सियासत की भेंट चढ़ी एक अच्छी पहल-अरुण जेटली
भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा, पारदर्शिता, पुनर्वास और पुनस्र्थापना अधिनियम-2013 में संशोधन के लिए लाए गए अध्यादेश की अवधि 31 अगस्त को समाप्त हो गई। अध्यादेश का स्थान लेने के लिए विधेयक संसद की स्थायी समित के समक्ष लंबित है। इसमें अचरज नहीं कि देश में भूमि अधिग्रहण कानून की प्रकृति और भविष्य को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। मेरा विचार यह है कि 2013 का अधिनियम खराब तरीके से लिखा गया कानून है। इसमें तमाम तरह की अस्पष्टता और त्रुटियां हैं। अधिनियम के कुछ प्रावधानों का प्रभाव उनकी भाषा के सर्वथा विपरीत है। इस कानून पर जैसे ही गंभीरता से अमल होगा, वैसे ही कानूनी अड़चनों और कठिनाइयों की एक श्रृंखला आरंभ हो जाएगी। अधिनियम के प्रावधान ग्रामीण क्षेत्रों में विकास को बाधित करेंगे। ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे के विकास और रोजगारों के जरिये प्रगति की जो कल्पना की गई है, वह इन प्रावधानों के कारण साकार नहीं हो सकेगी। गत 31 दिसंबर को जब कानून में बदलाव के लिए केंद्र सरकार की ओर से अध्यादेश लाया गया था, तो इसका मूल उद्देश्य इन कठिनाइयों को दूर करना ही था। कांग्रेस पार्टी के कई नेताओं का कहना है कि 2013 के कानून ने भूमि अधिग्रहण के पहले किसानों की सहमति को अनिवार्य बनाया था, लेकिन 2015 के अध्यादेश ने इस अनिवार्यता को छीन लिया। यह विचार 2013 के कानून के सेक्शन 2(1) की भाषा से मेल नहीं खाता। राष्ट्रीय सुरक्षा, बुनियादी ढांचे, कृषि प्रसंस्करण, औद्योगिक कॉरिडोर, जल संचयन, सरकारी सहायता वाले शैक्षिक संस्थानों, खेल व पर्यटन, पुनर्वास परियोजना, आवासीय परियोजना व गांवों के नियोजित विकास आदि से जुड़ी परियोजनाओं के लिए किसी सहमति की अनिवार्यता नहीं है। इस प्रावधान को सेक्शन 2(2) में भी शब्द के साथ और हल्का किया गया है। ये प्रावधान कानून का मसौदा लिखने वाले शख्स के मन में सेक्शन 2(1) के तहत सहमति की अनिवार्यता न लागू होने संबंधी व्यवस्था को लेकर भ्रम को दर्शाता है। यह अस्पष्टता दुरुस्त करने की जरूरत है।
इसी तरह सामाजिक प्रभाव आकलन और इससे संबंधित तमाम कदम बहुत अधिक समय खपाने वाले हैं। इनमें कई वर्षों का समय लग सकता है। समय संबंधी प्रावधानों में जो भाषा इस्तेमाल की गई, उसमें के अंतर्गत शब्द का इस्तेमाल किया गया है। इस समय को घटाए जाने और कुछ मामलों में समाप्त करने की जरूरत है।
2013 के कानून में समस्त अधिग्रहीत भूमि को पांच साल की अवधि के भीतर इस्तेमाल किए जाने की व्यवस्था की गई है। टाउनशिपों को पांच साल में पूरा नहीं किया जा सकता। चूंकि खराब मसौदे वाले कानून में कुछ महत्वपूर्ण सुधार बेहद जरूरी थे, इसलिए ज्यादातर राज्य सरकारों ने मौजूदा केंद्र सरकार के समक्ष यह बात रखी कि इन संशोधनों को तत्काल लागू किया जाना चाहिए। यह राज्य सरकारों का ही अनुरोध था, जिसके चलते 2013 के भूमि कानून में संशोधन का अध्यादेश जारी किया गया। यह आश्चर्यजनक है कि अध्यादेश जारी होने के बाद कांग्रेस पार्टी ने अपना रुख पलट लिया और वह राजनीतिक कारणों से अध्यादेश का विरोध करने लगी। इस अध्यादेश को दो बार और जारी किया गया, लेकिन राजनीतिक गतिरोध जारी रहा। संशोधन संबंधी विधेयक अभी भी संसद की स्थायी समिति के समक्ष लंबित है।
प्रधानमंत्री ने नीति आयोग के तत्वावधान में एक बार फिर मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई, जहां सभी मुख्यमंत्रियों की राय थी कि अगर केंद्र के स्तर पर गतिरोध जारी रहता है, तो राज्यों को कुछ गुंजाइश देनी चाहिए। उनका विचार था कि राज्यों को अपने संशोधन लाने की शक्ति मिलनी चाहिए।
सवाल यह है कि क्या राज्य सरकारें केंद्र सरकार के कानून में संशोधन कर सकती हैं? संपत्ति का अधिग्रहण समवर्ती सूची में सूची 3, प्रविष्टि 12 का विषय है। अनुच्छेद 254(2) स्पष्ट रूप से प्रावधान करता है कि राज्य सरकार समवर्ती सूची से संबंधित विषय पर कानून ला सकती है। यह केंद्रीय कानून के प्रतिकूल भी हो सकता है, बशर्ते इस तरह के कानून को राष्ट्रपति से मंजूरी मिल गई हो।
इसलिए संशोधन के प्रभावी होने से पहले राज्य सरकारें 2013 भूमि कानून में संशोधन करने व राष्ट्रपति की मंजूरी मांगने के लिए पूरी तरह सक्षम हैं। नीति आयोग द्वारा आयोजित बैठक में इस बात पर ठीक ढंग से सहमति बन गई थी। एक राज्य संशोधन ले भी आया है, जबकि कुछ अन्य के ऐसा करने की संभावना है। राज्य किसानों के हितों के संतुलन और अधिग्रहण के लिए अपेक्षित भूमि के प्रावधान के लिए वैकल्पिक व्यवस्था का प्रावधान कर सकते हैं। अब इस सवाल पर विचार करते हैं कि क्या केंद्र पीछे हटा है? अध्यादेश के जरिये 2013 के कानून में लाए गए संशोधन धारा 10(क) में शामिल हैं। इसमें प्रावधान किया गया है कि राज्य इस धारा में उल्लिखित पांच उद्देश्यों में से किसी एक या सभी का प्रावधान कर सकते हैं और सहमति तथा सामाजिक प्रभाव आकलन संबंधी प्रावधानों को मुक्त कर सकते हैं। इसलिए अध्यादेश में इसे राज्यों की इच्छा पर छोड़ दिया गया कि वे अपनी सुविधा से पांच मुक्त उद्देश्यों में से किसी को अधिसूचित करें। अध्यादेश में जो स्थिति थी, वह अपरिवर्तित है। नीति आयोग द्वारा लिए निर्णय के आधार पर राज्य सरकारें इस बारे में निर्णय लेने के लिए अब भी सक्षम हैं।
2015 के अध्यादेश का लक्ष्य राज्यों को कुछ हद तक लचीलापन देना था। वे अपनी आवश्यकताओं को सबसे अच्छे तरीके से समझते हैं। राज्यों को यह लचीलापन मुख्यमंत्रियों की बैठक में लिए गए निर्णय में भी दिया गया है। इसलिए इस वक्त स्थिति यह है – 1) भूमि अधिग्रहण से संबंधित 2013 का कानून लागू हो गया है। 2) संशोधन का विधेयक अब भी स्थायी समिति के समक्ष विचाराधीन है और अगर सर्वसम्मत सुझाव दिए जाते हैं तो उसे लागू किया जाएगा। 3) अगर कोई राज्य केंद्रीय कानून में कुछ संशोधन करना चाहता है तो उसे इस बारे में केंद्र सरकार द्वारा अनुमति दी जाएगी।
अब एक और सवाल पर विचार करते हैं कि क्या धारा 105 के अंतर्गत अधिसूचना जरूरी थी? 2013 के कानून के तहत अनुसूची 4 में उल्लिखित 13 कानूनों को अधिग्रहण संबंधी प्रावधानों से छूट दी गई थी। यह छूट सहमति और सामाजिक प्रभाव आकलन से संबंधित प्रावधानों से दी गई है। इन कानूनों को अतिरिक्त मुआवजा, राहत एवं पुनर्वास से संबंधित प्रावधानों से भी छूट दी गई है। इस धारा में एक वर्ष की अवधि के अंदर अधिसूचना जारी करने का प्रावधान है, जो मुआवजा, राहत और पुनर्वास के प्रावधानों को अधिसूचित 13 कानूनों में लागू करेगा। यह व्यवस्था अध्यादेश में कानूनी रूप से शामिल की गई थी। चूंकि अध्यादेश संबंधी संशोधन की अवधि 31 अगस्त 2015 को समाप्त हो गई है, इसलिए केंद्र सरकार के लिए इस अवधि के पहले अधिसूचना जारी करना जरूरी था। यह कर दिया गया है।
(लेखक केंद्रीय वित्त मंत्री हैं)