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भारतीय संस्कृति

असहनशीलता के दौर में रिश्तों का कत्ल

क्षमा शर्मा

एक महिला ने ऑनलाइन पढ़ाई ठीक से न करने के कारण अपने साढ़े तीन साल के बच्चे को तकिए से गला घोंटकर मार डाला। फिर खुद भी आत्महत्या कर ली। एक पिता नौकरी चले जाने के कारण अवसाद में था, इसलिए अपने दो बच्चों को मार डाला। आत्महत्या करने से पहले सुसाइड नोट लिखा और जान दे दी।

एक लड़के ने जायदाद के विवाद में अपने पिता और बड़े भाई की हत्या कर दी। एक पति ने अपनी पत्नी की हत्या की और खुद थाने जा पहुंचा। लेकिन सबसे ज्यादा हैरतअंगेज कहानी पंद्रह साल की एक लड़की की है। यह लड़की अपने माता-पिता से इसलिए नाराज थी कि वह डाक्टर नहीं बनना चाहती थी और माता-पिता उसे डाक्टर बनाना चाहते थे। वह बार-बार अपनी नापसंदगी के बारे में बता चुकी थी, मगर किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। लड़की नाराज होकर अपने चाचा के घर रहने चली गई थी। मां वहां से समझा-बुझाकर वापस ले आई थी।

उसने घर वालों को पुलिस से शिकायत करने की धमकी भी दी थी। एक दिन मां उसे पुलिस स्टेशन भी ले गई थी। वहां पुलिस वालों ने दोनों को समझा-बुझाकर घर भेज दिया। फिर एक दिन मां ने जब पढ़ाई न करने के लिए लड़की को डांटा तो वह इतनी गुस्से में आ गई कि उसने कराटे बैल्ट से मां का गला घोंट दिया। सोचिए मां का कुसूर इतना भर था कि वह लड़की को अच्छी तरह से अपने पांव पर खड़ा करना चाहती थी। लेकिन उसकी गलती यह थी कि लड़की की रुचि की तरफ ध्यान नहीं दिया।

ये सारी घटनाएं कुछ ही दिनों की हैं। ऐसे में ये सोचना पड़ता है कि आखिर एक साल में अपने देश में ऐसी कितनी घटनाएं होती होंगी। और मारने के कारण भी कैसे-कैसे। एक साढ़े तीन साल के बच्चे को क्या पता कि पढ़ाई क्या होती है। उन नन्हे बच्चों को इस बात का अहसास कैसे होता कि उनका पिता ही उन्हें मार देगा। या कि क्या वह मां कभी सोचती होगी कि जिस लड़की को वह डाक्टर बनाना चाहती है, वह ही एक दिन उसकी जान ले लेगी।

सफलता पाने की लालसा, जमीन-जायदाद पर कब्जा, किसी और की सफलता को देखकर अपने बच्चों पर पढ़ाई का दबाव। वे क्या पढ़ना चाहते हैं इसे न जानकर उन पर अपनी इच्छा थोपना। उन्हें वह बनाने की सोचना जो माता-पिता खुद न बन सके। बच्चों के जरिए अपने सपनों को पूरा करना भी तो जायज है। ऐसे में कई बार कितना अघट भी घटता है। कितनी हिंसा भी होती है।

