थोड़े समय पहले अजीत भारती ने एक इंटरव्यू में पूछा था कि क्या भगवद्गीता परतों में, लेयर्स में है? इसका सीधा सा जवाब हाँ है। अगर ये समझना हो कि ये कई परतों में कैसे है तो ये सोचिये कि आपके हिसाब से भगवद्गीता किनका संवाद है? संभवतः अधिकतर लोग इसका आसान सा जवाब दे देंगे। कई लोगों को पता होता है कि कुरुक्षेत्र में श्री कृष्ण ने अर्जुन को भगवद्गीता का ज्ञान दिया था, इसलिए भगवद्गीता श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद है। अब सोचिये कि क्या ये पूरी तरह सच है? अगर परतों के हिसाब से देखें तो ऐसा नहीं दिखेगा।
भगवद्गीता का पहला ही श्लोक धृतराष्ट्र का कहा हुआ है (यही धृतराष्ट्र का इकलौता श्लोक भी है)। वो संजय से बात कर रहे होते हैं और संजय ही धृतराष्ट्र को युद्धक्षेत्र का पूरा हाल बता रहे होते हैं। इसलिए एक परत और उठाकर देखें तो भगवद्गीता संजय और धृतराष्ट्र का संवाद है जिसके अन्दर श्रीकृष्ण-अर्जुन आता है। पहले अध्याय में (1.21, 1.25) संजय बताते हैं कि श्री कृष्ण ने अर्जुन से क्या कहा। इसके अलावा पहले ही अध्याय में तीसरे श्लोक से ग्यारहवें श्लोक तक संजय बताते हैं कि दुर्योधन ने क्या कहा। इसलिए दुर्योधन का संवाद भी यहाँ है ऐसा कहा जा सकता है लेकिन ये संजय के संवाद के अन्दर आता है, इसलिए अलग से “दुर्योधनउवाच” नहीं मिलता।
श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद तो असल में दुसरे अध्याय के दूसरे श्लोक पर शुरू होता है, जहाँ श्रीकृष्ण उत्तर देना आरंभ करते हैं। इसके अलावा तीसरे अध्याय के दसवें श्लोक में (बारहवें श्लोक तक) बताया गया है कि ब्रह्माजी ने क्या कहा है, लेकिन वो श्रीकृष्ण के बताये हुए के अन्दर आता है, इसलिए वहाँ भी “ब्रह्मा उवाच” जैसा कुछ नहीं लिखा गया है। वो सीधे “श्रीभगवान् उवाच” के अंतर्गत ही आ जाता है। अब अगर इससे थोड़ा ऊपर चलें, महाभारत के स्तर पर देखें तो वो राजा जनमेजय और ऋषि वैशम्पायन का संवाद है। उस स्तर पर आपको संजय-धृतराष्ट्र संवाद से भी एक स्तर ऊपर जाना होगा।
भीष्मपर्व के आरंभ में राजा जनमेजय प्रश्न करते हैं कि कौरवों और पांडवों ने युद्ध कैसे किया और ऋषि वैशम्पायन इसके उत्तर में दोनों सेनाओं के बारे में बताना शुरू करते हैं। भीष्मपर्व के तेरहवें अध्याय में वैशम्पायन बताते हैं कि संजय ने आकर धृतराष्ट्र को बताया की भीष्म पितामह को शरशैय्या पर गिरा दिया गया है। इसके बाद देश और सेनाओं के बारे में संजय-धृतराष्ट्र में काफी चर्चा होती है। भीष्मपर्व के पच्चीसवें अध्याय के आरंभ में जाकर भगवद्गीता शुरू होती है (ये भगवद्गीता का पहला अध्याय है)। इस स्तर पर पहुँचते-पहुँचते तो भगवद्गीता कई लोगों का संवाद हो जाती है!
तो क्या ये कहना गलत होगा कि भगवद्गीता श्रीकृष्ण-अर्जुन का संवाद है? नहीं, गलत नहीं होगा। भगवद्गीता का हर अध्याय “श्रीकृष्णार्जुनसंवादे” से समाप्त होता है। इसलिए जब कहा जाए कि भगवद्गीता श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है, तो वो भी सही होगा। कोई बता दे या कई बार पढ़ लें तो ऐसी परतें आसानी से दृष्टिगोचर होने लगती हैं। टीकाएँ सिर्फ साधारण अर्थ बताती हैं, इसलिए इन अर्थों तक पहुँचने के लिए भाष्यों से पढ़ना-सीखना पड़ता है। कई भाष्यों में संवाद के सन्दर्भ में ये उदाहरण भी मिल जायेंगे। सीखने का प्रयास आपको खुद ही करना होगा, ये तो याद ही होगा!
धर्मो रक्षति रक्षितः
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भगवद्गीता पर पोस्ट लिखने पर कई बार लोग ये पूछते थे कि कौन सी पढूं? हम मन ही मन सोचते पांच सौ वाली भगवद्गीता पचास वाली से बेहतर होती है क्या! करीब हर शहर में गीता प्रेस की दुकानें होती हैं, जो भी आर्थिक सामर्थ्य के हिसाब से सही लगे बारह से दो सौ रुपये के बीच की वो खरीद के रख लें। इन्टरनेट से मुफ्त डाउनलोड हो सकता है, उसे भी पढ़ सकते हैं। फिर भला मुझसे क्यों पूछना है? चलो पूछ भी लिया और हमने बता भी दिया तो उस जानकारी का कोई कुछ करता भी है?
शुरूआती दौर में नतीजे नहीं दिखेंगे ऐसा मानते हुए हमने बताना जारी रखा। एक बार में ही पूरा पढ़ना बोरियत भरा और मुश्किल हो सकता है इसलिए पेंसिल लेकर गीता के साथ रखिये, और उसे किसी सामने की जगह पर रखिये जिस से आते जाते, टीवी देखते कभी भी उसपर नजर पड़ जाए। जब समय मिले, याद आये, उठा के दो-चार, पांच जितने भी श्लोक हो सके पढ़ लीजिये। रैंडमली कभी भी कहीं से भी पढ़िए और जिसे पढ़ लिया उसपर टिक मार्क कर दीजिये। थोड़े दिन में सारे श्लोक पढ़ चुके होंगे, ये भी बताते रहे।
कई बार यही दोहराने पर भी करीब साल भर होने को आया और नतीजे लगभग कुछ नहीं दिख रहे थे। फिर एक दिन किसी ने बताया कि उसने पूरी भगवद्गीता पढ़ ली है, फिर दुसरे ने, अचानक कई लोग बताने लगे थे! मामला यहीं नहीं रुका, लोगों ने बच्चों के लिहाज से लिखी गई भगवद्गीता की टीकाएँ उठाई, किसी ने अंग्रेजी वाली ली, किसी ने उपन्यास की सी शक्ल वाली, और लोग पढ़ते गए। अब एक कदम और आगे बढ़ते हुए भगवद्गीता बांटी भी जाने लगी है। कीमत बहुत ज्यादा नहीं होती इसलिए इतना मुश्किल भी नहीं। घर में होगी तो अपना पाठक वो खुद ढूंढ लेगी।
घर में होने वाले पूजा या अन्य आयोजनों में ऐसी किताबें आसानी से अतिथियों को भेंट की जा सकती हैं। कोशिश कीजिये, उतना मुश्किल भी नहीं है। कहते हैं :-
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्।।
जो धर्म का नाश करता है, उसका नाश धर्म स्वयं कर देता है, जो धर्म और धर्म पर चलने वालों की रक्षा करता है, धर्म भी उसकी रक्षा अपनी प्रकृति की शक्ति से करता है। अत: धर्म का त्याग कभी नहीं करना चाहिए। आपके धर्म की रक्षा आपकी ही जिम्मेदारी है। अगली पीढ़ी तक उसे पहुँचाने का अगर आपने कोई प्रयास नहीं किया तो उसके क्षय का किसी और को दोषी भी मत कहिये, ये आपकी ही जिम्मेदारी है।
एक बार की बात है, जब एक गरीब लेखक था। अब आप कहेंगे लेखक में गरीब का विशेषण जोड़ने की क्या जरूरत है? लेखक था तो गरीब ही होगा, ये तो मानी हुई बात है! तो ऐसा है कि हम किसी (अपने जैसे) गरीब हिन्दी लेखक की बात नहीं कर रहे। ये कहानी जिस लेखक की है, वो फ़्रांसिसी था। उन्हें दर्शन शास्त्र के अलावा इनसाइक्लोपीडिया जैसी चीज़ें लिखने के लिए भी जाना जाता है। खैर वापस किस्से पर आते हैं। तो किम्वदंती में बताया जाता है कि ये जो गरीब लेखक थे, इनकी बेटी की शादी तय हुई। समस्या ये थी कि लेखक तो गरीब थे और इनके पास शादी का खर्च उठाने के लिए कोई पैसे-वैसे नहीं थे!
