आशा भरी नजरों से देख रही है प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा को सारी दुनिया
निरंजन मार्जनी
क्वॉड की सफलता के लिए उसे एक आधिकारिक स्वरूप देने की आवश्यकता है। हाल ही में बने ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका के गठबंधन ”एयूकेयूएस” को क्वॉड के लिए चुनौती के रूप में देखा जा रहा है। क्वॉड की तरह एयूकेयूएस को भी एशियाई नेटो कहा जा रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अमेरिका दौरा कई मायनों में महत्त्वपूर्ण है। पिछले करीब दो साल में कोरोना महामारी की वजह से जहां ज़्यादातर बैठकें, वार्ताएं और शिखर सम्मेलन वर्चुअल तौर पर हुए वहीं इस बार संयुक्त राष्ट्र महासभा, क्वॉड शिखर सम्मलेन और अन्य द्विपक्षीय बैठकें विश्व के नेताओं की व्यक्तिगत उपस्थिति में होंगे। इस दौरे में प्रधानमंत्री मोदी संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करने के अलावा अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और उपराष्ट्रपति कमला हैरिस के साथ द्विपक्षीय बैठक करेंगे। साथ ही मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन, जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा और ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन के साथ क्वॉड शिखर सम्मेलन में भी हिस्सा लेंगे।
मोदी के अमेरिका दौरे में तीन मुद्दों पर भारत का क्या रूख रहता है यह देखना महत्त्वपूर्ण होगा। ये तीन मुद्दे हैं- अफगानिस्तान, क्वॉड की भूमिका और लोकतांत्रिक विश्व व्यवस्था।
अफगानिस्तान
तालिबान का अफगानिस्तान पर कब्ज़ा करना सिर्फ दक्षिण एशिया क्षेत्र के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है। अफगनानिस्तान में तालिबान का राज और पाकिस्तान का हस्तक्षेप भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा हैं। ऐसे में आतंकवाद और पाकिस्तान की भूमिका को दुनिया के सामने लाना ज़रूरी है। भारत कई वर्षों से दुनिया से आतंकवाद पर एकजुट होने की अपील कर रहा है। एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र और अन्य बैठकों के माध्यम से भारत के पास मौका है कि वह पाकिस्तान-समर्थित आतंकवाद का मुद्दा उठाये।
भौगोलिक स्थिति के कारण अफगानिस्तान के मामलों में पाकिस्तान पश्चिमी देशों का प्राथमिक भागीदार रहा है। लेकिन पश्चिमी देशों से आर्थिक मदद लेकर आतंकवादियों को समर्थन देने की पाकिस्तान की नीति किसी से छुपी नहीं है। पाकिस्तान के समर्थन के बिना तालिबान का अफगनिस्तान पर राज करना भी लगभग असंभव है। ऐसे में जरूरत है पाकिस्तान के ख़िलाफ़ एक साथ खड़ा होने की। जितना पाकिस्तान का आतंकवाद को समर्थन देना बंद होना ज़रूरी है उतना ही ज़रूरी है कट्टरवादी सोच को फैलने से रोकना।
अफगानिस्तान में तालिबान के साथ-साथ इस्लामिक स्टेट, हक्कानी नेटवर्क और अल कायदा जैसे आतंकी संगठनों के एक साथ आने से आतंकवादी हमलों का ख़तरा तो बढ़ा ही है लेकिन तालिबान का सत्ता में आना कट्टर इस्लामी सोच की जीत माना जा रहा है। इस नज़रिये से दुनिया भर में कट्टरवाद को बढ़ावा मिल सकता है। इसीलिए भारत को इस बात पर ज़ोर देना चाहिए कि कट्टर सोच का मुक़ाबला भी साथ मिलकर करना ज़रूरी है।
क्वॉड की भूमिका
