उधर कृष्ण जी न्याय और अन्याय के मध्य अंतर करते हुए न्याय को सिंहासनारूढ़ करने के लिए उसी प्रकार प्रयासरत हैं जिस प्रकार उन्होंने कंस को तथा जरासंध् जैसे नीच अधर्मी व्यक्तियों को सत्ताच्युत करके अब से पूर्व किया था। उनका अंतिम लक्ष्य न्याय को न्याय तथा ‘अन्याय’ को अन्याय सिद्घ करना था। इसके उपरांत भी कृष्ण जी इस हस्तिनापुर के राजघराने में इतनी शीघ्रता से हस्तक्षेप नहीं करते जितनी शीघ्रता से कंस अथवा जरासंध् के विषय में उन्होने किया था। इसमें श्रीकृष्ण की नीतिमत्ता ही थी। उन्हें अच्छी तरह ज्ञात था कि हस्तिनापुर का राजघराना जनता में अत्याचारों के लिए अभी भी कुख्यात नहीं था, वह मात्र पारिवारिक कलह और कटुता से ही ग्रस्त था। भीष्म जैसे राजनीतिक विद्वान और अनुभवी राजनेता एवं विदुर जैसे महाज्ञानी विद्वान वहां की राजसभा में विद्यमान थे। उन्हें धृतराष्ट्र के द्वारा जेल में नहीं डाल दिया गया था। वहां विद्वानों की उपेक्षा तो थी पर उनका उत्पीडऩ नहीं था। उनके विचारों की अवहेलना तो थी, विचारों पर प्रतिबंध् नहीं था। कृष्ण इन विद्वानों की उपेक्षा और अवहेलना से दु:खी थे, पर इसी दु:ख को अपनी कार्रवाई का आधार बनाना उचित नहीं समझते थे। इसके भी दो कारण थे-प्रथम तो यह कि पाण्डु उनके फू फ ा थे और कुंती उनकी बुआ थीं। इस प्रकार इस परिवार से उनका निकट का संबंध् था। दूसरे, संयोग की बात थी कि उनके फु फेरे भाई अर्थात युधिष्ठिर आदि ही न्याय पथ के पथिक थे, अन्याय उन्हीं के साथ हो रहा था। इस अन्याय का शीघ्रता से प्रतिकार करना कृष्ण पर पक्षपाती होने का आरोप लगा सकता था। अत: उन्होंने अत्यंत समझदारी से कार्य किया।
कृष्ण ने भीष्म पितामह को और असहाय होने दिया तथा विदुर को और भी उपेक्षित होने दिया। साथ ही पारिवारिक कलह को इतना बढऩे और भी उपेक्षित होने दिया। जन सामान्य तक की दृष्टि में ‘सत्य’ सामने आ जाये, घाव को पकाकर ही उसका उपचार करना उचित होता है। कृष्ण की यही नीतिमत्ता आगे चलकर महाभारत के युद्घ में भीष्म, विदुर और कृष्ण की भूमिका को सुनिश्चित कराने में सहायक हुई। महाभारत के युद्घ में असहाय भीष्म का युद्घ से निकलना संभव नहीं था-क्योंकि वह सभी घटनाओं में असहाय रूप में संलिप्त रहे थे। अत: युद्घ से भी वह भाग नहीं सकते थे। तब संसार उन पर कायरता का आरोप भी लगाता। सारी घटनाओं को अनिच्छा से जब भीष्म ने घटित होने दिया तो फि र इनके स्वाभाविक परिणाम से ही कैसे भाग सकते थे। जबकि विदुर के लिए यही उचित था कि वह इस युद्घ को भी साक्षी भाव से दूर से देखते रहते। वह हर घटना पर सही समय पर बोलते रहे थे। उनकी बात नहीं सुनी गई तो शांत भाव से राज प्रासादों से वन की ओर अर्थात शांत-एकांत कुटिया की ओर प्रस्थान कर गये। उस व्यक्ति ने रण की बात को सोचा ही नहीं था तो रण में जाते भी क्यों? रण की बात तो कृष्ण के मन मस्तिष्क में थी, उन्हें पता था कि परिस्थितियां बिना युद्घ के अनुकूल नहीं हो सकतीं। पर फि र भी युद्घ टालने का हरसंभव प्रयास उन्होंने किया। यह प्रयास मात्र लोकाचार ही था। कृष्ण वारणाव्रत-षड्यंत्र, द्रौपदी चीरहरण, पांडवों को वनवास और वनवास में भी उनके साथ उत्पीडऩात्मक कार्यवाहियों का स्वाभाविक परिणाम युद्घ ही मानते थे। उन्हें ज्ञात था कि अंधे राजा की हठधर्मिता और पुत्र मोह की अग्नि युद्घ की भीषण ज्वालाओं से ही शांत हो सकती है। युद्घ टालने के प्रयास उन्होंने इसलिए किये कि यदि यह प्रयास न होते तो कृष्ण भी अनुत्तरदायित्व के बोध् से त्रस्त व्यक्ति ही माने जाते। अन्यथा तो उस योगिराज को युद्घ की अनुभूति और युद्घ के परिणाम दोनों का पूर्व में ही भान था। ऐसी परिस्थितियों में कृष्ण को युद्घ में सम्मिलित होना ही था। उन्हें न्याय को न्याय देकर सिंहासनारूढ़ जो करना था। उससे ये कैसे भाग सकते थे?