किसी तरह लेखक महोदय की गरीबी की ये खबर रानी साहिबा तक जा पहुंची। रानी साहिबा पुस्तक प्रेमी थीं, और उन्होंने 1000 फ़्रांसिसी मुद्राओं में लेखक से किताबें खरीद लीं। ये किस्सा डेनिस डिडरो (Denis Diderot) का है जो 1713-1784 के दौर के फ़्रांसिसी विद्वान और दार्शनिक थे। अब के हिसाब से देखें तो उन्हें लाखों की रकम मिल गयी थी। लेखक महोदय की बिटिया की शादी तो अच्छे तरीके से हुई ही, थोड़ा ठीक दिखने के लिए गरीब लेखक ने एक ड्रेसिंग गाउन भी खरीद लिया। अब उनका ध्यान गया कि उनके नए ड्रेसिंग गाउन की तुलना में आस पास की चीज़ें तो बड़ी पुरानी और बेकार लग रही हैं!
लेखक महोदय ने अपनी पुरानी कुर्सी फेंककर नयी ले ली। अपनी पुरानी मेज़ को भी बदल दिया। उस दौर में घर में आदमकद आइना होना बड़ी बात होती थी, उन्होंने एक आइना भी लगवा लिया। इसी तरह एक के बाद एक चीज़ें आती गयीं और लेखक फिर से गरीबी में जा पहुंचे! “एटॉमिक हैबिट्स” के लेखक ये किस्सा रोचक अंदाज में सुनाते हैं। अपनी इस हालत पर डिडरो ने एक लेख लिखा “रेग्रेट्स ऑन पार्टिंग विथ माय ओल्ड ड्रेसिंग गाउन” (Regrets on Parting with My Old Dressing Gown)। इस लेख में डिडरो बताते हैं कि कैसे पहले तो अपने पुराने ड्रेसिंग गाउन के वो खुद मालिक थे, मगर नया ड्रेसिंग गाउन उनका ही मालिक बन बैठा।
एमबीए कर रहे छात्रों को जब “कंज्यूमर बिहेवियर” यानी उपभोक्ता व्यवहार पढ़ाते हैं तो उन्हें ये “डिडरो इफ़ेक्ट” भी पढ़ाया जाता है। एक चीज़ खरीदने पर दूसरी खरीदने की इच्छा, फिर उस दूसरी से तीसरी – ये उपभोक्ताओं में आसानी से नजर आने वाला व्यवहार है। घर में पहले सोफ़ा आएगा, फिर लगेगा कि सोफे के साथ ड्राइंग रूम का टेबल ठीक नहीं लग रहा, तो बेहतर टेबल आएगा। फिर लगने लगेगा कि बड़ा सा डब्बे वाला टीवी तो इनके साथ मैच ही नहीं कर रहा, तो एलईडी टीवी भी खरीद लिया जाएगा। इस तरह खरीदारी बढ़ती रहेगी, इच्छाएँ ख़त्म ही नहीं होंगी। इस तरीके को जूलिएट स्चोर ने 1992 में आई अपनी किताब “द ओवरस्पेंट अमेरिकन: व्हाई वी वांट व्हाट वी डोंट नीड” में “डिडरो इफ़ेक्ट” नाम से बुलाना शुरू कर दिया था।
अब आते हैं भगवद्गीता पर जो हमने धोखे से प्रबंधन (मैनेजमेंट) और विपणन (मार्केटिंग) की कहानी सुनाने के बहाने से आपको सुना डाला है। ये जो एक कारण से दूसरा और दूसरे से तीसरे का उपजना है, वो भगवद्गीता पढ़ने वालों के लिए बिलकुल नया नहीं होता। उन्होंने दूसरे अध्याय के बासठवें और तिरसठवें श्लोक में कारणमाला अलंकार देखा होता है –
