लाला लाजपत राय भारतीय मुस्लिम आंदोलन ‘खिलाफत
“किसी भी दूसरी कौम गुलामी से हिन्दुओ को मुसलमानों की गुलामी करना श्रेयस्कर होगी।”
-(पी.सी.बैंमफोर्ड:हिस्ट्रीज ऑफ खिलाफत एंड नॉन कोऑपरेशन मूवमेंट,पृष्ठ २९)
उनके इस कथन की उन हिन्दुओ में जो ‘हिस्ट्री ऑफ रिलीजन’ के विख्यात लेखक बिल ड्यूरेन्ट की निम्नलिखित टिप्पणी से न केवल परिचित थे,अपितु स्वंय इस्लाम के मूल ग्रंथों,कुरान और हदीस और मुस्लिम इतिहास का गहन अध्ययन कर चुके थे,खलबली मच गई।
“भारत में मुसलमानों की विजय कदाचित इतिहास की सर्वाधिक रक्तरंजित कहानी है।इस अत्यंत अरुचिकर कहानी निष्कर्ष यही निकलता है कि किसी राष्ट्र की सभ्यता-संस्कृति ऐसी नाजुक चीज है,इसका ताना-बाना,शांति और सुव्यवस्था,बाहर से आकर हमला करने वाले या अपने अंदर ही पनपने वाले बर्बर आक्रमणकारियों द्वारा कभी भी नष्ट किया जा सकता है।”
-(बिल ड्यूरेन्ट)
इन विद्वान के आग्रह पर लाला लाजपत राय ने जो पर्याप्त अध्ययन के पश्चात ही निष्पक्ष राय बनाने में विश्वास करते थे।६ माह तक सभी दूसरे कार्यों को छोड़कर कुरान,हदीस और शरीयत का अध्ययन किया।इस अध्ययन से उनके होश उड़ गए।खिलाफत के मुस्लिम नेता इस्लाम को शांतिमय,साम्प्रदयिक सदभाव,विश्व-बंधुत्व का जो चेहरा उनके सामने प्रस्तुत करते रहे थे।इस अध्ययन के पश्चात उनके सामने उभरे हुए इस्लाम के घोर साम्प्रदायिक,क्रूर और गैर-मुसलमानों के प्रति अपूर्व घृणायुक्त रूप से नितांत भिन्न था।हिन्दू-मुस्लिम एकता को अपना मुख्य हथियार बनाकर भारत को अंग्रेजों से स्वतंत्र कराने का स्वप्न देखने वाला वह पंजाब का सिंह इस अध्ययन के पश्चात अपनी स्वाभाविक ओजस्विता और निर्भीकता के बावजूद इस्लाम द्वारा हिन्दुओ के अस्तित्व को नष्ट करने के संकल्प मात्र से विचलित हो गया।अपनी इस गहन चिन्ता से श्री सी.आर.दास को १९२४ में पत्र लिखकर अवगत कराते हुए उन्होंने लिखा कि-
“मैंने गत ६ मास मुस्लिम इतिहास और कानून (शरीयत) का अध्ययन करने में लगाये।… मैं ईमानदारी से हिंदू-मुस्लिम एकता की आवश्यकता और वांछनीयता में विश्वास करता हूं।मैं मुस्लिम नेताओं पर पूरी तरह विश्वास करने को भी तैयार हूं;परंतु कुरान और हदीस का आदेश का क्या होगा?
उनका उल्लंघन तो मुस्लिम नेता भी नहीं कर सकते।तो क्या हम नष्ट हो जायेगे?”
