‘अन्त्येष्टि कर्म क्या है?
DR D K Garg
‘अन्त्येष्टि कर्म उस को कहते हैं कि जो शरीर के अन्त का संस्कार है, जिस के आगे उस शरीर के लिए कोर्इ भी अन्य संस्कार नहीं है।इसी को नरमेध्, पुरूषमेध्, नरयाग, पुरूषयाग भी कहते हैं ।
भस्मापिन्त शरीरम् । –यजु: अ॰ ४० । मं॰ १५ ॥ ।। १
निषेकादिश्मशानान्तो मन्त्रौर्यस्योदितो विधिः ।।२ –मनु॰
अर्थ–इस शरीर का संस्कार (भस्मान्तम्) अर्थात् भस्म करने पर्यन्त है ।।१।।
शरीर का आरम्भ ऋतुदान और अन्त में श्मशान अर्थात् मृतक कर्म
है ।।२।।
मृत शरीर के दाह संस्कार के नियम :
इस विषय में बहुत से प्रश्न अक्सर सामने आते है जिनका समुचित उत्तर देने का प्रयास किया है।
प्रश्न -1: मृत्यु होने के बाद मृत शरीर को क्या ?
(1) अग्नि मे भस्म करना चाहिए।
(2) जमीन मे दफनाना चाहिए।
(3) जल मे प्रवाहित करना चाहिए।
(4) खुले आकाश के नीचे पशु-पछियों के भोजन के लिए छोडना चाहिए।
वैदिक रीति से दाह-संस्कार करें –
अंतिम संस्कार को यज्ञ माना गया है तो अंतिम संस्कार में शामिल मनुष्य को इसका पुण्य भी मिलना चाहिए लेकिन वह तब ही मिलेगा जब हम वैदिक रीति से मृत शरीर का दाह संस्कार करेंगे। यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के 15 वें मन्त्र में यह निर्देश मिलता है कि अन्तिम-संस्कार अग्नि के माध्यम से ही करना चाहिए । “अथेदं भस्मान्तं शरीरम्” (यजु.40.15) इस मन्त्र के भाष्य में महर्षि दयानन्द जी ने लिखा है कि – “एतच्छरीरस्य भास्मान्ता क्रिया कार्या नातो दहनात्पर: कश्चित् संस्कारः कर्तव्य:” अर्थात् इस शरीर के साथ जो कुछ भी क्रिया होती है, उसकी अन्तिम क्रिया मृत-शरीर को भस्म करने पर्यन्त ही होती है, इससे आगे कुछ भी करने योग्य नहीं रह जाता । वेद के इस मन्त्र से हमें यह ज्ञात होता है कि मृत शरीर को अग्नि मं भस्म कर देना या दाह कर देना ही श्रेष्ठतम उपाय या पद्धति मना गया है ।
अग्नि में वह सामर्थ्य विद्यमान है कि अग्नि के सम्पर्क में आये किसी भी पदार्थ को जला कर नष्ट कर देती है । जैसे कि हम जब हवन-अग्निहोत्र करते हैं तब जो कुछ भी घृत वा सामग्री की आहुति प्रदान करते हैं, उन सबको अग्नि सूक्ष्म से सूक्ष्म बनाकर दूर-दूर तक फ़ैला कर वातावरण में समाविष्ट कर देती है और वातावरण को शुद्ध भी कर देती है और पर्यावरण में सुगन्धि, पौष्टिकता, निरोगता आदि के साथ सुख-शान्तिमय वातावरण को उत्पन्न कर देती है ।
इस संस्कार नाम नरमेध, पुरुषमेध या पुरुषयाग भी है। यह मृत्यु के पीछे उसके शरीर पर किया जाता है। यह एक वैज्ञानिक तर्क है कि मृत्यु होने के बाद शरीर जड अवस्था में एक पुतला मात्र रह जाता है, और यदि शरीर का तुरन्त निस्तारण नही किया जाए तो मृत्यु शरीर का तुरन्त निस्तारण नही किया जाय तो मृत शरीर मे बदबू एवं कीटाणु जन्म लेने लगते है। जिनके कारण शरीर मे दुर्गन्ध फैलती है तथा शरीर फूलने लगता है। कीटाणुओं (जम्र्स्) के निकलने से पलंग के गद्दे दूषित होते है, जिनसे परिवार के अन्य सदस्यों को हानि होने की सम्भावनाएँ होती है इस लिए सावधानी बरतनी चाहिए। अन्यथा शव को घर से विदा करने के पश्चात उस विस्तर चादर तथा मृतक के पहने हुए वस्त्रों को नष्ट कर देना चाहिए।