पंद्रह साल की उस लड़की को मां क्यों नहीं समझ सकी। अगर लड़की डाक्टर बनना नहीं चाहती थी तो क्यों नहीं उसकी बात मान ली। कोई कह सकता है कि पंद्रह साल की लड़की अपने भविष्य के बारे में शायद सही फैसला न कर सके। ये हो भी सकता है और नहीं भी। क्योंकि इन दिनों बच्चे भी उसी सूचना-समाज में रहते हैं, जिसमें हम बड़े। वे भी रात-दिन टीवी देखते हैं। उनके हाथ में भी मोबाइल, लैपटाप और कम्प्यूटर हैं। वे भी सोशल मीडिया पर हैं। ऑनलाइन कक्षाओं में पढ़ने के कारण उनका स्क्रीन टाइम भी बढ़ा है। अपने देश में फेसबुक की दुनिया में सबसे अधिक बच्चे हैं। वे पोर्न भी बड़ी संख्या में देखते हैं। ऐसे में उन्हें पहले जैसा बच्चा मानना असलियत से अनदेखी भी है। पहले लड़के-लड़कियां बीए, एमए कर लेते थे और उन्हें नहीं पता होता था कि भविष्य में क्या करना है। अब ऐसा नहीं है। सातवीं-आठवीं तक आते-आते बच्चों की करिअर काउंसलिंग की जाने लगती है। इसलिए यह सोचना कि पंद्रह साल की लड़की को क्या पता सही नहीं है।

साढ़े तीन साल के बच्चे की वह मां पढ़ी-लिखी रही होगी। उसे इस बात की भी चिंता रही होगी कि बच्चा पढ़ेगा नहीं तो क्या करेगा। लेकिन अपने नन्हे बच्चों पर इतना क्रोध कि माता-पिता ही उन्हें मारने लगें। कहां तो घरों या स्कूलों में बच्चों के प्रति हिंसा न हो, की बातें लगातार होती हैं और कहां उनका कत्ल। पिता की नौकरी चली गई तो बच्चों को मार दिया। आखिर क्यों। क्या यह लगा कि नौकरी नहीं तो हाथ में पैसा भी नहीं। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई आदि की जिम्मेदारी कैसे निभाएगा।

कारण जो भी हो, मगर किसी की जान लेना अपराध है। आखिर इतनी नृशंसता आ कहां से रही है, जहां गुस्से में अच्छा-बुरा भी दिखाई नहीं दे रहा। जिस पिता ने अपने बच्चों को मारा या जिस लड़की ने अपनी मां को, पति ने पत्नी को या पत्नी ने पति को, क्या एक बार भी यह ख्याल नहीं आया कि बाद में क्या होगा। परिजन जीवन से गए यह तो है ही, अपनी जिंदगी भी गई। फांसी होगी या जेल में रहेंगे। वहां से छूटे भी तो क्या किसी अपने की ही हत्या के अपराधबोध से जीवनभर मुक्त हो सकेंगे।

आखिर हमारी सहनशीलता और धैर्य को क्या हुआ। अच्छे-बुरे का फर्क ऐसे कैसे मिट गया। या कि बुरे के प्रति जो एक डर का भाव होता था, वह समाज से तिरोहित हो गया है। इसमें हमारे प्रचार माध्यमों का भी बड़ा हाथ है। और सोशल मीडिया की तो पूछिए ही मत। जब इस तरफ इनसे जुड़े लोगों का ध्यान दिलाया जाता है, तो वे बड़ी मासूमियत से कहते हैं कि हम तो वही दिखा रहे हैं जो समाज में हो रहा है। समाज में अपराध हैं तो दिखा रहे हैं। लेकिन अपराध को ग्लैमर की शक्ल में पेश करना, अपराधी को किसी हीरो की तरह से दिखाना, इन दिनों न केवल फिल्मों बल्कि समाज में भी दिखाई देता है। तभी तो हर राजनीतिक दल अपराधियों को अपने दल में खुशी-खुशी जगह देता है। वे चुनाव जीतते भी हैं और अपराध कैसे खत्म हों, इसके लिए कानून बनाते हैं। ऐसे में अपराध के प्रति डर का भाव खत्म हो जाता है। कहीं यह सोच भी बन जाती है कि पकड़े गए तो छूट भी जाएंगे। लेकिन बाहर के अपराधियों को क्या कहें, जब अपनों के प्रति अपने ही हत्या जैसे अपराधों को अंजाम देने लगें। माता-पिता बच्चों की, बच्चे माता-पिता की जान लेने लगें।

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