धर्म की राजनीति तो रास नहीं आती राहुल गांधी को पर धर्म स्थलों पर जाना रास आता है
शकील अख्तर
ऐसा नहीं है कि राहुल प्रियंका को वहां की हकीकत से लोगों ने आगाह नहीं करवाया हो। मगर किसी के खिलाफ भी कार्रवाई करने में ये लोग इतनी देर लगाते हैं कि तब तक खेल हो चुका होता है। अभी जी-23 के बागी नेताओं का उदाहरण सबके सामने हैं। खुले आम बगावत के बावजूद उन्हें कोई और बड़ा कांड करने की मोहलत दी जा रही है। उसी जम्मू में जहां अभी जी-23 के नेताओं ने अपना पृथक सम्मेलन किया गुलाम नबी आजाद ने प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ की। वहीं वैष्णो देवी यात्रा के बाद राहुल, आजाद के साथ खड़े हुए थे। वही फोटो मीडिया में चले।
विपक्ष का नेता कौन है इसे पहचानने का सबसे आसान तरीका है यह देखना कि सत्तापक्ष और उसके सहयोगी जैसे मीडिया किसका विरोध सबसे ज्यादा कर रहे हैं! क्या राहुल गांधी के अलावा विपक्ष का कोई और नेता ऐसा है जिस पर इतने हमले हुए हों? सरकार, पार्टी, मीडिया, व्हाट्सएप ग्रुप सब रात दिन लगे रहते हैं। क्यों?
क्योंकि एक, राहुल डरते नहीं हैं। दो, वे छोटे स्तर पर जाकर किसी का विरोध नहीं करते हैं। तीन, अपने ऊपर हो रहे तमाम गंदे और ब्लो द बेल्ट (अनैतिक, अभद्र) हमलों से भी वे विचलित नहीं हो रहे हैं और चार एवं आखिरी मगर सबसे महत्वपूर्ण की धर्म और जाति की राजनीति से ऊपर उठकर युवा, किसान, मजदूर, गरीब सबकी बात कर रहे हैं। राहुल का यह समावेशी अंदाज ही विभाजन की राजनीति को सबसे ज्यादा परेशान करता है।
राहुल धर्म की राजनीति नहीं करते। मगर धार्मिक स्थलों पर खूब जाते हैं। और वह भी एक सामान्य यात्री की तरह, पैदल पहाड़ चढ़ते हुए। अभी वैष्णो देवी की यात्रा पर गए। 14 किलोमीटर का पहाड़ी रास्ता मास्क लगाकर तेज चलते हुए। साथ वालों ने जिनमें सुरक्षाकर्मी भी शामिल थे चढ़ाई पर मास्क उतार लिए मगर राहुल ने लगाए रखा। कैमरों के लिए ऐसे दृश्य बहुत आकर्षक होते हैं। कमेन्ट्री करने वाले रिपोर्टरों के लिए भी। मगर टीवी ने लाइव तो दिखाया नहीं। मगर उसके बाद सवालों की झड़ी लगा दी। उनके सवाल कैसे होते हैं? कुछ ऐसे कि यहां क्यों गए? वहां क्यों नहीं? इस ढाबे पर चाय पी उस पर क्यों नहीं? इस आदमी से बात की उससे क्यों नहीं? जब चलने में टी शर्ट पहनी तो दर्शन के समय कुरता क्यों? एंकर चिल्लाते हैं कि उनके इन सवालों के जवाब नहीं मिल रहे। राहुल देश और समाज के सामने के इन गंभीर सवालों से बच कर भाग रहे हैं।
मगर कभी-कभी ऐसा होता है कि जनता खुद ही जवाब दे देती है। टीवी वालों को तो वह भी महत्व देती नहीं। मगर अभी एक मंत्री को जवाब दे दिया। केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी अमेठी से चुनाव जीत चुकी हैं। मगर उन्हें अभी भी यकीन नहीं होता कि जनता ने उन्हें चुना है। अमेठी में एक लस्सी वाले से उन्होंने पूछा था कि क्या कभी राहुल या गांधी परिवार का कोई व्यक्ति यहां आया है? अपने मोबाइल पर बड़ी हसरत से वीडियो बनाते हुए ईरानी जी ने टीवी एंकरों की तरह यह सवाल पूछा था। लस्सी वाले ने शांति से जवाब दिया हां, राहुल जी आए थे और प्रियंका जी भी। स्मृति ईरानी का चेहरा देखने लायक था। उन्हें पता नहीं किस ने अमेठी, रायबरेली में परिवार के बारे में ऐसा सवाल पूछने की सलाह दी थी या तो वह व्यक्ति अमेठी रायबरेली का नहीं था या स्मृति ईरानी का शुभचिन्तक नहीं था।
ईरानी जी वहां परिवार के साथ जाते रहने वाले किसी पत्रकार से ही पूछ लेतीं तो वह बता देता कि यह लोग सबसे मिलते हैं। हर जगह जाते हैं। दर्जनों पत्रकार ऐसे हैं जो बरसों से अमेठी रायबरेली जा रहे हैं। इनमें से कई भक्त बनकर अब संपादक, एंकर बन गए हैं। राहुल के खिलाफ किसी भी स्तर तक जाने को तैयार रहते हैं। इन्हीं से अगर ईरानी जी पूछ लेतीं तो वे बता देते कि राहुल कहीं रास्ते में सड़क किनारे बैठकर भी वहां लंच कर लेते थे। और प्रियंका खेत में काम कर रही किसान महिलाओं के साथ भी। सोनिया गांधी खुद वहां अपनी साड़ी प्रेस करके पहन लेती हैं और प्रियंका रात को चुपचाप कैप्टन सतीश शर्मा (कैप्टन अब रहे नहीं) के साथ जाकर उस घर में पैसे और सामान दे आती हैं, जहां लड़की की शादी होना है। कांग्रेस में पहले एक ही कैप्टन हुआ करते थे जो खुले हाथों कार्यकर्ताओं और अमेठी, रायबरेली की जनता की मदद करते थे। आज के कैप्टन (पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिन्दर सिंह) के बारे में जनता और कार्यकर्ताओं में से किसी के पास ऐसी चुपचाप मदद करने की कहानियां नहीं हैं।
चुपचाप मदद करने की ये परंपरा नेहरू से शुरू हुई थी, जो निराला जैसे फक्कड़ कवि, सरदार पटेल जैसे नेता के परिवार, साधारण कार्यकर्ता सबकी मदद करते थे। उनकी जेब में तो कभी पैसा रुकता ही नहीं था। उनके निजी सचिव एमओ मथाई ने अपनी किताब में लिखा है कि वे अपनी पूरी तनखा कुछ ही दिनों में बांट देते थे। पर्सनल स्टाफ ने जब उनकी जेब में पैसा रखना बंद किया तो वे अपने सुरक्षाकर्मियों से उधार मांगकर जरूरतमंदों को दे देते थे। सुरक्षाकर्मी फिर मथाई से पैसे मांगते थे। मथाई को सुरक्षाकर्मियों को निर्देश देना पड़े कि उन्हें पैसे मत देना या कम देना। इन्दिरा गांधी भी लोगों की बहुत मदद करती थीं। इनमें पत्रकार लेखकों के साथ गांवों के लोग भी शामिल होते थे। दिल्ली के बाहर से आए एक लेखक ने बताया कि दिन भर लोगों से मिलते देर हो गई।
इन्दिरा जी से मिलने रात को जब पहुंचे तो धवन ने कहा कि उन्होंने आपको पूछा था। मगर अब तो बहुत देर हो गई। क्या मैसेज पहुंचाएं? लेखक ने कहा नहीं। सरदार जी टैक्सी वाले का बिल दे दो। दिन भर से इन्हें साथ लिए हूं। ज्यादा पैसे हो गए। आर के धवन ने तत्काल सरदार जी को पैसे दिए। और लेखक जी को अपनी गाड़ी से पहुंचाने का इंतजाम किया। सामान्य समय में यह सब सहज मानवीय प्रवृति की कहानियां होती हैं। मगर ऐसे क्रूर सवालों के समय में ये कहानियां बड़ी लगने लगती हैं।
चुनाव में हार जीत अलग बात है। इन्दिरा गांधी और संजय गांधी भी अमेठी, रायबरेली से हारे थे। मगर परिवार का अमेठी रायबरेली की जनता के साथ संबंध अगर किसी को जानना है तो वह किसी भी गांव में चला जाए और पूछ ले भैया जी आए थे? इतने प्रतिकूल माहौल में भी गांव वाले यहीं बताएंगे कि हां आए थे। तब आए थे। वहां भैया जी राहुल को नहीं प्रियंका को कहा जाता है। प्रियंका राजीव गांधी के साथ वहां जाती थीं। तब से उन्हें वहां लोग भैया जी पुकारने लगे। जो सम्मान और प्यार से आज तक कह रहे हैं। यहां बात आई है तो प्रसंगवश यह भी बता दें कि राहुल के अमेठी हारने का कारण कोई स्मृति ईरानी की लोकप्रियता नहीं है।
बल्कि वहां परिवार द्वारा नियुक्त किए गए कुछ कांग्रेसियों का ही कार्यकर्ताओं और जनता के साथ किया गया दुर्व्यवहार है। दस साल की सत्ता ने देश भर के बड़े कांग्रेसी नेताओं, मंत्रियों के साथ अमेठी रायबरेली के नेताओं को भी अहंकारी बना दिया था। राहुल के हारने की इबारत 2014 में ही लिखी जा चुकी थी। अंतिम क्षणों में वहां प्रसिद्ध कवि मलिक मोहम्मद जायसी के शहर जायस में प्रियंका ने राहुल के साथ एक रैली निकालकर बाजी अनुकूल कर ली थी। नहीं तो वह चुनाव भी हाथ से निकलने वाला था। पहली बार दोनों एक साथ बाजारों में घूमे थे।
ऐसा नहीं है कि राहुल प्रियंका को वहां की हकीकत से लोगों ने आगाह नहीं करवाया हो। मगर किसी के खिलाफ भी कार्रवाई करने में ये लोग इतनी देर लगाते हैं कि तब तक खेल हो चुका होता है। अभी जी-23 के बागी नेताओं का उदाहरण सबके सामने हैं। खुले आम बगावत के बावजूद उन्हें कोई और बड़ा कांड करने की मोहलत दी जा रही है। उसी जम्मू में जहां अभी जी-23 के नेताओं ने अपना पृथक सम्मेलन किया गुलाम नबी आजाद ने प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ की। वहीं वैष्णो देवी यात्रा के बाद राहुल, आजाद के साथ खड़े हुए थे। वही फोटो मीडिया में चले। राहुल की अमेठी की हार खतरे की बड़ी घंटी थी। मगर लगता है परिवार को पार्टी के अंदर से आती आवाजें बिल्कुल सुनाई नहीं पड़ती है।
राजीव गांधी के साथ भी ऐसा ही हुआ था। अंदर के ही लोगों वीपी सिंह, अरूण नेहरु ने उनकी सरकार पलट दी। मगर लगता है उससे भी परिवार ने कोई सबक नहीं सीखा है।
बाहर जरूर मजबूती से लड़ते हैं मगर अंदर दया और क्षमा भाव ज्यादा ही प्रबल हो जाता है!