गतांक से आगे….
मत जी खाने के लिए,
जीने के लिए खाय।
मन को रखना मोद में,
रोग निकट नही आय ।। 963।।
व्याख्या : महर्षि पतंजलि ने कहा था-हित भुक, मितभुक, ऋतभुक अर्थात भोजन ऐसा करो जो तुम्हारे शरीर की प्रकृति और ऋतु के अनुकूल हो किंतु भूख से थोड़ा खाओ। अत: मनुष्य को खाने के लिए नही जीना चाहिए, अपितु जीने के लिए खाना चाहिए, तथा तनाव रहित जीवन जीकर सर्वदा प्रसन्नचित रहना चाहिए यदि मनुष्य इस प्रकार अपनी जीवनशैली को नियमित रखे तो वह निरोग रह सकता है।
प्रभु चरणों में चित लगै,
वो क्षण है अनमोल।
नर तन में ही ले सके,
ओ३म नाम तू बोल ।। 964 ।।
व्याख्या :
हे मनुष्य! विधाता ने जो विविध और विशाल विश्व बनाया है, इसमें उस सृष्टा की दिव्य और भव्य सर्वोत्तम कृति मानव शरीर है। इसका तुझे भान होना चाहिए। यूं तो उसने चौरासी लाख योनियां बनाई हैं, किंतु मनुष्य योनि को छोडक़र सभी योनियां भोग-योनि हैं। इन सबके दरवाजे बंद हैं। केवल भक्ति और मुक्ति का द्वार मानव योनि है। यदि अबकी बार भी चूक हो गयी तो न जाने कितने जन्म जन्मांतरों तक आवागमन के क्रम में जीवात्मा आबद्घ रहेगी। बड़े पुण्य कर्मों के बाद मनुष्य जन्म मिलता है। इसलिए अपने जीवन को सत्कर्म और प्रभु सिमरन में व्यतीत कर ताकि भव बंधन से तुझे मुक्ति मिल सके। ध्यान रहे, प्रभु चरणों में बैठकर उसके सिमरन में मनुष्य के जीवन का जो क्षण व्यतीत होता है, वह अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। अत: मानवीय जीवन को अपने चित्त्त को, प्राणी मात्र के कल्याण और प्रभु ध्यान में लगाना चाहिए।
मैं मेरा दोनों रहें,
अंत:करण के बीच।
ज्ञान के चक्षु से निरख,
क्यों राखे हैं मीच ।। 965।।
व्याख्या :
मनुष्य का जब जन्म होता है तो जीवात्मा परमात्मा के अभिमुख होती है, किंतु अज्ञानवश धीरे-धीरे संसार का मैल आत्मा पर चढऩे लगता है, क्योंकि आत्मा को हमारा मन माया प्रकृति से जोड़ देता है। अंतत: परिणाम यह होता है कि आत्मा परमात्मा से विमुख हो जाती है तथा माया के अभिमुख हो जाती है। यही चूक आत्मा को आवागमन के क्रम में आबद्घ करती है। कैसी विडंबना है, मैं और मेरा अर्थात आत्मा परमात्मा हमारे चित्त में निवास करती है, किंतु दोनों के बीच में जड़ता का अर्थात अज्ञान का पर्दा पड़ा होने के कारण साक्षात्कार नही हो पाता है। यदि ज्ञान की दिव्यदृष्टि उत्पन्न हो जाए तो, मैं को मेरे का दीदार हो जाए। अत: आवश्यकता जड़ता को मिटाने की है।
यदि मैं मेरे को जानता,
तो भक्ति में हो लीन।
उर में ऐसी तड़प हो,
जैसे जल बिन मीन ।। 966।।
व्याख्या :
जो लोग ‘मैं’ आत्मा ‘मेरे’ परमात्मा को जानना चाहते हैं, उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि शरीर के प्रपंच के पीछे जीवात्मा ही सार वस्तु है, संसार के प्रपंच के पीछे ब्रह्मा ही सार वस्तु है। जीवात्मा तथा ब्रह्मा ही आत्म तत्व है, उसे ही जानना चाहिए किंतु यह बुद्घि का विषय नही है। क्रमश: