प्राणों को अभयपन के साथ ही समर्पित कर देना, मानो अभयपन को घोटकर पी लेने के समान था।
पुत्र भी पिता के समान ही रहा
सिकंदर बुतशिकन की मृत्योपरांत उसका पुत्र अलीशाह कश्मीर के सिंहासन पर बैठा। वह भी अपने पिता के समान ही क्रूर और निर्दयी था। उसका शासन काल मात्र छह वर्ष का ही रहा था। परंतु इतने काल में ही उसने हिंदुओं को जितना सताया जा सकता था, उतना सताने में कोई न्यूनता नही छोड़ी।
हिंदुओं के धर्मप्रेमी स्वरूप का गौरवमयी वर्णन
जोनराज ‘राजतरंगिणी’ में लिखता है-‘‘सुहाभट्ट सैफुद्दीन ने ब्राह्मणों पर जजिया कर लगाकर सीमा ही तोड़ डाली। इस कुटिल व्यक्ति ने दूज के चांद पर समारोहों और जुलूसों पर प्रतिबंध लगा दिया। उसे ईष्र्या थी कि निर्भीक ब्राह्मण विदेशों में जाकर अपनी जाति को बनाए रखेंगे, इसलिए उसने सडक़ों पर दस्ते तैनात करा दिये, जो कि बिना यात्रा पत्र के किसी को बाहर नही जाने देते थे। जिस प्रकार एक मछुवारा मछलियों को तड़पाता है, इस निकृष्ट जाति के व्यक्ति ने इस देश में लोगों को तड़पाया। धर्म परिवर्तन के डर से ब्राह्मण जलती आग में कूद गये (हिंदू का धर्मप्रेम और अदभुत साहस देखने योग्य है-लेखक) कई ब्राह्मण फांसी लगाकर मर गये कईयों ने विष खा लिया और कई डूबकर मर गये (पर निज धर्म नही छोड़ा) असंख्य ब्राह्मणों ने पर्वत से कूदकर जान दे दी। देश घृणा से भर गया। राजा के समर्थक, हजारों में से एक भी व्यक्ति को आत्महत्या करने से रोक नही सके। क्रमश:
आत्मसम्मानी ब्राह्मणों की एक बड़ी संख्या पगडंडियों द्वारा विदेशों की ओर भाग गयी। क्योंकि मुख्य सडक़ें बंद थीं। जिस प्रकार लोग इस धरती से विदा होते हैं, उसी प्रकार ब्राहमण विदेशों को चले गये। पिता पुत्र को छोड चला और पुत्र पिता को। मार्ग में आने वाले कठिन देशों, खाद्य अभाव, पीड़ा दायक रोगों और नारकीय जीवन ने उनके मन से नरक का भय निकाल दिया। विभिन्न विपत्तियों शत्रु का सामना सर्पभय, तीव्र गर्मी और अन्नाभाव से असंख्य लोग रास्ते में ही मर गये और शांत हो गये।’’
हिन्दू निज चरित्र की रक्षा करने में सफल रहे
भारतीयों की इस यातनापूर्ण जीवन संघर्ष शैली को उनकी कायरता, बुद्घिहीनता और मूर्खता कहकर निरूपित किया गया है। हम मान लेते हैं कि भारतवासियों के भीतर निश्चय ही कुछ क्षेत्र आ गये थे, परंतु जहां दोष थे, वहीं उनके भीतर देशभक्ति और शौर्य का पराक्रमी गुण भी था। उनका चरित्र अब भी महान था। उनके विषय में और उनके गुणों के विषय में वर्णन करते हुए प्रशंसा में विदेशी लेखकों की लेखनी भी पीछे नही रही। मेगस्थनीज ने सदियों पूर्व कहा था-‘‘भारत में दास प्रथा का अभाव है, स्त्रियों के चरित्र अत्यंत उज्ज्वल एवं पवित्र हैं, तथा पुरूष बड़े साहसी हैं। साहस में वे अन्य सभी एशियावासियों से आगे हैं। वे धीर, गंभीर तथा परिश्रमी अच्छे किसान तथा निपुण शिल्पी हैं। वे शायद ही कभी मुकदमों का आश्रय लेते हों और वे अपने स्थानीय मुखिया के नेतृत्व में शांति के साथ रहते हैं।’’
ईसा से सदियों पूर्व भारत के विषय में मेगास्थनीज ने उपरोक्त विचार प्रकट किये और हम देखते हैं कि भारत के लोगों के प्रति प्रशंसा का यह क्रम आगे भी निरंतर जारी रहा। चीनी यात्री ह्वेन सांग लिखता है-‘‘भारतीय अपनी स्पष्ट वादिता एवं सत्यवादिता के लिए विशिष्ट रूप से जाने जाते हैं। जहां तक धन का प्रश्न है तो वे कुछ भी बेईमानी से ग्रहण नही करते। जहां तक न्याय का प्रश्न है वे आवश्यकता से अधिक रियायतें दे देते हैं। स्पष्टवादिता उनके प्रशासन की प्रमुख विशेषता है।’’
जो लोग यह मानते हैं कि भारतीय को प्रशासन की कभी कोई समझ नही रही और न्यायशील प्रशासन तो उनके सोच से भी परे की बात रही है-उनके लिए ह्वेन सांग की यह टिप्पणी निश्चित रूप से मार्गदर्शिका हो सकती है। जिससे उनकी भ्रांतियों का निवारण हो जाना संभव है।
इदरीसी लिखता है…..
ग्यारहवीं शताब्दी में इदरीसी नामक मुस्लिम लेखक ने अपनी पुस्तक में लिखा है-‘‘स्वाभाविक रूप से भारतीयों का न्याय की ओर झुकाव है और अपने व्यवहार में वे इससे कभी भी पीछे नही हटते हैं। उनका सत्य विश्वास ईमानदारी तथा अपने वचन के प्रति निष्ठा सर्वविदित है। अपने इन गुणों के कारण वे इतने प्रसिद्घ हैं कि चारों ओर से लोग दौडक़र इनके देश में जाते हैं।’’
जब मुस्लिम तलवारें भारतीयों के गले की लंबाई नाप रही थीं और भारतीय रक्त से अपनी प्यास बुझा रही थीं, तब भारतीयों के विषय में इदरीसी की उपरोक्त मान्यता हमें बताती है कि मुस्लिमों में भारतीयों के गले को नापने वालों से अलग ऐसे लोग भी रहे हैं जिन्होंने इनके अंतर्मन को नापा और खोजा है, और जब उन्हें भारतीयों का अंतर्मन बहुत ही गहरा और स्वच्छ जल का स्रोत दृष्टि गोचर हुआ तो वह गदगद हो गये। उनके अंतर्मन में प्रेम और समर्पण का ज्वार उठा और वह साम्प्रदायिकता की सभी सीमाओं को तोड़ता हुआ हिंदुओं के मानववाद के प्रति ऐसा एकाकार हुआ कि अपना स्वरूप ही भूल गया। इसी भावना के वशीभूत होकर 13वीं शताब्दी में शमसुद्दीन अबू अब्दुल्ला ने बेदी इज्र जेमान का यह निर्णय उदधृत किया है-‘‘भारतीय हिंदू रेत के कणों के भांति असंख्य तो हैं किंतु धोखे एवं हिंसा से दूर हैं। उन्हें न तो मृत्यु से और न जीवन से भय लगता है।’’
होता रहा कत्र्तव्य धर्म का निर्वाह
जिन्हें मृत्यु से भी भय नही लगता वे ही तो अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा कर पाते हैं। वे मौन आहूतियों के विशाल यज्ञों का आयोजन करते हैं और शवों के बीच यूं विचरते हैं जैसे आप किसी वाटिका में प्रात:कालीन सैर कर रह हों। कश्मीर का हिंदू पराभव के उस काल में भी अपने इसी कत्र्तव्य धर्म का निर्वाह कर रहा था।
ब्राह्मणों की प्रशंसा
मार्कोपोलो 13वीं शताब्दी में लिखता है-‘‘आपको ज्ञात होना चाहिए कि ये ब्राह्मण संसार के सर्वश्रेष्ठ तथा सच्चे व्यापारी हैं। पृथ्वी की किसी भी वस्तु के लिए ये कदापि झूठ नही बोल सकते।’’
कर्नल स्लीमेन कितनी पते की बात कहता है-‘‘असत्यवादिता या किसी एक ही ग्राम के लोगों के बीच किसी प्रकार का मिथ्या भाषण कोई नही जानता। मेरे सामने ऐसे सैकड़ों मामले आये जिनमें किसी व्यक्ति की संपत्ति स्वतंत्रता एवं जीवन उसके झूठ बोलने पर निर्भर थे, परंतु उसने झूठ बोलने से मना कर दिया।’’
वर्तमान न्यायपालिका के प्रति अश्रद्घा क्यों?
