राजकुमार ने दिखाई अद्भुत वीरता
राजकुमार जयशाह ने अरब सेना के विरुद्ध लड़ते हुए अपनी अनुपम वीरता का परिचय आज भी दिया। वह किसी भी कीमत पर अपनी पीठ पर कायरता का दाग लगवाना उचित नहीं मानते थे । उन्होंने माँ के दूध का सम्मान करते हुए और माँ भारती के प्रति अपने पूर्ण समर्पण को प्रकट करते हुए इस संघर्ष को भी एक अवसर में बदलने का सफल प्रयास किया।
हमें यह बात समझ लेनी चाहिए कि इतिहास विजयी का नहीं लिखा जाता है, बल्कि वीरों का लिखा जाता है। विजयी होने वाले के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह वीर भी हो और मर्यादित होकर उचित साधनों को अपनाकर धर्म युद्ध कर रहा हो? युद्ध में योद्धा वही होता है जो उचित साधनों को अपनाकर युद्ध करता हो , जो धर्म के लिए युद्ध करता हो और जो नैतिकता और मानवता की विजय के लिए संघर्ष करता हो। जो लोग दानवीय होकर युद्ध करते हैं और जो इतिहासकार फिर ऐसे दानवीय लोगों के इतिहास को बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं वे दोनों ही मानवता के शत्रु होते हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि मानवता की रक्षा दानवीय उपायों को अपनाकर किए जाने वाले युद्धों से नहीं हो सकती, इसकी रक्षा तो केवल मानवीय दृष्टिकोण अपनाने वाले धर्म योद्धाओं के माध्यम से ही हो सकती है। निश्चित रूप से हम जिस युद्ध का वर्णन कर रहे हैं उसमें राजकुमार जयशाह जहाँ एक धर्म योद्धा था, वहीं मोहम्मद बिन कासिम और उसके सैनिक धर्म भक्षक और दानवीय उपायों में विश्वास रखने वाले क्रूर दरिन्दे थे।
राजकुमार को पहुंचाया गया सुरक्षित स्थान पर
भारत के लिए इस युद्ध की सबसे बुरी सूचना यह थी कि राजकुमार जयशाह इस युद्ध में बुरी तरह घायल हो गए थे। उनके सैनिकों के द्वारा उन्हें आनन-फानन में किले से बाहर निकालकर जंगलों की ओर सुरक्षित स्थान पर ले जाया गया।
किले से बाहर निकलकर सुरक्षित स्थान की ओर जंगलों में राजकुमार का इस प्रकार जाना कई लोगों के लिए उनकी कायरता का परिचय हो सकता है, परंतु वास्तव में यह कायरता नहीं थी। कायरता तो उसे कहते हैं जब किसी घटना से भय खाकर व्यक्ति एक बार स्थान छोड़ दे तो फिर उधर को लौटकर देखने में भी उसको पसीना आने लगे। जबकि राजकुमार जयशाह के साथ ऐसा नहीं था। वास्तव में राजकुमार ने किले को छोड़कर जंगलों की ओर सुरक्षित स्थान पर जाना अपने आपद्धर्म के अनुसार उचित माना। जिसे अपनाया जाना नीतिसंगत और न्यायसंगत माना गया है। राजकुमार जयशाह ने आपद्धर्म को अपनाकर अपने और अपने देश के लिए कितना उचित किया ?- इस बात को समझने के लिए हमें उपनिषद की इस कथा पर विचार करना चाहिए।
यह कथा ‘उषस्ति की कथा’ के नाम से जानी जाती है। उन दिनों एक भयंकर अकाल पड़ा । एक गांव में उषस्ति नामक व्यक्ति रहता था जो इस अकाल की चपेट में आकर पिछले दो-तीन दिन से भूखा था।
तब वह भोजन की खोज में दूसरे गाँव की ओर चला, पर अकाल तो अकाल ही होता है। वह जब फैलता है तो दूर-दूर तक फैलता है। फलस्वरूप उसे अपने पड़ोसी गांव में भी अकाल की वैसी ही स्थिति देखने को मिली, जैसी उसके अपने गांव में थी। ऐसी स्थिति में उषस्ति निराश होकर उस पड़ोसी गांव से भी आगे चल दिया। भूख से अत्यंत व्याकुल हो गए उषस्ति ने कुछ आगे चलकर देखा कि एक व्यक्ति पेड़ की छांव में बैठा कुछ खा रहा था। उसके पास भोजन की संभावना की कल्पना ने भी उसे तड़पा कर रख दिया । भूख से अत्यंत व्याकुल हुआ उषस्ति उस व्यक्ति की ओर तेजी से लपका ।