मृतक शरीर को जल मे बहाने से जल की अशुद्धि होती ही है एवं मृतक व्यक्ति के प्रति अपमान का घोतक भी है और इस जल में उत्पन्य कीटाणु मानव जाति के लिए हानिकारक होते है अतः ऐसा कार्य नही करना चाहिए यहि बात पारसी समुदाय पर भी लागू होती है जो पारसी लोग मृत शरीर को नहला-धुलाकर उस पर दही का लेप लगाकर अग्यकारी (पारसियों के मंदिर) मेब ने कुएं के ऊपर रखी लोहें की जाली पर रख देते है। कुछ ही देर में वहां पालतू गिद्धें आती है जो शरीर को नोच-नोच कर खाती है। शेष हड्डियाँ कुएँ मे गिरती है जिनके जल को अमृत मान कर पारसी लोग आचमन करते है।
मृत शरीर को जलाने से भूमि बहुत कम खर्च होती है। कब्रों से स्थान-स्थान पर बहुत सी भूमि घिर जाती है। शवदाह में पर्याप्त घृत-सामग्री के प्रयोग के कारण वायु प्रदूषण का भी निवारण हो जाता है। जबकि गड़ने से वायु वायु एवं भूमि प्रदूषित ही होती है। कभी-कभी कुछ पशु मृत देह को खोद खा जाते हैं। और रोगी शरीर को खाने से वे स्वयं रोगी बनकर मनुष्यों में भी रोग फैलाते हैं। कभी कुछ कफनचोर कब्र को खोद कर कफन उतार लेते हैं। कब्रों को कुछ स्वार्थी एवं पाखंडी लोग दरगाह आदि बनाकर भेंट-पूजा, चढावा आदि के माध्यम से आय का साधन बनाकर अन्धश्रद्धालु भोली-भाली जनता को लूटते हैं। अनेक पतित लोग तन्त्र-मन्त्र के नाम पर मुर्दों को उखाड़कर उनके साथ कुकर्म करते देखे गए हैं । इस से मृतक के सम्बन्धियों के मनोभावों को ठेस पहुँचती है। अग्नि द्वारा दाह कर्म ही एक ऐसा साधन है जिससे मृतदेह के सभी तत्व षीघ्र ही अपने मूल रूप् में पहुंच जाते हैं
कितनी हवन सामग्री ,घी इत्यादि का प्रयोग करना चाहिए : संस्कार विधि के अनुसार मृत्यु शरीर के शवदाह में शुद्ध ह्वन सामग्री एवं शुद्ध घी शरीर के वजन के बराबर होना चाहिए। इसमें कंजूसी करने वाले पाप/दोष के भागी है। आजकल लोग सोचते है की क्या फरक पड़ेगा? शव को जल्दी-जल्दी में घास ,फूसा के द्वारा ठिकाने लगा दिया जाना ही शव को जलाना ही संस्कार मान लिया है बहुत कम घी , सामग्री उपयोग किया जाता है जिससे मृतक शरीर के अवशेष कीटाणु वातावरण में फैल जाते है पूर्णतया नष्ट नहीं हो पाते पर्यावरण का प्रदूषण होता है पुण्य के स्थान पर हम जाने अनजाने में पाप के भागी बन रहते हैं।
हमारे ऐतिहासिक ग्रंथ रामायण महाभारत में भी विधिवत अंत्येष्टि कर्म का ही वर्णन मिलता है |
वैदिक अंत्येष्टि कर्म पद्धति क्या है?
सबसे प्रथम श्मशान भूमि में को खोदकर वेदी निर्मित की जाती है या बानी बनायीं वेदी को पानी से धोया जाता है। इसका औसत आकार आयताकार ७×४ होना चाहिए| पहले मृतक के शरीर की मोटाई से उसकी गहराई निर्धारित की जाती थी सर की तरफ ऊंची पैरों की तरफ ढलान लिए बनाई जाती थी| इसके पश्चात गाय के गोबर से उसे लीप दिया जाता था| लेकिन आज हम देखते हैं जमीन पर ऊपर रखकर ही दाह संस्कार कराया जा रहा है जो वैज्ञानिक तौर पर उचित नहीं है आवश्यक अधिकतम ११०० डिग्री सेल्सियस तापमान उत्पन्न नहीं हो पाता है|दहनदक्षता Burning_effecinecy कम होने से कार्बनडाइऑक्साइड ज्यादा उत्सर्जित होती है फलस्वरूप ज्यादा प्रदूषण होता है हमारे पूर्वजों ने इस तथ्य को अरबो वर्ष पहले भाप लिया था इस कारण वह जमीन के अंदर यज वेदी खोदकर दाह संस्कार करते थे| विश्वस्वास्थ्यसंगठन की जैव अपशिष्ट निपटारे के संबंध में जो गाइड लाइन है उनका पालन हमारे पूर्वज सैकड़ों हजारों वर्षों से कर रहे हैं लेकिन अब हम नहीं कर रहे हैं हम तब ही कर पाएंगे जब वैदिक रीति से दाह संस्कार दोबारा प्रचारित प्रसारित होंगे| हमारे श्मशान गांव की दक्षिण_दिशा में होते थे इसका कारण यह था कि दक्षिण दिशा से मौसमी हवाएं बहुत कम चलती हैं जिससे कम से कम दुर्गंधी गांव की ओर आएगी|