इसका अभिप्राय है कि आज की न्याय व्यवस्था में जिस प्रकार पग-पग पर झूठ का अवलंबन लिया जाता है इसने ही भारतीयों को झूठ बोलना सिखाया है। इसलिए अधिवक्ता, साक्षी गवाह वादी-प्रतिवादी और स्वयं न्यायालय के प्रति भी लोगों में श्रद्घा में कमी आयी है।
वास्तव में इन सबकी गरिमा तभी स्थापित रह सकती है, जब सर्वत्र सत्य का बोलबाला हो। प्राचीन भारत की न्याय प्रणाली सत्य पर आधारित थी। इसे एक विदेशी कहे तो बहुत गर्वानुभूति होती है।
लोग मरने से भय नही खाते थे
ऐसे परिवेश के अभ्यस्त कश्मीरियों को जब इस्लामिक तलवार के अत्याचारों ने अपना धर्म और न्याय पथ छोडऩे के लिए बाध्य किया तो वहां आत्महत्याओं की ही झड़ी लग गयी। यह वही परंपरा थी जो राजस्थान में जौहर के समय देखी जाती थी। लोगों को मरने से भय नही लग रहा था। भय था तो यही कि यदि जीवित रह गये तो विदेशी मत अपनाना पड़ेगा। हिंदू जिन लोगों के हाथों में अपना ज्ञान भी नही देना चाहते थे उन्हें जान ही क्यों दी जाए? ऐसी देशभक्ति की भावना को आप वीरता कहेंगे या कायरता?
निडर पंडित रत्नाकर की देशभक्ति
जब कोई जाति या समाज किसी आक्रांता जाति के विनाशकारी अत्याचारों का सामना करके भी जीवित रहने में सफल हो रही हो तो उस काल में कहीं न कहीं उसकी अंतश्चेतना साथ देती है। उस अंतश्चेतना के प्रतीक कभी-कभी गुप्त रूप से तो कभी कभी प्रकट रूप से भी कुछ ऐसे लोग सामने आया करते हैं, जिनका उद्देश्य राष्ट्र को एक प्रवाहमान और सजीव संस्था बनाये रखना होता है। कश्मीर के इन दुर्दिनों में इस कार्य को स्वरूप दिया पं् रत्नाकर भट्ट ने। उस महावीर ने संकटों और परिणामों की ओर तनिक ध्यान नही दिया और हिंदू समाज को एकत्र होकर संगठित रूप से मुस्लिम शासकों के अत्याचारों का सामना करने की ऊर्जा का संचार करना आरंभ कर दिया। भट्ट दूरदर्शी और सूझबूझ वाला व्यक्ति था, इसलिए उसने धर्मांतरित हिंदुओं को भी सहयोग करने के लिए आमंत्रित करना आरंभ किया। उसने ऐसे कितने ही मुस्लिम पंडितों का सहयोग प्राप्त करने में सफलता भी प्राप्त की। मुलाना उद्दीन नामक मुस्लिम पंडित ने रत्नाकर की भरपूर सहायता भी की थी।
इन दोनों देशभक्तों का आंदोलन चुपचाप अपनी सक्रिय भूमिका निभाते हुए हिंदू को संगठित कर रहा था और उनके देश और धर्म के प्रति समर्पण के भाव को और भी प्रचंड बना रहा था। लोगों में आशा का संचार हो रहा था, और उनमें अपने को संगठित कर मुस्लिम शासकों के अत्याचारों का सामना करने की शक्ति का संचार हो रहा था। तभी एक नये ‘जयचंद’ का अवतार हुआ और एक मुस्लिम पंडित के छलपूर्ण व्यवहार के कारण रत्नाकर और मुलानाउद्दीन को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके पश्चात उन्हें यातनायें देकर मार डाला गया।
केवल 11 हिंदू परिवार ही बचे थे कश्मीर में
कहा जाता है कि सिकंदर और अलीशाह के काल में कश्मीर में केवल ग्यारह हिंदू परिवार ही बचे थे शेष या तो मार डाले गये या धर्मांतरित हो गयी।
मरने वाले हुतात्माओं को राष्ट्र का नमन धर्मांतरित होकर भी जो अपने मूल हिंदू समाज के लिए कार्य करते रहे उनके लिए भी प्रणाम, जिन्होंने स्वयं ने ही अपने यज्ञोपवीत और चोटी की रक्षार्थ आत्महत्या कर ली उन्हें भी विनम्र श्रद्घांजलि। संघर्ष को जिन्होंने अपने जीवन का आधार मान लिया, उनका भी हार्दिक अभिनंदन। अत्याचारों की घोर निशा के इस करूणा भरे काल में भी हिंदुओं की आशा कहीं जीवित बनी रही, और हम अपने गौरवपूर्ण अतीत के पुण्य स्मारक कश्मीर को और उसकी संस्कृति को भारी क्षति के उपरांत भी बचाने में सफल रहे, यह भी थोड़ी बात नही है।
मुख्य संपादक, उगता भारत