इस समय दादरी में गुर्जर सम्राट मिहिर भोज की प्रतिमा के अनावरण को लेकर गुर्जर और राजपूत जाति के लोग आमने-सामने हैं । गुर्जर सम्राट मिहिर भोज को राजपूत जाति के कुछ लोग राजपूत वंशी मानकर उन पर अपना अधिकार जता रहे हैं। जबकि दशकों से विद्यालयों / कॉलेजों में निर्धारित पाठ्यक्रम में गुर्जर सम्राट के रूप में पढ़ाये जाते रहे सम्राट मिहिर भोज मूल रूप से गुर्जर वंश के शासक रहे हैं। इन्हीं तथ्यों के आधार पर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत जी ने गुर्जर सम्राट की प्रतिमा का अनावरण गुर्जर सम्राट के रूप में किया। दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे साहिब सिंह वर्मा द्वारा भी एक सड़क का नामकरण गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के नाम से किया गया ? इसके अतिरिक्त गौतम बुध नगर के सांसद डॉ महेश शर्मा द्वारा भी केंद्रीय मंत्री रहते हुए गुर्जर शोध संस्कृति संस्थान में सम्राट मिहिर भोज की प्रतिमा का अनावरण गुर्जर सम्राट के रूप में किया गया। इसके उपरांत भी कुछ लोग इस मामले को अनावश्यक करवाने का काम कर रहे हैं जिससे कि उनकी राजनीति चमकती रहे।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि भारत में क्षत्रिय वर्ण समराज की शरण होती हुई व्यवस्था को रोकने के लिए स्थापित किया गया था। निश्चित रूप से धर्म संस्कृति के क्षेत्र में जो लोग अपने कार्यों से किसी भी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न करते थे उनका विनाश करना क्षत्रियों का कार्य था। क्षत्रियों के इसी कार्य को देखते हुए कालांतर में क्षत्रिय शब्द के स्थान पर ‘गुर्जर’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। उस समय गुर्जर किसी वर्ग या संप्रदाय या जाति विशेष के लिए प्रयुक्त नहीं होता था, बल्कि पूरे क्षत्रिय समाज के लिए प्रयुक्त किया जाता था। ऐसा कहना हमारी कल्पना मात्र नहीं है बल्कि गुर्जर शब्द के व्यापक अर्थ से यह बात स्वत: सिद्ध हो जाती है। गुर्जर शब्द में ‘गुर’ का अर्थ शत्रु है जबकि ‘जर’ का अर्थ उसका नाश करने वाले से है। इस प्रकार ‘गुर्जर’ शब्द का यह शाब्दिक अर्थ क्षत्रिय शब्द के समानार्थक सिद्ध होता है। क्षत्रिय वर्ण के भीतर आने वाली अन्य जातियों के किसी भी नाम से क्षत्रिय और उस जाति के नाम का इतना गहरा संबंध प्रकट नहीं होता जितना गुर्जर और क्षत्रिय का होता है।
‘वृहद संस्कृत हिंदी शब्दकोश’ के अनुसार गुर’ का एक अर्थ प्रयत्न करना भी है। जबकि ‘जर’ का अर्थ विनाश ,क्षरण / जरण (बूढा, क्षीण, निर्बल) होता है।
इन दोनों शब्दों का मिलान करके भी यदि देखा जाए तो भावार्थ यही निकलता है कि गुर्जर वह है जो विनाश की, क्षरण की या जरण की अवस्था से लोगों को या समाज को या राष्ट्र को बाहर निकालने का प्रयत्न करता है। जो व्यक्ति या समाज या वर्ण या जाति राष्ट्र सेवा के लिए अपने आपको इसी महान उद्देश्य के प्रति समर्पित करके प्रस्तुत करती है वह ‘गुर्जर’ कहलाती है।भारतीय इतिहास में राजपूत शब्द 12 वीं शताब्दी के दौरान सुना जाना आरम्भ हुआ । यह ‘राजपूत’ शब्द किसी एक जाति विशेष के लिए न होकर सम्पूर्ण क्षत्रिय जातियों ने अपने एक संघ के रूप में अपने लिए स्वीकृत किया था। इस संबंध में ‘भारतीय संस्कृति के रक्षक’ नामक अपनी पुस्तक के पृष्ठ संख्या 33 पर रतन लाल वर्मा जी लिखते हैं :- ” तुर्कों के साथ भविष्य में होने वाले आक्रमणों का मुकाबला करने के लिए विभिन्न जातियों के लोगों ने ‘राजपूत’ नामक जातीय संघ बनाया था । क्योंकि ‘राजपूत’ शब्द से उनके राजवंशी होने का बोध होता था । मेरी पहली पुस्तक ‘गुर्जर वीरगाथा’ की भूमिका में प्रसिद्ध राजपूत विद्वान ठाकुर पी एन सिंह ने राजपूत जाति का बनना (केवल गुर्जरों से ही ) इस प्रकार लिखा है कि शासक वर्ग अर्थात गुर्जर जाति के सैनिकों व अन्य लोगों को अन्य जातियों के लोगों द्वारा आदर के लिए ‘राजपुत्र’ नाम से पुकारा जाता था तथा बाद में यह आदर सूचक शब्द जातिवाचक बन गया । जो कुछ भी हो , परंतु यह सत्य है कि गुर्जरों तथा अनेक अन्य आर्य , अनार्य, दासी पुत्र आदि से मिश्रित ‘राजपूत’ जाति 12 वीं शताब्दी के अन्त में मुसलमानों द्वारा भारत विजय के बाद बनी थी । जिसमें गुर्जर जाति के अधिकांश कुल गोत्रों के अनेक जत्थे मालवा के परमारों की भांति विद्रोही होकर और अन्य कारणों से अपनी जाति छोड़ राजपूत जाति संघ में सम्मिलित हो गए थे। वर्तमान राजपूत जाति में करीब 70% लोग गुर्जर जाति के हैं । परंतु सभी कुल गोत्रों के कुछ लोगों ने विभिन्न जातियों की मिश्रित जाति राजपूत में सम्मिलित होना पसंद नहीं किया । वह अपने गौरवशाली नाम गुर्जर को चिपटे रहे । विशेषकर विघटित गुर्जर सोलंकी साम्राज्य के अंतर्गत गुर्जरों के सभी कुल गोत्रों के जनसाधारण , सैनिक, सामंत सोलंकी सम्राट गुर्जर ही रहे और उनका प्रदेश भी गुजरात ( तत्काल गुर्जर भूमि ) रह गया । जबकि पुराने गुर्जर देश का उत्तर पूर्वी भाग जयपुर, जोधपुर, बीकानेर आदि राजपूत रियासतों के कारण तभी से राजस्थान कहलाया।”
श्री वर्मा जी के द्वारा लिखी गई यह बात बहुत पते की है । इससे भारतीय इतिहास की सही परम्पराओं का तो हमें बोध होता ही है साथ ही यह भी पता पड़ता है कि हमारे क्षत्रिय वंशी शासकों में देश धर्म के लिए एक साथ आने की उस समय कितनी ललक थी ? श्री वर्मा जी द्वारा राजपूत विद्वान लेखक के द्वारा कही गई बात से हम इसलिए सहमत हैं कि भारत में विदेशी आक्रमणकारियों का सामना करने के लिए एक बार नहीं कई बार हमारे वीर हिंदू योद्धाओं ने राष्ट्रीय सेनाओं और गठबंधनों का गठन किया था।
मेरे द्वारा छह खंडों में लिखी गयी “भारत के 1235 वर्षीय स्वाधीनता संग्राम का इतिहास ” नामक ग्रंथ माला से हमें पता चलता है कि भारतवर्ष के क्षत्रिय योद्धाओं ने अपने देश , धर्म व संस्कृति की रक्षार्थ कई बार सैनिक मोर्चा या राष्ट्रीय सेना बनाईं । ऐसे में यदि सभी क्षत्रिय जातियों ने मिलकर ‘राजपूत’ नाम से अपने आपको संबोधित करते हुए एक राष्ट्रीय मोर्चा विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध उस समय खोल लिया हो तो इसमें किसी भी प्रकार की असम्भावना का प्रश्न नहीं उठता । वैसे भी आबू पर्वत पर यज्ञ कर जब शंकराचार्य जी ने क्षत्रिय शासकों को या कुलों को अपने साथ लिया था तो उसकी अनिवार्य शर्त भी यही थी कि आप सभी मेरे साथ आकर मुझे इस बात के प्रति आश्वस्त करें कि हम देश को विदेशी आक्रमणकारियों से रक्षित करेंगे और गुलाम नहीं होने देंगे। अब जबकि 12 वीं शताब्दी के आते-आते विदेशी आक्रमणकारी