पहाड़ों से नदियों का निकलना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, लेकिन लगातार बहती इस धार के विपरीत बहने वाले ही इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अपना नाम अंकित करवाते हैं। समाज के साथ न बहने वाले, समाज को नई सोच, नया दर्शन, नई गति, नई ऊर्जा और नई दिशा देने वाले ही ऐतिहासिक पुरोधा बनते हैं। मानव अक्सर अपनी कमजोरियों को यह कहकर ढांपने की कोशिश करता है कि जमाना बदल गया है किंतु वास्तविकता यह है कि जमाना नही बदला है, मानव की सोच बदल गयी है, उसका चिंतन दूषित हो गया है, उसकी मन: स्थिति में आमूल चूल परिवर्तन हो गया है। अन्यथा तो वही दिन है, वही रातें हैं, वही घडिय़ां और पल हैं। सूरज वही, चांद वही, धरती वही और ऋतुएं वही हैं। किंतु यह मानव वही नही है जिसके लिए वेद ने आदर्श उपस्थित किया था कि तू मानव ही बने रहना, कहीं फिसल मत जाना, कहीं गिर मत जाना और गिरकर भी इतना मत गिर जाना कि फिर उठ ही न पाए। आज यह पानी के प्रवाह के साथ बहता जा रहा है और इस प्रवाह से धर्मगुरू उच्च धर्म के ठेकेदार भी बच नही पा रहे हैं। उन पर आपराधिक षडय़ंत्र के मुकदमे विचाराधीन हैं। ऐसे धर्मगुरू किस धर्म की शिक्षा दे पाएंगे?
यह सनातन सत्य है कि जमाना हमसे बनता है, हम जमाने से नही बनते। हम इस संसार की ईकाई मात्र हैं, लेकिन उन्हीं इकाइयों से संसार का निर्माण होता है। इस अकेली इकाई की बहुत महत्ता है। इसलिए वेद ने इस मानव रूपी इकाई को ही शुद्घ रखने का निर्देश दिया है। अत: हम इस बदले हुए मानव का अनुसरण करना छोड़ें। हम विकृति का अनुसरण क्यों करें। जो वस्तु विकृत हो चुकी है, विकारग्रस्त हो चुकी है, सड़ गल गयी है, और सारी व्यवस्था के लिए एक कोढ़ बन गयी है, वही तो रूढि़वाद है। हमें इस रूढि़वाद को, परंपरावादी दृष्टिकोण को त्यागना होगा।
ये संसार व्यक्ति से बना है और व्यक्ति का मूल है ‘मैं’ अर्थात हर व्यक्ति अपने आपसे भी बात करता है तो ‘मैं’ ‘मैं’ का संबोधन करता है, इसलिए हर व्यक्ति अपने आप में ‘मैं’ है। वह स्वयं जब आत्मावलोकन करता है तो ‘मैं’ पुकारता है। वही उसकी ‘मैं’ सुधर गयी तो सब सुधर जाएगा। उस ‘मैं’ को हम बनाते हैं। अहम को मिटाकर सर्वग्राही और सर्वमंगलकारी हम में परिवर्तित करना है।
यही बात मानव के लिए नई दिशा और नई दशा देने वाली होगी। इसलिए नये उद्यम और नये समाज के निर्माण के भारी उद्योग का श्रीगणेश हमें ‘मैं’ से करना है।
निजता को पहचानकर अपनी अस्मिता को जानकर और अपने निज स्वरूप को समझकर।
इसलिए हे मानव तू निज स्वरूप को पहचान, तू अमृत पुत्र है। आत्मा के यथार्थ स्वरूप को पहचान अपने गंतव्य और मंतव्य को पहचान। तेरी निजता ही तेरी अक्षुण्ण धरोहर है और धरोहर को तो संरक्षण और सुरक्षा की आवश्यकता होती ही है। वह खोने की वस्तु नही। इसलिए हे मानव तू मानव बन।
तेरे मानव बनने की कसौटी है कि तू अपने व्यवहार को पहचानने की युक्ति इस प्रकार सोचकर कर कि यह कदाचार है, यह दुराचार है, यह भ्रष्टाचार है, यह पापाचार है, यह अनाचार है, यह अत्याचार है, इन पर मनन कर और अपना चिंतन बदल, जब चिंतन बदल जाए तो इसके पश्चात सोचना आरंभ कर-यही सुविचार है, यही धर्म का आधार है, इसी से होता भवपार है, परमेश्वर सुनता पुकार है, वही है नैया वही पतवार है, वही खिवैया और खेवनहार है, देव फिर काहे का इंतजार है, इसलिए मानव तू अभी से एक बेहतर इंसान बनने के सदप्रयासों में जुट जा।