स्कूल खोलने को दी जाए सर्वोच्च प्राथमिकता

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डॉ. अजीत रानाडे

तीसरी लहर या कोविड-19 के डेल्टा संस्करण के खतरों को स्कूलों को फिर से खोलने वाले लाभों के साथ संतुलित किया जा सकता है। कोविड प्रोटोकाल के सख्ती से पालन, कोविड के संक्रमण के उपचार की बेहतर समझ और बढ़ते टीकाकरण तथा सामुदायिक प्रतिरक्षण के चलते यह जोखिम उठाया जा सकता है। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि ग्रामीण क्षेत्रों के 97 फ़ीसदी पालकों ने स्कूल खुलने का जबरदस्त समर्थन किया है। वास्तव में एक पालक ने तो सर्वे करने वालों से यह पूछ भी लिया कि ‘क्या आपको हमसे यह सवाल पूछने की जरूरत है?’

देश के 15 राज्यों में किए सर्वेक्षण में पाया गया है कि ऑनलाइन शिक्षा पद्धति के परिणाम संतोषजनक नहीं हैं। पिछले 17 महीनों से देश की प्राथमिक और माध्यमिक शालाएं बंद पड़ी हैं और पढ़ाई का सारा कामकाज ऑनलाइन हो रहा है। ऑनलाइन पढ़ना और पढ़ाना कितना प्रभावशाली है, इस बारे में हमारे पास बहुत से वास्तविक साक्ष्य हैं। जिन परिवारों में एक ही स्मार्टफोन है वहां यह ऑनलाइन छात्र को प्राथमिकता के रूप में दिया जाता है। स्मार्टफोन और टेबलेट के उपयोग के समय कनेक्टिविटी या बैंडविथ की समस्याएं सामने आ रही हैं। इसके अतिरिक्त शिक्षकों के साथ प्रत्यक्ष संपर्क न होने के कारण छात्रों को विषयवस्तु समझने में भी कठिनाई हो रही है। कुछ शहरी अभिजात वर्ग के स्कूलों को छोड़कर पालकों, शिक्षकों और छात्रों की राय है कि यह अनुभव बहुत असंतोषजनक है। हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट में यह बात कही गई है।

‘इमरजेंसी रिपोर्ट ऑन स्कूल एजुकेशन (ईआरएसई)’ शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट को विख्यात अर्थशास्त्री जीन ड्रेज़, रितिका खैरा ने निराली बाकला और विपुल पैकरा के साथ मिलकर तैयार किया है। यह रिपोर्ट तैयार करने के लिए 100 स्वयंसेवकों ने पहली कक्षा से आठवीं कक्षा तक के 1400 छात्रों का साक्षात्कार किया। यह सर्वे असम, बिहार, दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में किया गया। सर्वे के निष्कर्ष चौंकाने वाले हैं। सर्वे के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों के सिर्फ 8 प्रतिशत और शहरी इलाकों के 24 प्र.श. छात्र नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं। हाल के महीनों में देखा गया कि शहरी क्षेत्रों के 19 प्र.श. और ग्रामीण क्षेत्रों के 37 फीसदी छात्रों ने पढ़ाई ही नहीं की। इन छात्रों ने पढ़ाई पूरी तरह से छोड़ दी है। शहरी इलाकों के आधे से ज्यादा 52 प्र.श. और ग्रामीण क्षेत्रों के 71 फीसदी छात्रों ने इस सर्वे के 30 दिन पहले तो अपने शिक्षकों से मुलाकात भी नहीं की थी।

स्कूली शिक्षा में आई इस कमी का सीधा परिणाम पढ़ने के कौशल पर पड़ेगा। इसका अर्थ यह है कि महामारी के दौरान साक्षरता का स्तर और नीचे जाएगा। प्राथमिक शालाओं के 500 से अधिक दिन बंद रहने का कई मायनों में नकारात्मक असर पड़ा है। सबसे पहला साक्षरता के स्तर में भारी गिरावट है। दूसरा, मध्याह्न भोजन योजना (मिड डे मील्स) बंद होने के कारण छात्रों के पोषण स्तर पर असर पड़ रहा है। हालांकि रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को स्कूल में मिड डे मील्स का विकल्प मिला किंतु शहरी क्षेत्रों के 20 फ़ीसदी छात्रों और ग्रामीण क्षेत्रों के 14 प्र.श. छात्रों को खाद्यान्न या नगद किसी भी रूप में कोई विकल्प नहीं मिला। तीसरा, अब जब बच्चों को किसी भी परीक्षा के बिना अगली कक्षा में पदोन्नत किया जाएगा, उदाहरण के लिए पांचवी कक्षा में, तब उनके पढ़ाई का अधिकतम स्तर तीसरी कक्षा जितना ही होगा। यह अंतर कम करने के लिए बहुत कड़े प्रयास करने होंगे क्योंकि इसका असर कई वर्षों तक रह सकता है।