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63
वैसे तो इन श्लोकों में कहा गया है कि विषयों का चिन्तन करने पर उसमें आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से इच्छा और इच्छा (पूरे न होने) से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से उत्पन्न होता है मोह और मोह से स्मृति विभ्रम। स्मृति के भ्रमित होने पर बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश होने से वह मनुष्य नष्ट हो जाता है। यहाँ आपको “डिडरो इफ़ेक्ट” का एक ड्रेसिंग गाउन से शुरू होकर फिर से गरीबी तक पहुँच जाने के क्रम जैसी ही कारणों की पूरी माला दिख जाएगी। इन दोनों श्लोकों को एक साथ पढ़ने पर ही पूरा अर्थ समझ में आता है, इसलिए इन श्लोकों में युग्म नाम का अन्वय है।
जहाँ तक “डिडरो इफ़ेक्ट” वाले उपभोक्ता की हरकत का प्रश्न है, उसके बारे में भगवद्गीता में भगवान कहते हैं कि जैसे आग में घी डालने पर आग संतुष्ट नहीं हो जाती, और भड़कती ही जाती है, वैसे ही कामनाएँ (और वासना) भी भोग मिल जाने पर संतुष्ट नहीं होतीं, और बढ़ती हैं। इसके लिए तीसरे अध्याय में कहा है –
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।3.39
स्वामी रामसुखदास के अनुसार इसका अर्थ है – और कुन्तीनन्दन! इस अग्नि के समान कभी तृप्त न होने वाले और विवेकियों के नित्य वैरी इस काम के द्वारा मनुष्य का विवेक ढका हुआ है। मनुष्य का विवेक उसे ये बता सकता है कि भोग के पूरे हो जाने पर और की इच्छा न जागे, ऐसा नहीं होगा। शराब के शौक़ीन लोगों को एक पेग के बाद दूसरे और दूसरे से तीसरे पर पहुँचने में इसका अनुभव होगा। सिगरेट जैसी चीज़ें छोड़ने के प्रयास में जब दो-चार दिन बाद, चलो आज एक पी लेते हैं, इतने भर से फिर से पुरानी जैसी ही आदत शुरू हो जाती है, उसमें कई युवाओं ने भी इसका अनुभव कर रखा है।
बाकी “डिडरो इफ़ेक्ट” के जरिये जो ये तीसरे अध्याय का उनचालीसवाँ श्लोक बताया है, उसे कई बार अकेले नहीं सैंतीसवें-अड़तीसवें श्लोक के साथ पढ़कर समझा जाता है। यानी अन्वय की दृष्टि से तीन श्लोक एक साथ पढ़ने के कारण यहाँ विशेषक अन्वय भी लागू हो सकता है। हमने जो सिर्फ एक बताया है, वो नर्सरी स्तर का है और पीएचडी के लिए आपको भगवद्गीता स्वयं पढ़नी होगी, ये तो याद ही होगा।
✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित