राजगृह का बौद्ध बिहार उन दिनों तरुणी परिव्राजिका कुंडलकेशा के पांडित्य और सारिपुत्र की उत्कृष्ट योग-साधना की चर्चा का केंद्र बना हुआ था। रोज हजारों जिज्ञासु आते और कुंडलकेशा से समाधान प्राप्त करते जबकि सारिपुत्र आत्म-शोध के लिए नितांत एकाकी जीवन-यापन को ही महत्व दे रहे थे।
उनका एकाकीपन भंग किया कुंडलकेशा ने। एक ओर पांडित्य का अहंकार और दूसरी ओर नारी सौंदर्य का दर्प। किंतु जब उसका सौंदर्य-जाल सारिपुत्र को बांध नहीं पाया तो उसका अहंकार जाग उठा और वह सारिपुत्र को पांडित्य से पराजित करने की बात सोचने लगी। धर्म-सम्मेलन या विचार-गोष्ठियों में कुंडलकेशा सभासदों के सम्मुख ही ऐसे तार्किक प्रश्न पूछ बैठती, सामान्य बुद्धि के व्यक्ति के लिए जिनका उत्तर देना कठिन हो जाता।
सारिपुत्र योगी थे। योग-उपार्जित तत्वज्ञान वाचिक ज्ञान की अपेक्षा कहीं अधिक सारभूत होता है, सो अल्पशिक्षित होते हुए भी और यह जानते हुए भी कि कुंडलकेशा का मंतव्य प्रश्नों का समाधान नहीं किसी को हराना भर है, वे प्रश्नों के यथोचित उत्तर दे दिया करते।
एक दिन सारिपुत्र को लगा कि कहीं इस तरह उनका अभिमान तो नहीं जाग रहा। साधना की रक्षा के लिए उन्होंने अहंकार को मारने का ही निश्चय किया और उस दिन से उन्होंने कुंडलकेशा द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर मौन से देना प्रारंभ कर दिया।
समय का फेर कुछ ऐसा हुआ कि कुंडलकेशा संग्रहणी ग्रस्त हो गई। सौंदर्य का स्थान बीमारी की पीत काया और वमन-विरेचन की अपवित्रता ने ले लिया। उन्हीं दिनों भगवान बुद्ध का वहां आगमन हुआ। उन्होंने कुंडलकेशा के बारे में जान उसे देखने की इच्छा प्रकट की। किंतु कौन जाता उसके पास, सभी मुंह फेरकर खड़े हो गए। केवल सारिपुत्र ऐसे थे, जिनके मुख पर घृणा का कोई भाव नहीं था। वे उठे और संघ शिविर की ओर चल दिए।
जब कुंडलकेशा ने देखा कि उसकी इस अवस्था के बावजूद सारिपुत्र स्वयं उसे बुद्ध के पास ले जाने आए हैं तो उसका दंभ चूर-चूर हो गया और वह सारिपुत्र के चरणों में गिर पड़ी।
सारिपुत्र ने उसे उठाते कहा – उठो भद्रे, तथागत की शरण में किसी का अकल्याण नहीं होता। इतना कह वे उसे साथ लेकर भगवान बुद्ध के पास चल पड़े।