24 सितंबर को सभी क्वॉड देशों के नेता पहली बार व्यक्तिगत तौर पर शिखर सम्मेलन में शामिल होंगे। इससे पहले मार्च महीने में क्वॉड देशों के नेताओं ने वर्चुअल शिखर सम्मेलन में हिस्सा लिया था। 2007 से विचाराधीन क्वॉड को गति मिलना शुरू हुई 2017 से। चारों देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक से और ऑस्ट्रेलिया को मालाबार युद्ध अभ्यास में शामिल करने से 2020 में क्वॉड की संकल्पना को और मज़बूती मिली।
अब अमेरिका की मेज़बानी में होने वाली बैठक में चारों देश क्या रणनीति बनाते हैं यह देखना होगा। लेकिन क्वॉड को अभी तक कोई औपचारिक या आधिकारिक स्वरूप नहीं दिया गया है। चारों देश यह कहते हैं कि क्वॉड सिर्फ एक सैन्य गठबंधन नहीं है बल्कि इसके और कई उद्देश्य हैं जैसे व्यापार, जलवायु परिवर्तन और मानवीय सहायता। कोरोना महामारी के बीच क्वॉड देशों ने कोरोना वैक्सीन के उत्पादन और वितरण में सहयोग करने पर भी सहमति जताई है।
क्वॉड की सफलता के लिए उसे एक आधिकारिक स्वरूप देने की आवश्यकता है। हाल ही में बने ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका के गठबंधन ”एयूकेयूएस” को क्वॉड के लिए चुनौती के रूप में देखा जा रहा है। क्वॉड की तरह एयूकेयूएस को भी एशियाई नेटो कहा जा रहा है। यह नया गठबंधन साफ़ तौर पर चीन को चुनौती देने की लिए ही बनाया गया है। लेकिन इससे क्वॉड पर भी सवाल खड़े होते हैं और क्वॉड के साथ-साथ भारत पर भी सवाल उठ रहे हैं। यह शिखर सम्मेलन क्वॉड की प्रासंगिकता और भारत की भूमिका दोनों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होगा।
लोकतांत्रिक विश्व व्यवस्था
भारत की हिन्द-प्रशांत क्षेत्र की रणनीति का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है लोकतांत्रिक व्यवस्था या नियम-आधारित व्यवस्था। क्वॉड की स्थापना का भी एक उद्देश्य इस क्षेत्र में बहुध्रुवीय व्यवस्था कायम करना है। अफगानिस्तान से सेना वापस लेने पर अमेरिका की विश्वसनीयता और उसके सामर्थ्य पर जो सवाल उठ रहे हैं, वह अमेरिका और क्वॉड दोनों के लिए चिंता का विषय बन सकता है। यहां पर भारत की भूमिका निर्णायक हो सकती है। अफगानिस्तान का उदाहरण देखें तो भारत और अमेरिका दोनों के उद्देश्य अलग-अलग थे। एक तरफ़ जहां भारत अफगानिस्तान के विकास और पुनर्निर्माण में योगदान दे रहा था वहीं अमेरिका का लक्ष्य सिर्फ अल कायदा को हराना और ओसामा बिन लादेन को मारना था। जो बाइडेन ने भी यह साफ़ कहा कि राष्ट्र निर्माण अमेरिका की ज़िम्मेदारी नहीं थी।
इस परिस्थिति में लोकतांत्रिक व्यवस्था के मुद्दे पर भारत को पहल करनी पड़ेगी। साथ ही भारत हमेशा से संस्थागत संरचना का भी समर्थक रहा है। अफगानिस्तान के मामले पर हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका पर भी काफ़ी सवाल उठे थे। क्वॉड के माध्यम से जो व्यवस्था भारत हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में चाहता है वही व्यवस्था दुनिया में कायम होने के लिए भारत को अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश करनी चाहिए। इस बार संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत संयुक्त राष्ट्र के सदस्य और सुरक्षा परिषद् के अस्थायी सदस्य- इन दोनों भूमिकाओं में हिस्सा लेगा। इस सत्र में भारत को संस्थानों को मज़बूत बनाने की जरूरत पर अपने विचार रखना ज़रूरी है। मोदी के इस अमेरिका दौरे से कई अपेक्षाएं हैं। लेकिन दुनिया की तेज़ी से बदलती हुई सामरिक स्थिति का समाधान इस सीमित दायरे में निकलना बहुत चुनौतीपूर्ण है।