*दाह संस्कार में प्रयोग घी और सामग्री* :इसके लिए प्रावधान है की मृतक के शरीर के वजन के बराबर गाय का घी तथा वजन से दुगनी सामग्री प्रयोग करनी चाहिए। चंदन, बड, आम पलास की लकड़ी अच्छी रहती है। गोबर के उपले कंडे उपला का प्रयोग न करें| ऐसा देखा गया है की एक परिवार में ३ भाई है और उनके ४ बच्चे भी कमाने वाले है लेकिन बाबा के दाह संस्कार में २ किलो घी और शुद्ध सामग्री, गोला इत्यादि भी नहीं प्रयोग हुआ। केवल एक किलो घी में काम ख़तम कर दिया। बहुसंख्यक हिंदुओं में वैदिक रीति से दाह संस्कार नहीं होता और दाह संस्कार में कंजूसी करते है ,ये मृतक के साथ बहुत बड़ा अन्याय है। और तो और शोक सभा में ये खूब पैसा खर्च करेंगे ,दिखावा करेंगे ,पण्डे को पैसा देंगे, गरुड़ पुराण का पथ कराएँगे आदि लेकिन मृतक के दाह संस्कार में केवल एक किलो घी प्रयोग करते है। इनको क्या कहेंगे आप स्वयं निर्णय ले ।
*अन्य नियम इस प्रकार है* :
1) पुरुष को पुरुष और महिला को महिला स्नान करावे।
2)मृत देह को भूमि पर रखने से पूर्व भूमि गोबर से लीपनी चाहिए । वह संभव न हो, तो भूमि पर गोमय अथवा विभूति के जल से सिंचन (छिडकें) करें ।
3) शरीर के भार से दूनी सामग्री, शरीर के वजन के बराबर चन्दन लकड़ी, एक मन घृत , १ माशा केसर ,कपूर ,पलाश आदि।
4) घृत का दीपक करके ,कपूर लगाकर सिर से आरम्भ करके पादपर्यन्त मध्य -मध्य में अग्नि प्रवेश करवाए। अग्नि में प्रवेश कराके-
ओम् अग्नये स्वाहा ।
ओम् सोमाय स्वाहा |
आदि ५ मंत्रो से प्रारम्भ करके आहुति देवे। इसके बाद ४ मनुष्य (यानि महिला या परुष या कोई भी) पृथक पृथक खड़े होकर वेद मंत्रो से आहुति देते जाये। इस प्रकार अन्य भी वेद मंत्र है जिनका विस्तार से उल्लेख्य यहाँ करना जरुरुी नहीं , संस्कार विधि में आप देखें।
5) चार मनुष्य चिता के चारों ओर खड़े होकर यजुर्वेद के १२१ मंत्रों से आहुति दे और ये कार्यक्रम तब तक चलता रहना चाहिए जब तक मानव-देह भसम होकर पंचतत्व में विलीन नहीं हो जाती | आज हम मानव शरीर को भस्म होने से पूर्व भी श्मशान भूमि को छोड़ देते हैं यह उस मृतक के शव का अपमान तिरस्कार है| इस बात के पीछे एक मनोवैज्ञानिक रहस्य है कि मनुष्य जितना अधिक श्मशान में समय गुजारेगा वैराग्य की भावना इतनी प्रबल होगी उसके विकार उतने ही नष्ट होंगे |
*विचार करने योग्य प्रश्न*: बहुत से बुद्धिजीवी कहेंगे भाई यदि इस रीति से संस्कार करें तो आज के जमाने में ५०००० से लेकर १००००० रुपए तक खर्च आएगा , धनराशि कौन वहन करेगा? हम पूछते हैं मृतक अपने पीछे करोड़ों लाखों की जायदाद छोड़ जाता है अपने जीवन में वह इस धरती को कितना प्रदूषित करता है मलमूत्र के माध्यम से अपनी कार से लाखों रुपए का पेट्रोल फूक देता है |क्या वह अपने जीते जी दाह संस्कार के संबंध में कुछ रुपयों की व्यवस्था नहीं कर सकता?|
*कपाल क्रिया* : अंतिम संस्कार के अंत में सर फोड़ने की क्रिया को कपालक्रिया कहते हैं।इसका कोई वैदिक प्रावधान नहीं है। मान्यता के अनुसार ये क्रिया इसकिये की जाती है की खोपड़ी की हड्डी मजबूत होती है कि आग में भस्म होने में उसे समय लगता है इसका कोई दूसरा कारन नहीं होता। आजकल सिर से बांस का डंडा छुवाकर ,बांस को दुर फैक देते है ये आडम्बर का हिस्सा है।
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