कृष्ण यदि युद्घ में हथियार उठाते तो वह अर्जुन के सारथि न होते अपितु सेनापति होते और ऐसा सेनापति युद्घ को शीघ्रता से ही समाप्त करा डालता तब वह भी उचित न होता। जिसने जैसा कर्म किया उसको वैसे ही रूप में कर्मफ ल प्रदान करने के लिए इस नीतिज्ञ का सारथी होना और हथियार न उठाना ही सर्वथा अपेक्षित था। हमारी बुद्घि को उपनिषद के ऋषि ने-
आत्मानं रथिंन विद्घि, शरीरम रथमेव तु।
बुद्घिं तु सारथिं विद्घि बुद्घि तु सारथिं विद्घि बुद्घि तु सारथिं विद्घि मन: प्रग्रहमेव च।।
इस मंत्र में बुद्घि को सारथि ही माना है। पाण्डव पक्ष की ‘बुद्घि’ कृष्ण थे। अत: उनके लिए ‘सारथि’ होना ही बुद्घिमत्ता का परिचायक है। कृष्ण ने युद्घ में अपने लिए यही भूमिका उचित समझी। नीति शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘निश्चित व्यवस्था’ है। कृष्ण हर क्षेत्र में निश्चित व्यवस्था के हामी थे। उन्होंने राजनीति के क्षेत्र में व्याप्त अनीति को नीति में परिवर्तित किया। द्रौपदी चीरहरण के प्रयास को सारे भारतवर्ष में अकेले उन्होंने ही चुनौती दी।
हस्तिनापुर की राज्यसभा के सभी महारथी और मंत्री इस दृश्य पर शीश झुकाकर बैठ गये थे। तब भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के उस अश्लीलतम दृश्य का प्रतिरोध् करने हेतु कृष्ण वहां स्वयं उपस्थित हुए थे। दु:शासन द्रौपदी के चीरहरण के लिए उसके पतिव्रत धर्म के तेज के कारण हाथ तो पहले ही नहीं लगा पाया था, पर कृष्ण की अचानक अप्रत्याशित उपस्थिति ने उसका सारा साहस ही खो दिया। दुर्योधन की अनीति और उस पर भीष्म, द्रोण, धृतराष्ट्र का मौन कृष्ण को असहनीय था। इसलिए अन्य स्थानों की भांति हस्तिनापुर में भी ‘नीति’ की स्थापना करना कृष्ण का लक्ष्य था। हस्तिनापुर की भरी राज्यसभा में उपस्थित सभी महानुभावों को उन्होंने खरी-खोटी सुनाई थी। उनकी अनीति के कुफ ल अर्थात सर्वनाश के प्रति भी उन्हें सचेत किया था। हस्तिनापुर की राज्यसभा में द्यूत क्रीड़ा का आयोजन और उसमें युधिष्ठर द्वारा द्रौपदी को दांव पर लगाने की कुचेष्टा को भी कृष्ण आजीवन क्षमा नहीं कर पाये थे। इन सब घटनाओं से पूर्व जरासंध् और शिशुपाल का वध् कृष्ण जी द्वारा हुआ। शिशुपाल चेदिदेश के नरेश दमघोष का पुत्र था। दमघोष को कृष्ण की बुआ ब्याही थीं। शिशुपाल का कृष्ण जी के प्रति शत्रुता का व्यवहार था। वह बहुत ही अनुचित शब्दों का प्रयोग कृष्ण के लिए कर डालता था। कृष्ण जी ने अपनी बुआ को वचन दिया था कि वह शिशुपाल के सौ अपराधें को क्षमा कर देंगे। अपने वचन के अनुसार कृष्ण जी ने ऐसा ही किया भी था। यह कम धैर्य की बात नहीं थी। पांडवों द्वारा इंद्रप्रस्थ में राजसूय यज्ञ के आयोजन के समय यह घटना भी उस समय घटित हुई थी जब युधिष्ठिर द्वारा वयोवृद्घ पितामह भीष्म के परामर्श से यज्ञ में अग्रपूजा हेतु कृष्ण को अधिकारी नियुक्त किया गया।
क्रमश: