कमजोर कर्ज वसूली से बेहाल बैंकों के लिए एक और बुरी खबर है। भारत सरकार के वित्तीय सेवा विभाग द्वारा जारी ताजा जानकारी के अनुसार पिछले एक साल में कर्ज वसूली पंचाटों (डेब्ट रिकवरी ट्रिब्यूनल- डीआरटी) में लंबित मामलों की संख्या और रकम में तेजी से इजाफा हुआ है। दिसंबर 2014 के अंत तक देश में कार्यरत तैंतीस डीआरटी में 59,645 मामले निर्णय का इंतजार कर रहे थे, जिनमें बैंकों के 37.4 खरब रुपए फंसे हैं। ठीक एक साल पहले ऐसे मामलों की संख्या 47,933 और रकम 17.8 खरब रुपए थी। मतलब यह है कि महज एक वर्ष के भीतर 11,692 मामले बढ़ गए और रकम दो गुना से भी ज्यादा (19.6 खरब रुपए) हो गई है। यह संकेत अर्थव्यवस्था के लिए शुभ नहीं है।
डीआरटी का गठन रिकवरी ऑफ बैक्स ऐंड फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशंस एक्ट, 1993 के तहत किया गया। उद्देश्य रहा है फंसे कर्जों की वसूली में तेजी लाना। लेकिन मौजूदा हालात देख कर लगता है कि मात्र दो दशक में अद्र्धन्यायिक अधिकार प्राप्त ये पंचाट अपनी उपयोगिता खो चुके हैं। नियमानुसार कोई केस आने के छह माह के भीतर उसका निपटारा हो जाना चाहिए, पर ऐसा होता नहीं है। फिलहाल सारे पंचाट मिल कर एक साल में करीब ग्यारह-बारह हजार केसों का निपटारा कर पाते हैं। इस हिसाब से आगे अगर एक भी नया केस न आए तब भी मौजूदा करीब साठ हजार मामले निपटाने में पांच साल लग जाएंगे। इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि निकट भविष्य में बैंकों की दशा में सुधार के आसार बहुत क्षीण हैं। बड़े-बड़े कॉरपोरेट और उद्योगों पर आज बैंकों का खरबों रुपया बकाया है। इस जून में समाप्त तिमाही में देश में सूचीबद्ध (लिस्टेड) उनतालीस बैंकों का नॉन परफॉर्मिंग एसेट (एनपीए) बढ़ कर 32.1 खरब रुपए हो गया। एक साल के अंदर उनके एनपीए में 27.69 फीसद का इजाफा हो गया जो गहरी चिंता का विषय है। पिछले तीन साल में बैंकों से लिए गए ऋण न लौटाने की बीमारी का विस्तार तेजी से हुआ है। पिछले दो वर्ष से तो एक नया रुझान लक्षित किया जा रहा है। इस अवधि में दस लाख या इससे अधिक रकम के बड़े कर्जदार बैंकों से लिया उधार लौटाने में खुद को असमर्थ घोषित कर रहे हैं। डीआरटी में दर्ज नए केस इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। इससे जाहिर होता है कि तमाम दावों के बावजूद देश की आर्थिक स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है। बैंक रिकवरी में सुधार की नीयत से वित्तमंत्री अरुण जेटली ने पिछले साल जून में अपने बजट भाषण में छह नए कर्ज वसूली पंचाट गठित करने की घोषणा की थी, मगर एक वर्ष से ऊपर गुजर जाने के बावजूद इस पर अमल नहीं हो पाया है। इतना ही नहीं, मौजूदा पंचाटों में से अनेक के पीठासीन अधिकारी (प्रिसाइडिंग ऑफिसर) सेवानिवृत्त हो चुके हैं, मगर उनके स्थान पर नई नियुक्तियां नहीं की गई हैं। इस वजह से काम में भारी हर्जा हो रहा है। डीआरटी के निर्णय आने में विलंब का एक बड़ा कारण है आरोपी कर्जदारों का किसी न किसी बहाने बार-बार अपील करना। इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए कर्ज की रकम के हिसाब से अधिकतम अपील संख्या तय कर दी जानी चाहिए।
अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडी के अनुसार चालू वित्तवर्ष में भी बैंकों को ‘बैड लोन’ के अभिशाप से मुक्ति नहीं मिलेगी। उलटे यह रकम 4.6 प्रतिशत (मार्च 2015) से बढ़ कर 4.8 फीसद हो जाएगी। बीते साल सरकारीबैंकों का एनपीए लक्ष्मण-रेखा लांघ कर 5.2 प्रतिशत पर पहुंच चुका था, इसमें और इजाफे के आसार हैं। जून में समाप्त हुई तिमाही के ताजा परिणामों पर नजर डालने से पता चलता है कि इस दौरान देश में लिस्टेड उनतालीस बैंकों में से उन्नीस का लाभ 95 से 81 प्रतिशत के बीच कम हुआ। इनमें चौदह सरकारी बैंक हैं। मुनाफा वृद्धि दर में इजाफा दर्शाने वाले शेष बीस बैंकों में से ग्यारह प्राइवेट हैं। यह तथ्य काबिलेगौर है कि पिछले वर्ष के मुकाबले प्राइवेट बैंकों का लाभ 11.1 प्रतिशत बढ़ गया, जबकि सरकारी बैंकों का मुनाफा इक्कीस फीसद गिर गया है। मतलब यह कि सरकारी नियंत्रण वाले जो बैंक लाभ दर्शा रहे हैं, उनकी हालत भी बहुत अच्छी नहीं है।
देश के बैंकिंग उद्योग में सार्वजनिक बैंकों की हिस्सेदारी सत्तर प्रतिशत से अधिक है, और उनमें से अधिकतर आज बीमार हैं। आज जिन सत्रह बैंकों का एनपीए पांच प्रतिशत के खतरनाक स्तर पर पहुंच चुका है उनमें से पंद्रह सरकारी और केवल दो प्राइवेट हैं। सबसे बुरी हालत यूनाइटेड बैंक (एनपीए 9.57 फीसद) की है और इसके बाद इंडियन ओवरसीज बैंक (एनपीए 9.4 फीसद) का नंबर है। दूसरी ओर निजी क्षेत्र के एचडीएफसी, इंडस और यस बैंक हैं, जिनका एनपीए एक फीसद से भी कम है। सरकारी बैंकों की इतनी बुरी हालत अब से पहले, करीब एक दशक पूर्व देखने को मिली थी। तब पंद्रह बैंकों का एनपीए पांच प्रतिशत से अधिक था। सार्वजनिक बैंकों की कार्यप्रणाली में वित्त मंत्रालय का हस्तक्षेप रहता है जिस कारण वे पेशेवर रवैया नहीं अपना पाते। सरकारी योजनाओं को अमली जामा पहनाने का भार भी उनके सिर रहता है। बाजार में निजी बैंकों की हिस्सेदारी तीस फीसद है लेकिन घाटे का कोई काम उन पर नहीं थोपा जाता। जन-धन योजना का ही उदाहरण लें, जिसमें देश भर के बैंकों में गरीबों के करोड़ों ‘जीरो बैलैंस’ खाते खोले गए। ऐसे खातों से बैंक की कमाई नहीं, खर्च होता है। कायदे से सत्तर प्रतिशत खाते सार्वजनिक बैंकों में और तीस फीसद निजी बैंकों में खुलने चाहिए, लेकिन सरकारी दबाव के कारण 96 प्रतिशत खाते सार्वजनिक बैंकों को खोलने पड़े और निजी बैंकों ने महज चार फीसद खाते खोल कर पल्ला झाड़ लिया। इसी प्रकार मनमोहन सिंह सरकार ने हर सार्वजनिक बैंक के लिए किसानों को कर्ज मुहैया कराने का लक्ष्य निर्धारित किया था, जिससे उन्हें बड़ा वित्तीय झटका लगा। ऐसे में केवल मुनाफे का पैमाना अपना कर निजी और सार्वजनिक बैंकों की तुलना करना अन्याय होगा। बैंकों की स्थिति जैसी दिख रही है, उससे कहीं अधिक खराब है। ऐसे कई कर्ज हैं जिनकी वसूली की दूर-दूर तक संभावना नहीं है। अपनी बैलेंसशीट दुरुस्त दिखाने के लिए बैंकों ने उन कर्जों को पुनर्गठित (रिस्ट्रकचर) कर दिया है। यानी कागजों पर वसूली की झूठी आशा दर्शाई जा रही है। जब इन पुनर्गठित कर्जों की तय मियाद पूरी हो जाएगी और वसूली नहीं होगी, तब बैंकों के एनपीए में इजाफा होना लाजमी है।
कर्ज न लौटाने वाले उद्योग कानूनी दांव-पेच का सहारा लेकर अक्सर बच जाते हैं। वे अदालतों से स्थगनादेश ले आते हैं। अब मांग की जा रही है कि जान-बूझ कर कर्ज न लौटाने वाले उद्योगों के खिलाफ फौजदारी का मामला दर्ज किया जाए और दोषी कंपनियों के मैनजमेंट में बदलाव की प्रक्रिया को आसान बनाया जाए ताकि प्रबंधन अपने हाथ में लेकर बैंक अपना कर्ज वसूल कर सकें। साथ ही दोषी कंपनियों की संपत्ति बेचने की प्रक्रिया आसान बनाई जाए। केंद्रीय सतर्कता आयोग के निर्देश के अनुसार फिलहाल ऐसी संपत्ति खुली नीलामी के जरिए बेची जा सकती है। बैंक चाहते हैं कि उन्हें अपने ‘बैड लोन’ सीधे बेचने की अनुमति दी जाए। अर्थव्यवस्था का असली चेहरा बैंकों द्वारा दिए गए कर्जों की गहराई में जाने पर ही देखा जा सकता है। केंद्र में भाजपा सरकार बनने के बाद बैंकों ने जो कर्ज दिए हैं। (साभार)