प्रस्तुति : डा. जगत सिंह सिसोदिया
कहावत है कि आदमी बड़ा नही होता, वक्त बड़ा होता है। उसी वक्त की आंधी ने मुगलिया हुकूमत और उसकी आन-बान को मिट्टी भले ही कर दिया हो, लेकिन इसी बात पर इतिहास की किताब से उनके शानदार बीते हुए कल का पन्ना तो नही फाड़ा जा सकता। कभी सुदूर मध्य पूर्व एशिया से घोड़ों पर सवार हो पहाड़ों और दर्रों को फांदते हुए हिंदुस्थान को फतह कर, उस पर शासन करने वाले मुगलों के बचे खुचे शाही वारिस आज भी हैदराबाद के एक मुहल्ले में गुमनामी की जिंदगी बिता रहे हैं।
दिल्ली के शाही तख्त से उतर कर आंध्र प्रदेश की राजधानी के एक मुहल्ले अस्मानगढ़ तक मुगलों के सफर की कहानी 1857 में शुरू हुई। शाही परिवार की मौजूदा पीढ़ी की वयोवृद्घ सदस्या बेगम लैला उमहानी की आंखों में किस्सा सुनाते हुए इतिहास उतर आता है। उनके मुताबिक गदर के वे दिन आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के लिए बेचैनी भरे थे।
अंग्रेजों ने उन पर इतनी पाबंदियां लगा रखीं थीं कि लोग कहते थे बहादुरशाह का राज केवल लालकिले से जामा मस्जिद तक रह गया है। सो जब मेरठ से आए फौजियों ने उनसे स्वाधीनता की लड़ाई का नेतृत्व स्वीकारने की बात कही तो बहादुरशाह ने प्रस्ताव मान लिया। बाद में उन्हें इसी सिलसिले में गिरफ्तार कर रंगून भेज दिया गया, जहां नजरबंदी में जफर ने अपनी आखिरी सांस ली। उनके तीन लडक़ों को छोड़ कर शेष को कंपनी की फौज ने मौत के घाट उतार दिया गया था।
जीवित बचे तीन शाही वारिसों में दो को पकड़ कर देश निकाला दे दिया गया। केवल मिर्जा कैस भागने में सफल रहे। शाही खानदान का यह आखिरी आजाद चिराग भाग कर पहले काठमांडू गया और बाद में छिपते छिपाते हैदराबाद पहुंचा। मिर्जा कैस का बेटा मिर्जा अब्दुल्ला और उसका बेटा मिर्जा प्यारा के नाम से जाना गया। भारत के आजाद होने के बाद जब मिर्जा प्यारा खानदान हैदराबाद जाकर बसा, तब उसकी बिटिया लैला उमहानी छोटी सी लडक़ी थी।
आज मुगलिया सल्तनत की इस वर्तमान पीढ़ी के लिए हैदराबाद की यह गुमनाम इमारत ही लाल किला है। बैठक की दीवारों पर उनके पुरखों बाबर, अकबर, शाहजहां और मुमताज महल के बड़े बड़े तैलचित्र लगे हुए हैं। परंपराओं की डेार पकड़े बेगम लैला उमहानी के दोनों बेटे जियाउद्दीन टूसी और मुसीहिदीन टूसी उज्बेकिस्तान के अंतर्राष्टï्रीय बाबर सार्वजनिक कोष और भारत की महान मुगल उत्ताराधिकारी समिति के सक्रिय सदस्य हैं। कभी अपने शाही जलाल से एशिया में रूतबा गालिब करने वाले मुगल आज 18 सदस्यों के परिवार के रूप में गुमनाम से सिमटे हुए हैं। शाही दस्तरख्वान, हुक्मनामों और सलामियों के आदी आज हिंदुस्तान के आम आदमियों की भीड़ में गुम हैं और इसे ही वक्त कहते हैं।
(साभार)