चौथा, सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों पर इसका काफी खतरनाक असर पड़ेगा। उदाहरणार्थ, दलित और आदिवासी समाज के सिर्फ 5 फ़ीसदी छात्र पहले से रिकॉर्डिंग वीडियो देखने के अलावा ऑनलाइन कक्षाओं में उपस्थित रहते हैं। इस समूह में साक्षरता का स्तर 61 प्र.श. तक गिर गया है। सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों में पढ़ने की क्षमता और साक्षरता में गिरावट को महसूस किया जा रहा है। पांचवा है स्कूल छोड़ने का प्रभाव, आय में गिरावट के कारण पालकों द्वारा बच्चों को स्कूल से निकाला जा रहा है क्योंकि पालक स्कूल की फीस भरने में स्वयं को असमर्थ पा रहे हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि खास तौर पर 10 से 14 वर्ष के आयु वर्ग में बाल श्रमिकों की संख्या बढ़ी है। इसमें स्कूलों से निकाले गए बच्चे शामिल हैं जो घर में बिना किसी मेहनताने के काम कर रहे हैं। इसका प्रभाव लड़कों की बनिस्बत लड़कियों पर ज्यादा पड़ा है।

इस रिपोर्ट का निष्कर्ष यह है कि स्कूल तुरंत खोले जाने चाहिए। स्कूलों को बंद रखना एक आसान विकल्प है लेकिन इसके दीर्घकालीन हानिकारक परिणाम हैं। वास्तव में इसे कोविड-19 के दीर्घकालीन प्रभाव के रूप में देखा जाना चाहिए। स्कूलों को फिर खोलने के लिए सुनियोजित कार्यक्रम और कल्पना की जरूरत होगी। शुरुआत में इसे छात्रों की बारी-बारी से आंशिक उपस्थिति के साथ आरंभ किया जा सकता है, किंतु शिक्षकों के साथ छात्रों का ऑफलाइन संपर्क उनके संपूर्ण विकास के लिए आवश्यक है। शालाएं समाजीकरण का माध्यम हैं और इसका मतलब आपस में मिलना-जुलना आवश्यक है। मध्याह्न भोजन योजना सिर्फ पोषण के लिए या स्कूलों में उपस्थिति बढ़ाने के लिए नहीं है बल्कि इसका उद्देश्य बच्चों का आपस में घुलना-मिलना बढ़ाने और उन्हें सामाजिक रूप से मिलाना भी है।

छात्रों और शिक्षकों को प्रभावित करने वाली तीसरी लहर या कोविड-19 के डेल्टा संस्करण के खतरों को स्कूलों को फिर से खोलने वाले लाभों के साथ संतुलित किया जा सकता है। कोविड प्रोटोकाल के सख्ती से पालन, कोविड के संक्रमण के उपचार की बेहतर समझ और बढ़ते टीकाकरण तथा सामुदायिक प्रतिरक्षण के चलते यह जोखिम उठाया जा सकता है। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि ग्रामीण क्षेत्रों के 97 फ़ीसदी पालकों ने स्कूल खुलने का जबरदस्त समर्थन किया है। वास्तव में एक पालक ने तो सर्वे करने वालों से यह पूछ भी लिया कि ‘क्या आपको हमसे यह सवाल पूछने की जरूरत है?’

लॉकडाउन जारी रखने के सभी प्रकार के निर्णयों के लिए हमें कोविड-19 का बहाना नहीं बनाना चाहिए। यह महामारी किसी मिसाल के बिना है पर अब हमें सारे विश्व से और भारत में भी दस्तावेजी सबूत मिल चुके हैं जिनकी मदद से हम लॉकडाउन को पूरी तरह से खोलने की योजना बना सकते हैं। पिछले वर्ष लॉकडाउन को अचानक पूरी कड़ाई के साथ लागू कर दिया गया था। इसे जीवन और आजीविका की विपरीत परिस्थितियों के बीच संतुलन के रूप में पेश किया गया था किंतु अब करीब 18 माह बाद इसकी जरूरत नहीं रह गई है। पिछले वर्ष लॉकडाउन के कारण अनौपचारिक क्षेत्र, खुदरा और आतिथ्य क्षेत्र-होटल व्यवसाय की कई नौकरियां हमेशा के लिए समाप्त हो गई हैं। दैनिक रोजी-रोटी कमाने वालों की हालत और भी खराब हो गई है। इनकी आजीविका फिर से शुरू हो सके इसके लिए उन्हें मदद और समर्थन की जरूरत है। इसके साथ ही यह भारत की मानव पूंजी में गिरावट रोकने के लिए आवश्यक है। आज के बच्चे कल के कामगार हैं।

ईआरएसई की रिपोर्ट, यदि किसी के लिए आवश्यक हो तो, सतर्क करने की घंटी है। ऑनलाइन स्कूलिंग और पढ़ने के स्तर में गिरावट के आंकड़ों से परे इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि बच्चों के आचरण में गिरावट आई है। पालकों ने शिकायत की है कि आलस, व्यायाम की कमी, फोन की लत एवं अन्य कारणों से बच्चे अनुशासनहीन, आक्रामक और हिंसक तक हो गए हैं। परिवारों को ऐसी कई तनावपूर्ण स्थितियों का सामना करना पड़ा है। जाहिर है कि स्कूल खोलने के लाभ सिर्फ पढ़ने-लिखने या लेखन कौशल के विकास से कहीं ज्यादा हैं।

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