उषस्ति उसके पास गया और बड़ी व्याकुलता से उस व्यक्ति से पूछ बैठा कि ‘क्या खा रहे हो?’ उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, ‘उड़द खा रहा हूँ।’ उषस्ति ने कहा, ‘मुझे उसमें से थोड़ा दो ना। मैं दो दिन से भूखा हूँ।’ वह व्यक्ति बोला, ‘अवश्य देता, किन्तु ये सब जूठे हो गये है।’ उस पर उषस्ति बोला, ‘जूठे ही सही, मुझे थोड़े दे दो।’
उस व्यक्ति ने अपने झूठे उड़द किसी पत्ते पर रखकर उषस्ति को दिये। उस व्यक्ति के निकट पानी से भरा मिट्टी का एक छोटा सा बर्तन रखा था। उस व्यक्ति ने अपना मुँह लगाकर उस बर्तन में से कुछ पानी पी लिया जबकि कुछ पानी उषस्ति के लिए बचाकर रख दिया। उस व्यक्ति को पूर्ण अपेक्षा थी कि भूख से व्याकुल उषस्ति इस झूठे पानी को भी वैसे ही पी लेगा जैसे उसने झूठे उड़द उससे लेकर खाना सहर्ष स्वीकार कर लिया था।
मर्यादा नहीं होत है – जब हो आपद काल।
हालात समय को देखकर निर्णय लो तत्काल।।
उड़द खाना पूर्ण होने के बाद उषस्ति ने पत्ता फेंक दिया और बिना पानी पिए ही वहाँ से चल दिया। तब उस व्यक्ति ने कहा, ‘महाशय, पानी पी के जाओ ना’। तब उषस्ति बोला, ‘मैं जूठा पानी नहीं पीता।’ तब वह व्यक्ति बोला, ‘जूठे उड़द खाते हो, तो जूठा पानी क्यों नहीं चलता।’ तब उषस्ति ने कहा ‘मैं जूठे उड़द नहीं खाता तो मर जाता। अब मुझ में कुछ जान आ गई है। कहीं आसपास झरना होगा तो देखता हूँ।’ जूठे उड़द खाना यह आपद्धर्म है। पर यदि उड़द खाने के बाद उषस्ति झूठा पानी भी पी लेता तो समझा जाता कि उसने आपद्धर्म को नियमित कर दिया। आपद्धर्म को नियमित करना शास्त्र संगत नहीं है।
राजकुमार का आपद्धर्म
अतः राजकुमार जयशाह ने जंगलों की ओर जाकर अपनी प्राण रक्षा करके अपने आपद्धर्म का निर्वहन किया । यदि वह जंगलों में ही खोकर रह जाता और फिर कभी युद्ध की ओर आना तक उचित नहीं मानता तो समझा जाता कि उसने अपने आपद्धर्म को नियमित कर दिया है।
एक मान्यता यह भी है कि मौहम्मद बिन कासिम के लौटते ही सिन्ध में स्वतन्त्रता के लिए विद्रोह फैल गये और राजा दाहिर के बेटे जयशाह उपनाम जयसिंह ने पुन: सिन्ध का राज्य प्राप्त कर लिया। यद्यपि जयसिंह कालान्तर में इस्लामिक हमलावरों से दु:खी होकर मुस्लिम बन गया था, पर अपनी भूल की अनुभूति होते ही वह फिर से स्वधर्म में लौट आया। बाद में वह मुस्लिमों के द्वारा ही मार दिया गया। अत: राजा दाहिर सेन के सैनिक और उसकी दो बेटियां स्वतन्त्रता के युद्घ के पहले स्मारक हैं तो राजा जयसिंह और उसके वीर बलिदानी सैनिक इस युद्घ के दूसरे पूज्य स्मारक हैं।
इन पूज्य स्मारकों पर पुष्प चढ़ाए बिना हमारे स्वाधीनता संग्राम का इतिहास पूर्ण नहीं हो सकता।
(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “राष्ट्र नायक राजा दाहिर सेन” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹175 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति
मुख्य संपादक, उगता भारत