भारत में कुछ क्षेत्रों पर अपने पैर जमाने में सफल हो गए थे तो स्वभाविक था कि शंकराचार्य जी के समय लिए गए संकल्प में आ रही गिरावट को दृष्टिगत रखते हुए हमारे शासकों में भीतर ही भीतर इस बात का चिंतन चल रहा हो कि एक साथ बैठा जाए और फिर इस बात पर विचार विमर्श किया जाए कि ऐसा क्या किया जा सकता है जिससे विदेशी आक्रमणकारियों को भारत में पैर जमाने से रोका जाए ? तब भारतीय क्षत्रियों के चरित्र के अनुकूल यह बहुत संभव है कि उन्होंने ऐसा किया हो।
इतिहास इतिहास की इस उपलब्धि को मिले उचित स्थान
इस विचार पर और भी अधिक शोध होना चाहिए । यदि यह सत्य है तो इसे अपने राष्ट्रीय इतिहास में हमारे इतिहासनायकों का महान चरित्र स्वीकार करते हुए उचित स्थान मिलना चाहिए । जिससे यह बात पुष्ट होगी कि हमारे महान पूर्वजों ने 12 वीं शताब्दी के आरम्भ में विदेशियों के द्वारा जब मां भारती को पददलित करने का पैशाचिक कार्य किया जा रहा था तो उसका उन्होंने एकजुटता से सामना किया था। उसके विरुद्ध वे लोग हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठे थे बल्कि उसका सामना करने के लिए संयुक्त मोर्चा बना रहे थे और अपने आपको जातीय भेदभाव से ऊपर उठाकर ‘राजपूत’ नाम से संबोधित कराने में गर्व और गौरव की अनुभूति कर रहे थे । इस प्रकार उस समय हमारे महान पूर्वज अपनी राष्ट्रीय एकता का परिचय दे रहे थे । उन्होंने देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए अपने जातीय भेदभाव को मिटाने का सत्संकल्प लिया और उसके लिए अपनी एक पहचान , एक सोच , एक चाल और एक दिशा निर्धारित की । सचमुच देशहित में ऐसा कोई महान जाति ही कर सकती है । जिसे निश्चित रूप से उन्होंने हिंदुत्व के ध्वज नीचे रहकर करना उचित समझा । अपने आपको राजपूत कहना उनके इस चिंतन को प्रकट करता है कि वह क्षत्रिय परम्परा के प्रतिनिधि बनकर हिंदुत्व के लिए प्राणपण से कार्य करेंगे और किसी भी विदेशी आक्रमणकारी को भारत में पैर नहीं जमाने देंगे । एक प्रकार से सभी शासक लोगों ने ‘राजपूत ‘ शब्द अपने लिए पंथनिरपेक्षता का मार्ग चुना था , जिसे उस समय का क्रांतिकारी निर्णय कहा जाना चाहिए।
याद रहे कि कोई विदेशी इतिहासकार हमारे इतिहास की इस महत्वपूर्ण घटना को कभी नहीं लिखेगा । क्योंकि उसे तो हम लोगों को यही बताना है कि हम तो सदा लड़ते रहे और परस्पर फूट के कारण विदेशियों के सामने हारते रहे । इस घटना को तो हमको स्वयं ही समझना और महिमामंडित करना होगा कि हमने विदेशियों के विरुद्ध उस समय अपना राष्ट्रीय चरित्र प्रस्तुत करते हुए राष्ट्रीय एकता का प्रमाण दिया था , जब स्वयं को सबने क्षत्रिय का समानार्थक ‘राजपूत’ कहलवाना आरम्भ किया था । इस प्रकार की मान्यता से हमारे जातीय विद्वेष के भाव समाप्त होंगे और हम अपने आपको यह अनुभव करा सकेंगे कि हम सब एक ही मूल की शाखाएं हैं और उसी के लिए समर्पित रहकर काम करते रहने के अभ्यासी रहे हैं।
इस प्रकार की मान्यता को पुष्ट करने से यह भी लाभ होगा कि जो गुर्जर शासक होकर भी अपने आपको राजपूत कहलाने लगे थे वह भारतीय राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित होकर ऐसा लिखने लगे थे , यद्यपि वह मूल रूप में गुर्जर ही थे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत