सिर्फ वाहवाही लूटने के लिए नई योजना शुरू कर देने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। अगर इन सभी शहरों को स्मार्ट बनाना है तो पहले सरकार स्वयं स्मार्र्ट बने, नागरिकों को स्मार्ट बनाए स्मार्ट सिटी सरकार की अच्छी योजना मानी जा सकती है बेशक ये कागजों से उतरकर धरातल पर साकार हो पाए। चौबीसों घंटे बिजली-पानी, हर चार सौ मीटर की दूरी पर स्कूल-पार्क, सवा लाख की आबादी पर कॉलेज और दस लाख की आबादी पर विश्वविद्यालय, 15 हजार की आबादी पर सामुदायिक अस्पताल की कल्पना स्मार्ट सिटी की विशेषताएं हैं। ये सुनने में अच्छी लगती हैं और दिल को सुकून भी मिलता है कि देश के सौ शहरों की आबादी को ये सब उपलब्ध हो पाएगा। लेकिन बड़ा सवाल ये कि क्या अलग से कम्पनी बनाकर या पैसा उपलब्ध कराने भर से स्मार्ट सिटी की योजना मूर्त रूप ले पाएगी? देश के मेट्रो शहरों की हालत किसी से छिपी नहीं है।
दिल्ली हो, मुम्बई, कोलकाता अथवा बेंगलुरू, चेन्नई या जयपुर-भोपाल, हर तरफ भीड़ का आलम, पार्किग समस्या से जूझते शहरवासी नजर आते हैं। किताबों में जयपुर भले आज भी भारत का पेरिस कहलाता हो लेकिन आज की दशा को देखकर इसके संस्थापक सवाई जयसिंह की आत्मा भी कराहती होगी। ताजा-ताजा स्वच्छ भारत अभियान को ही लें। क्या हुई सफाई? ये भी दूसरे सरकारी अभियानों की तर्ज पर दम तोड़ रहा है। सफाई न तो देश की राजधानी में नजर आती है और न प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में। ?से में स्मार्ट सिटी योजना को सफल बनाने के लिए उन तथ्यों पर गंभीरता से ध्यान देना होगा जो सरकारी योजनाओं की राह में रोड़ा बनकर खड़ी हो जाती हैं। विकास के नाम पर अभी खर्च हो रहे पैसे का कितना सदुपयोग होता है? स्टेशन हों, बस स्टैण्ड, पार्क या अस्पताल, गंदे ही क्यों रहते हैं? स्मार्ट सिटी के सपनों को कारगर बनाना है तो सड़ी-गली व्यवस्था को सुधारना होगा। भ्रष्टाचार रूपी दीमक को साफ करना होगा। लेट-लतीफी के उस आलम को दुरूस्त करना होगा जो कछुआ चाल के कारण योजनाओं का बजट दोगुना-चौगुना तक कर देती हैं। सिर्फ वाहवाही लूटने के लिए नई योजना शुरू करने से कुछ हासिल होने वाला नहीं।
शहरों को स्मार्ट बनाना है तो सरकार स्वयं स्मार्ट बने, नागरिकों को स्मार्ट बनाए। तब जाकर स्मार्ट सिटी का सपना साकार करने पर सोचा जा सकता है। ठंडे बस्ते में पड़ी योजनाओं से सीखा जा सकता है कि वे अंजाम तक क्यों नहीं पहुंची? एक लाख करोड़ रूपए की स्मार्ट सिटी योजना सफल हो, देश यही कामना करता है लेकिन इसे साकार बनाने के तमाम पहलुओं को कसौटी पर कसना तो सरकार को ही होगा। कहीं ऐसा ना हो कि एक लाख करोड़ की भारी भरकम राशि कंपनियों के हिस्से में आकर ही नहीं रह जाए।