डॉ. भरत झुनझुनवाला
केन्द्रीय आवास एवं शहरी, गरीबी उन्मूलन मंत्रालय ने गरीबों के लिये मकान बनाने को राज्य सरकारों से आग्रह किया है। मंत्रालय ने तीस लाख घर प्रति वर्ष बनाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इस योजना को राज्य सरकारों के माध्यम से लागू किया जायेगा। योजना के अंतर्गत गरीब परिवारों को ब्याज पर 6.5 प्रतिशत की सब्सिडी दी जायेगी। यदि गरीब परिवार को बैंक से 12 प्रतिशत की दर से ऋण मिलता है तो उसे केवल 5.5 प्रतिशत ही स्वयं अदा करना होगा। शेष 6.5 प्रतिशत ब्याज सरकार द्वारा अदा किया जायेगा। मान्यता है कि इससे गरीब के लिये ऋण लेना आसान हो जायेगा।
सब्सिडी ब्याज दर पर दी जायेगी, मूल धन पर नहीं। यानी पांच लाख का वन रूम हाउस खरीदने पर क्रेता को मूलधन का रीपेमेन्ट स्वयं अपनी पाकेट से करना होगा। 5 लाख के ऋण पर जो लगभग दो लाख का ब्याज अदा करना होगा, उस पर सब्सिडी दी जायेगी। मोटे तौर पर ब्याज की आधी रकम को क्रेता को अदा करना होगा। यानी उसे लगभग 6 लाख का रीपेमेंट करना होगा। 10 वर्ष का लोन अगर मान लें तो उसे प्रति माह लगभग 5000 रु. अदा करना होगा। ‘गरीब’ के लिए इस रकम को अदा कर पाना लगभग असम्भव है।
आज दिल्ली में सामान्य कर्मचारी का मासिक वेतन लगभग 7,000 रु. प्रति माह है। कर्मचारी का भोजन पर मासिक खर्च 2,500 रु., किराया 1,000 रु., कपड़ा, मोबाइल एवं अन्य खर्च 1,000 रु., ड्यूटी पर आने का किराया 500 रु. वहन करने के बाद उसके हाथ में मात्र 2000 रु. बचते हैं। साल में दो बार गांव जाना होता है। गांव में परिवार के पोषण के लिये भी 2000 रु. प्रति माह भेजने होते हैं। वह बड़ी मुश्किल से अपना खर्च निभा पाता है। ऐसे में 5000 रु. प्रति माह का लोन उसके लिये अदा कर पाना लगभग असंभव होगा।
गरीब द्वारा मकान बनाने की मुख्य समस्या क्रयशक्ति का अभाव है। रियल एस्टेट सलाहकारी कंपनी जोन्स लांग लसाले के अनुसार शहरों के हाई इनकम ग्रुप के लगभग 99.8 प्रतिशत लोगों के पास और मिडिल इनकम ग्रुप के 10 प्रतिशत लोगों के पास अपने मकान हैं। लेकिन लो इनकम ग्रुप के मात्र 0.2 प्रतिशत लोगों के पास अपने मकान हैं। स्पष्ट है कि मकान उपलब्ध कराने में मुख्य समस्या गरीब की गरीबी है। सच यह है कि गरीब को मकान मुहैया कराने में एक मात्र अड़चन है कि उसके पास मकान खरीदने को पैसा नहीं है।
पिछले 60 साल से कांग्रेस सरकार की नीति रही कि गरीब को गरीब रहने दो। गरीब के बाहुबली नेताओं को खरीद लो। इन नेताओं के माध्यम से गरीब के वोट हासिल कर लो। गरीब की गरीबी दूर हो गई तो वह गांव के बाहुबलियों की गिरफ्त से बाहर हो जायेंगे। कांग्रेस लगातार ऐसे कार्यक्रम बनाती रही कि गरीब इन बाहुबलियों पर आश्रित बना रहे। इस नीति को लागू करने के लिये जरूरी था कि गरीब की आय न्यून बनी रहे।
अत: कांग्रेस ने आटोमेटिक मशीनों से कपड़े के उत्पादन को प्रोत्साहन दिया, जिससे जुलाहे का धंधा समाप्त हो जाये और वह गरीब की कतार में खड़ा होकर गांव के बाहुबलियों से राशन कार्ड, मनरेगा और इंदिरा आवास के अंतर्गत याचना करता रहे। 100 में से दो गरीबों को हर वर्ष मकान उपलब्ध करा दिया जाये तो सब खुश। सरकारी अधिकारियों एवं बाहुबलियों को कमीशन मिलेगा। दो गरीबों को मकान और 98 को आशा मिलेगी। इस आशा के चलते वे कांग्रेस को वोट देंगे। इस भ्रष्टाचार के तंत्र में बैंक भी बड़े खिलाड़ी हैं। उत्तराखंड के एक ईमानदार ग्राम प्रधान ने स्थानीय बैंक से आग्रह किया कि उसके गांव के किसी भी आवेदक को बिना उसके अनुमोदन के लोन न दिया जाये। कारण कि बैंक ने दलालों को पाल रखा है। ये दलाल ग्रामीण की जमीन गिरवी रखवा कर लोन दिलवाते हैं। कागजों में 50,000 का लोन दिया जाता है। गरीब को मिलता है 30,000। शेष 20,000 दलाल हड़प जाते हैं। गरीब को 50,000 की रकम का तब पता चलता है जब जमीन की कुर्की का नोटिस जारी होता है।
ऐसी ही स्थिति बनारस के एक रिक्शे वाले ने बयां की। वह 50 रु. प्रतिदिन पर एक बाहुबली से रिक्शा किराये पर लेता था। साल में कार्य के दिन 300 मान लें तो 15,000 रु. प्रति वर्ष किराया वह अदा करता है। रिक्शे का दाम मात्र 12,000 रु. है। जब पूछा लोन क्यों नहीं ले लेते हो? जवाब मिला लोन लेने के लिये जो 5-7 दिन की दिहाड़ी टूट जायेगी, उसमें पेट कैसे भरेगा? फिर लोन के कागजात लाने के लिये खर्च होगा। इसके बाद लोन मिलेगा 6000 रु.। बाकी 6000 रु. कहां से आयेंगे?
तात्पर्य यह कि गरीब के लिये लोन लेना लोहे के चने चबाने जैसा है। कांग्रेसी सत्ता के दौरान सरकारी कर्मियों, बैंक अधिकारियों और बाहुबलियों का एक अपवित्र गठबंधन सृजित हुआ, जिसके बल पर गरीब को गरीब बनाये रखा गया और वोट भी पार्टी ने हासिल किये।
कांग्रेस की इस नीति को मोदी सरकार और तत्परता से लागू कर रही है। गरीब की एक मात्र समस्या गरीबी है। उसकी आय को बढ़ाने के लिये न तो कांग्रेस के पास कोई पालिसी थी और न ही वर्तमान सरकार के पास कुछ है। बावजूद इस सब के स्वीकार करना होगा कि इस दुष्चक्र के बाद भी कांग्रेस द्वारा मनरेगा को लागू करने के बाद गरीब की दिहाड़ी में भारी वृद्धि हुई थी। पर खेद की बात है कि मोदी के सत्तारूढ़ होने के बाद गरीब के वेतन में कोई वृद्धि नहीं हुई।
एक वर्ष पूर्व सामान्य श्रमिक का मासिक वेतन 5 से 6 हजार रु. था। आज भी उतना ही है। इस अवधि में महंगाई ऊपर पहुंची है। तदनुसार उसकी वास्तविक आय में कटौती हुई है। यानी कांग्रेस की नीति में गरीब को बाहुबलियों के शिकंजे में रखने के साथ-साथ उसके वेतन में कुछ वृद्धि की गई थी। वर्तमान में उसे उसी शिकंजे में रखते हुए उसके वेतन में कटौती की जा रही है। सरकार को चाहिये कि धन-जन योजना और मकान पर ब्याज सब्सिडी जैसे अव्यावहारिक कार्यक्रमों को त्यागकर गरीब की आय में वृद्धि करने के कार्यक्रम बनाये जो गरीबी का ठप्पा धूमिल करने में सहायक बने।