यदपि लाल लाजपत राय द्वारा उठाये गये इस प्रश्न को १०० वर्ष होने को जा रहे है परन्तु इस दुविधापूर्ण प्रश्न पर सहजता पूर्वक निष्पक्ष अध्ययन के पश्चात किसी भी विद्वान ने कुछ कहने की आवश्यकता नहीं समझी।आज भी इस्लाम के विषय में विश्व के शीर्ष राजनेता,हमारे लगभग सभी धर्माचार्य,भारतीय राजनीतिक नेता और मीडिया के धुरंधर विद्वान अभी भी यही बता रहे हैं कि इस्लाम का अर्थ शान्ति है और वह विश्व-बंधुत्व,सर्वधर्म समभाव में विश्वास करता है।रक्तपात और हिंसा में विश्वास नही करता।भारत में मुस्लिम आक्रमणकारियों,सुल्तानों और स्वार्थपरता और धनलिप्सा का परिणाम बता कर,इस प्रकार की क्रियाओं को इस्लाम के विरुद्ध होने का बल देते हैं।
उनके अनुसार साम्प्रदायिक समस्या का सहज इलाज यह है कि भारतीय मुसलमान मुख्यधारा में बिन जाए;जैसे अपने नाम गुलाम मोहम्मद के स्थान पर मोहम्मद दास रखने लगे।
क्या कपड़े और नाम बदलने भर से मुसलमानों की मानसिकता का निर्माण करने वाली उनकी मूल धार्मिक मान्यताये बदल जाएंगी।जिनकी जडे गहराई तक कुरान और हदीस में गई हुई हैं।जो उनके और मूर्ति पूजक हिन्दुओ के बीच एक गहरी,घृणापूर्ण और कभी भी न लांघें जाने वाली खाई का काम करती हैं।
११ सितंबर २००१ को विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक शक्ति अमरीका के हृदय पर भयानक प्रहार के पश्चात कुछ पश्चिमी विद्वानों ने (भारत में नहीं) इस आतंकवाद की धार्मिक जड़ो को तलाशने की आवश्यकता समझी और अमरीका और उसके सहयोगियों द्वारा आतंकवाद के विरूद्ध संपूर्ण घोषणा कर दी गई और फिर अमेरिका ने अपने सहयोगी सेना से अफगानिस्तान से तालिबान की सत्ता को उखाड़ कर फैक दिया,पर वह यह विस्मृति कर गया कि पाकिस्तान ही इस्लामी जिहाद का कारखाना है।अब जब २० वर्षो के पश्चात अपना पीटा मुँह ले कर अफगानिस्तान से निकल गया हैं।तब फिर से इस्लाम का क्रूर चेहरा विश्व के सामने मात्र एक माह में ही सामने आने लगा है।आज तालिबान पूरे भूभाग के लिए चुनौती बन कर उभरा हैं।तालिबान की कट्टर इस्लामी जेहादी सोच भारत के लिए भी खतरा बन सकती है।
इसीलिए अपनी रणनीति बनाने के लिये हमें सामरिक दृष्टि से तालिबान की स्थिति को पाकिस्तान,ईरान,चीन और अमेरिका के दायरे में समझना होगा।तालिबान के पाकिस्तान से घनिष्ठ संबंध जगजाहिर है।पाकिस्तान चाहता कि भारत मे गजवा-ए-हिन्द को आगे बढ़ाया जाये।
इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि कुरान की मक्का में अवतरित हुई आयते आस्तिकता,गरीबो और गुलामों के प्रति उदारता,व्यवसाय में ईमानदारी इत्यादि जैसे सर्वमान्य नैतिक सिद्धांतो के शांतिपूर्वक प्रचार पर बल देती है;परंतु मौदूदी साहब और उनके जैसे अनेक शीर्षस्थ मुस्लिम विद्वानों और उनके मदरसों में शिक्षा प्राप्त तालिबानों मत है कि इस्लाम जिन व्यापक सुधारों को लाना अस्तित्व को उन सुधारो में जो खतरा दिखा देता है,उनको वह इतनी आसानी से कभी लाने ने देंगे।इसलिए मजबूर होकर मोमिन (मुसलमानों) को युद्ध करना पड़ता है।जिससे सुधार के मार्ग में जो अवरोध है।उन्हें बलपूर्वक उखाड़ फेंका जाये।उसके लिए सत्ता पर कब्जा करना आवश्यक हैं,क्योंकि सत्ता की सहायता के बिना इतिहास में कहीं भी और कभी भी तेजी से सुधार सम्भव नही हो सका है।
तालिबान कुरान व हदीसो के अनुसार खुद को स्थापित कर रहा है।
मदीने में पैगंबर द्वारा अपना एक मार्ग की सफलता और मक्का की घोर असफलता निःसंदेह प्रमाणित करती है कि उनके द्वारा अपनाई गई नीति के बिना उन्हें मदीने में जो चमत्कारिक सफलता प्राप्त हुई,वह संभव नहीं होती।
तालिबान के अफगानिस्तान में जबरन स्थापित होना इस्लाम की विजय माना जा रहा है,जो निकट भविष्य में बहुत ही खतरनाक रूप ले सकता हैं।
भारत की अमेरिका पर ज्यादा निर्भर रहना नही चाहिए।भारत को अपने मार्ग स्वयं बनाने होंगे और कुछ ग्रथियों से बाहर निकलना होगा।भारत इस्लामी जेहाद से एक हजार वर्षों से लड़ रहा है,अब उसको अपनी पूरी क्षमता से इस मानसिकता को कुचलना होगा,क्योंकि अब इसके अलावा कोई मार्ग भी तो शेष नही है…!!
संजीव कुमार पुंडीर
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